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आपराधिक कानून

POCSO अधिनियम के अधीन धारा 29 एवं 30

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 16-Apr-2024

वीरपाल @ टीटू बनाम राज्य

"न्यायालय ने माना कि गलत दोषसिद्धि, गलत तरीके से बरी किये जाने से कहीं अधिक दूषित है तथा अभियोजन पक्ष, उचित संदेह से परे आरोपी के विरुद्ध आरोप लगाने में विफल रहा”।

 न्यायमूर्ति अनूप कुमार मेंदीरत्ता

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति अनूप कुमार मेंदीरत्ता की पीठ ने यौन अपराधों से बच्चों की सुरक्षा, 2012 (POCSO) के अधीन एक मामले में आरोपी को बरी कर दिया तथा कहा कि “विद्वान विचारण न्यायालय द्वारा POCSO अधिनियम की धारा 29 एवं 30 के अधीन, सिद्ध नहीं होने वाले मूलभूत तथ्य की अनुपस्थिति में, उचित संदेह से परे, केवल अनुमान पर निर्भर होकर दोषसिद्धि को आधार बनाना दूषित प्रतीत होता है”।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी वीरपाल उर्फ टीटू बनाम राज्य मामले में दी।

वीरपाल @ टीटू बनाम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 374 (2) के अधीन अपीलकर्त्ता/दोषी द्वारा दायर अपील से संबंधित है, जिसमें अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, विशेष न्यायालय POCSO, साकेत न्यायालय, नई दिल्ली द्वारा उसकी दोषसिद्धि एवं सज़ा को चुनौती दी गई थी।
  • अपीलकर्त्ता को POCSO अधिनियम, 2012 की धारा 10 एवं भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 506 के अधीन अपराध के लिये दोषी ठहराया गया था।
  • लगभग 12 साल की पीड़ित लड़की ने आरोप लगाया कि 10 सितंबर 2016 को, जब अपीलकर्त्ता उनके घर गया, तो उसने उसे चूमा, उसकी छाती दबाई एवं शिकायत करने पर जान से मारने की धमकी दी।
  • अभियोजन पक्ष ने पीड़िता, उसकी दादी एवं जाँच में शामिल पुलिस अधिकारियों सहित 11 साक्षियों से पूछताछ की।
  • बचाव पक्ष ने दावा किया कि अपीलकर्त्ता की बहन एवं उसके पति के बीच वैवाहिक विवादों से उत्पन्न दुश्मनी के कारण अपीलकर्त्ता को दुराशय से फँसाया गया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

उच्च न्यायालय ने अपील की अनुमति दी तथा अपीलकर्त्ता की दोषसिद्धि एवं सज़ा को रद्द कर दिया और उसे आरोपों से बरी कर दिया। न्यायालय द्वारा दिये गए कारण इस प्रकार हैं:

  • घटना के बारे में अपनी दादी को सूचित करने की तारीख और अपीलकर्त्ता द्वारा किये गए विशिष्ट कृत्यों के संबंध में पीड़िता की गवाही अविश्वसनीय तथा विरोधाभासों से भरी थी।
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने में पाँच दिनों का विलंब, कथित घटना के दिन परिसर का दौरा करने वाले पुलिस अधिकारियों को घटना का खुलासा करने में विफलता ने अभियोजन पक्ष के मामले पर संदेह पैदा कर दिया।
  • न्यायालय ने अभियोजन पक्ष के मामले में कमियाँ एवं अपर्याप्तताएँ पाईं और साक्षियों की प्रतिपरीक्षा में सामने आए विरोधाभासों तथा विसंगतियों से POCSO अधिनियम की धारा 29 व 30 के अधीन अपराध की धारणा को खारिज कर दिया गया।
  • अभियोजन पक्ष, मूलभूत तथ्यों को उचित संदेह से परे सिद्ध करने में विफल रहा तथा विचारण न्यायालय द्वारा अनुमान पर लगाई गई निर्भरता दूषित थी।
  • न्यायालय ने माना कि गलत दोषसिद्धि, गलत तरीके से बरी किये जाने से कहीं अधिक खराब है तथा अभियोजन पक्ष, उचित संदेह से परे आरोपी के विरुद्ध आरोप सिद्ध करने में विफल रहा।

POCSO अधिनियम की धारा 29 एवं 30 क्या हैं?

  • POCSO अधिनियम की धारा 29:
    • जहाँ किसी व्यक्ति पर इस अधिनियम की धारा 3, 5, 7 एवं धारा 9 के अधीन, कोई अपराध करने या उकसाने या करने का प्रयास करने के लिये अभियोजन किया जाता है, तो विशेष न्यायालय यह मान लेगा कि ऐसे व्यक्ति ने अपराध किया है, या उकसाया है, या अपराध करने का प्रयास किया है, जैसा कि अभियोजन तब तक हो सकता है, जब तक कि आरोपी की दोषमुक्ति सिद्ध न हो जाए।
  • POCSO अधिनियम की धारा 30:
    • इस अधिनियम के अधीन किसी भी अपराध के लिये किसी भी अभियोजन में, जिसमें अभियुक्त की ओर से आपराधिक मनःस्थिति की आवश्यकता होती है, विशेष न्यायालय, ऐसी मानसिक स्थिति के अस्तित्त्व को मान लेगा, लेकिन यह अभियुक्त के लिये इस तथ्य को सिद्ध करने के लिये एक बचाव होगा कि उस अभियोजन में अपराध के रूप में आरोपित कृत्य के संबंध में उसके पास कोई आपराधिक मनःस्थिति नहीं थी।
    • इस धारा के प्रयोजनों के लिये, किसी तथ्य को तभी सिद्ध माना जाता है जब विशेष न्यायालय यह मानता है कि यह उचित संदेह से परे है, न कि इसका अस्तित्त्व केवल संभाव्यता की प्रबलता से स्थापित होता है।
    • स्पष्टीकरण- इस धारा में, "आपराधिक मनःस्थिति" में आशय, दुर्भाव, किसी तथ्य का ज्ञान और किसी तथ्य में विश्वास या विश्वास करने का कारण सम्मिलित है।