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आपराधिक कानून

एक समान साक्ष्य पर कई आरोपियों के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाएगा

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 15-Sep-2023

जावेद शौकत अली कुरेशी बनाम गुजरात राज्य

एक आरोपी को बरी किये जाने का लाभ दूसरे आरोपियों को भी देना होगा, भले ही उन्होंने न्यायालय का दरवाज़ा न खटखटाया हो।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

जावेद शौकत अली कुरेशी बनाम गुजरात राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय (SC) ने माना है कि जब सभी आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ सबूत एक जैसे ही हैं तो एक आरोपी को बरी करने का लाभ दूसरे आरोपी को भी दिया जाना चाहिये। भले ही उन्होंने न्यायालय का दरवाजा न खटखटाया हो।

पृष्ठभूमि:

  • 7 नवंबर, 2003 को शाह आलम क्षेत्र, अहमदाबाद, गुजरात में हुई भीड़-हिंसा के एक मामले में कुल 13 लोगों पर मुकदमा चलाया गया था।
  • अभियुक्त सं. 1 से 6 और 13 को दोषी ठहराया गया और 10 साल की कैद की सजा सुनाई गई जबकि बाकी को ट्रायल कोर्ट ने बरी कर दिया।
  • वर्तमान अपीलकर्ता (अभियुक्त) आरोपी संख्या 6 है, उसे भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 396, 395, 307, 435, 201 के साथ पठित धारा 149 के तहत दंडनीय अपराधों के लिये दोषी ठहराया गया था।
  • भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 396 के साथ पठित धारा 149 के तहत दंडनीय अपराध के लिये अधिकतम सजा आजीवन कारावास थी।
  • गुजरात उच्च न्यायालय (HC) की खंडपीठ ने अपील पर विचार करते हुए सजा को घटाकर 10 साल कर दिया।
  • इसके बाद 2016 में अभियुक्त सं. 1, 5 और 13 ने उच्चतम न्यायालय (SC) में एक आपराधिक अपील दायर की और परिणामस्वरूप उक्त तीन आरोपियों को बरी कर दिया गया।
    • न्यायालय ने मूसा खान और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (1976) के मामले में सुनाए गए फैसले के आधार पर बरी किया था। कोई भी न्यायालय यह मानने का हकदार नहीं है कि कोई भी व्यक्ति जो किसी भी समय दंगाई भीड़ के पास मौजूद था या उसकी गतिविधियों के दौरान किसी भी चरण में इसमें शामिल हुआ या छोड़ दिया था, शुरू से अंत तक उसके द्वारा किये गये हर कृत्य के लिये दोषी है।
  • अभियुक्त संख्या 2 द्वारा एक विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की गई थी, जिसे खारिज कर दिया गया था।
  • वर्तमान अपीलकर्ता अभियुक्त सं. 6 ने वर्तमान अपील को उच्चतम न्यायालय में भेजा और अभियुक्त संख्या 3 और 4 ने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ कोई उपचार नहीं मांगा।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ट्रायल के दौरान अभियुक्त संख्या 3 और 4 को अभियुक्त संख्या 1, 5 और 13 के समान पेश किया गया था जिन्हें शुरू में दोषी ठहराया गया था और बाद में इसे उच्चतम न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया था।
  • साथ ही न्यायालय ने कहा कि अभियुक्त संख्या 2 को भी समता का लाभ मिलना चाहिये। अभियुक्त संख्या 2 ने अपनी दोषसिद्धि को उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी थी लेकिन बिना कारण दर्ज़ किये उसकी एसएलपी खारिज कर दी गई थी।
  • न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और संजय करोल की पीठ ने कहा कि "जब दो अभियुक्तों के खिलाफ समान सबूत हों, तो न्यायालय एक आरोपी को दोषी नहीं ठहरा सकता और दूसरे को बरी नहीं कर सकता। ऐसे मामले में दोनों अभियुक्तों के मामले समानता के सिद्धांत द्वारा शासित होंगे। इस सिद्धांत का अर्थ है कि आपराधिक न्यायालय को समान मामलों में निर्णय लेना चाहिये, और ऐसे मामलों में, न्यायालय दोनों अभियुक्तों के बीच अंतर नहीं कर सकता है, अगर न्यायालय ऐसा करता है तो वह भेदभाव होगा।

कानूनी प्रावधान:

