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सिविल कानून

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 34

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 27-Dec-2023

सुधाकर शर्मा एवं अन्य बनाम नंदिनी मिश्रा एवं अन्य

"विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 34, केवल स्वामित्व की घोषणा के लिये किसी वाद को स्वचालित रूप से वर्जित नहीं करती है, भले ही वादी अतिरिक्त पारिणामिक अनुतोष की मांग कर सकता हो।"

न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर

स्रोत: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर ने कहा है कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 34 केवल स्वामित्व की घोषणा के लिये किसी वाद को स्वचालित रूप से वर्जित नहीं करती है, भले ही वादी अतिरिक्त पारिणामिक अनुतोष की मांग कर सकता हो।

  • हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह निर्णय सुधाकर शर्मा एवं अन्य बनाम नंदिनी मिश्रा एवं अन्य के मामले में दिया।

सुधाकर शर्मा एवं अन्य बनाम नंदिनी मिश्रा एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • याचिकाकर्त्ताओं द्वारा उठाया गया मुख्य प्रतिविरोध यह था कि प्रतिवादियों, जिन्होंने विवादित संपत्ति के स्वामित्व का दावा किया था, उनके पास कभी भी कब्ज़ा नहीं था। याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि चूँकि वाद कब्ज़े की पारिणामिक अनुतोष की मांग किये बिना घोषणा के लिये था, इसलिये इसे SRA, 1963 की धारा 34 द्वारा वर्जित किया गया था।
  • जबकि प्रतिवादियों ने इस तर्क का विरोध करते हुए कहा कि उनके दादाजी की मृत्यु के बाद भी उनकी संपत्ति का उनके वहाँ आने-जाने से उनके कब्ज़े को दर्शाता है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि कब्ज़े के सवाल पर मुख्य वाद के दौरान निर्णय सुनाया जाना चाहिये और वादपत्र को खारिज़ करने का आवेदन असामयिक था।
  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादियों द्वारा दायर किया गया वाद केवल एक घोषणा के लिये नहीं था, बल्कि इसमें स्थायी व्यादेश और क्षति जैसे पारिणामिक अनुतोष भी शामिल थे और इस बात पर ज़ोर दिया कि कब्ज़ा एक तथ्य है जिसे मुकदमे के दौरान साक्ष्य के माध्यम से स्थापित किया जाना चाहिये और इसे केवल वादी की विषय-वास्तु के आधार पर निर्धारित नहीं किया जा सकता।
  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 के नियम 11 (d) के तहत आवेदन की अस्वीकृति की पुष्टि करने वाले आक्षेपित आदेश को न्यायालय ने बरकरार रखा था।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • SRA की धारा 34 यह अनिवार्य नहीं करती है कि पारिणामिक अनुतोष के बिना एक घोषणात्मक वाद, जिसे प्रतिवादियों-वादी ने मांगने में सक्षम होने के बावजूद ऐसा करने से छोड़ दिया है, बिल्कुल भी बनाए रखने योग्य नहीं है।
  • बल्कि धारा यह प्रदान करती है कि प्रतिवादियों/वादी की ओर से केवल स्वामित्व की घोषणा के अलावा अतिरिक्त अनुतोष मांगने के लिये न्यायालय द्वारा ऐसी कोई घोषणा नहीं की जाएगी जो प्रतिवादियों/वादी द्वारा मांगी जा सकती थी।

इसमें क्या कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

  • विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 34: प्रास्थिति या अधिकार की घोषणा के संबंध में न्यायालय का विवेकाधिकार।
    • कोई व्यक्ति, जो किसी विधिक हैसियत का या किसी संपत्ति के बारे में किसी अधिकार का हकदार हो, ऐसे किसी व्यक्ति के विरुद्ध, जो ऐसी हैसियत का या ऐसे अधिकार के हक का प्रत्याख्यान करता हो या प्रत्याख्यान करने में हितबद्ध हो, वाद संस्थित कर सकेगा और न्यायालय स्वविवेक में उस वाद में यह घोषणा कर सकेगा की वह ऐसा हकदार है और वादी के लिये आवश्यक नहीं है कि वह उस वाद में किसी अतिरिक्त अनुतोष की मांग करे:
    • परन्तु कोई भी न्यायालय वहाँ ऐसी घोषणा नहीं करेगा जहाँ कि वादी हक की घोषणा मात्र के अतिरिक्त कोई अनुतोष मांगने के योग्य होते हुए भी वैसा करने में लोप करे
    • स्पष्टीकरण- संपत्ति का न्यासी ऐसे हक का प्रत्याख्यान करने में “हितबद्ध व्यक्ति” है जो ऐसे व्यक्ति के हक के प्रतिकूल हो जो अस्तित्व में नहीं है, और जिसके लिये वह न्यासी होता यदि वह व्यक्ति अस्तित्व में आता।
  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 का नियम 11 (d):
    • यह एक वादपत्र को अस्वीकार करने का प्रावधान करता है जब 'वादपत्र में दिये गए बयान से ऐसा प्रतीत होता है कि वाद किसी कानून द्वारा वर्जित है।'