भारतीय दंड संहिता, 1860

  • वर्तमान मामले में आरोप निम्नलिखित प्रावधानों से संबंधित हैं:
  • धारा 201: भारतीय दंड संहिता की धारा 201 के अनुसार, जो भी कोई यह जानते हुए या यह विश्वास करने का कारण रखते हुए कि कोई अपराध किया गया है, उस अपराध के किये जाने के किसी साक्ष्य का विलोप, इस आशय से कारित करेगा कि अपराधी को वैध दण्ड से प्रतिच्छादित करे या उस अपराध से संबंधित कोई ऐसी जानकारी देगा, जिसके ग़लत होने का उसे ज्ञान या विश्वास है;
  • यदि अपराध मृत्युदण्ड के समकक्ष हो - यदि वह अपराध जिसके किये जाने का उसे ज्ञान है, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डित किया जायेगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा। 
  • यदि अपराध के लिये आजीवन कारावास हो - यदि वह अपराध आजीवन कारावास, या दस वर्ष तक के कारावास, से दण्डनीय हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डित किया जायेगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
  • यदि अपराध के लिये दस वर्ष से कम का कारावास हो - यदि वह अपराध दस वर्ष से कम के कारावास से दण्डनीय हो, तो उसे उस अपराध के लिये उपबंधित कारावास की दीर्घतम अवधि की एक-चौथाई अवधि के लिये जो उस अपराध के लिये उपबंधित कारावास की हो, से दण्डित किया जाएगा या आर्थिक दण्ड से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
    • धारा 307 - हत्या का प्रयास - जो भी कोई ऐसे किसी इरादे या बोध के साथ विभिन्न परिस्थितियों में कोई कार्य करता है, जो किसी की मृत्यु का कारण बन जाए, तो वह हत्या का दोषी होगा, और उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे 10 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
      और, यदि इस तरह के कृत्य से किसी व्यक्ति को चोट पहुँचती है, तो अपराधी को आजीवन कारावास या जिस तरह के दंड का यहाँ उल्लेख किया गया है, से दंडित किया जाएगा।
    • आजीवन कारावास की सज़ा प्राप्त अपराधी द्वारा प्रयास करना: अगर अपराधी जिसे इस धारा के तहत आजीवन कारावास की सजा दी गयी है, चोट पहुँचाता है, तो उसे मृत्युदंड दिया जा सकता है।
    • धारा 395 - डकैती के लिये सजा - भारतीय दंड संहिता की धारा 395 के अनुसार, जो भी कोई डकैती करेगा, तो उसे आजीवन कारावास या किसी एक अवधि के लिये कठोर कारावास, जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, से दण्डित किया जायेगा, और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
    • धारा 396 - हत्या सहित डकैती - यदि ऐसे पाँच या अधिक व्यक्तियों में से, जो संयुक्त होकर डकैती कर रहे हों, कोई एक व्यक्ति इस प्रकार डकैती करते हुए हत्या कर देगा, तो उन व्यक्तियों में से हर व्यक्ति को, मॄत्युदण्ड, या आजीवन कारावास, या किसी एक अवधि के लिये कठिन कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डित किया जायेगा, और साथ ही वे सब आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होंगे।
    • धारा 435 - जो कोई किसी सम्पत्ति को, एक सौ रुपए या उससे अधिक का, या जहाँ कि सम्पत्ति कॄषि उपज हो, वहाँ दस रुपए या उससे अधिक का नुकसान करने के आशय से, या यह सम्भाव्य जानते हुए कि वह एतद्द्वारा ऐसा नुकसान करेगा, अग्नि या किसी विस्फोटक पदार्थ द्वारा कुचेष्टा करेगा, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास की सजा, जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, से दण्डित किया जायेगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
    • धारा 149 - जनसमूह का हर सदस्य विधिविरुद्ध समान लक्ष्य का अभियोजन करने में किये गए अपराध का दोषी- भारतीय दंड संहिता की धारा 149 के अनुसार, यदि विधिविरुद्ध जनसमूह के किसी सदस्य द्वारा उस जनसमूह के समान लक्ष्य का अभियोजन करने में कोई अपराध किया जाता है, या कोई ऐसा अपराध किया जाता है, जिसका किया जाना उस जनसमूह के सदस्य सम्भाव्य जानते थे, तो हर व्यक्ति, जो उस अपराध के किये जाने के समय उस जनसमूह का सदस्य है, उस अपराध का दोषी होगा।

धारा 149 के प्रमुख तत्त्व:

  • विधिविरुद्ध जनसमूह : धारा 149 को लागू करने के लिये, आईपीसी की धारा 141 के तहत परिभाषित विधिविरुद्ध जनसमूह होना चाहिये।
  • सामान्य उद्देश्य : विधिविरुद्ध जनसमूह का सामान्य उद्देश्य निर्दिष्ट किया जाना चाहिये।
    महाराष्ट्र राज्य बनाम काशीराव और अन्य (2003) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "'लक्ष्य' शब्द का अर्थ उद्देश्य है और, इसे 'सामान्य' बनाने के लिये, इसे सभी द्वारा साझा किया जाना चाहिये।
  • दायित्व: धारा 149 विधि-विरूद्ध जनसमूह के प्रत्येक सदस्य को सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिये सभा के किसी भी सदस्य द्वारा किये गये अपराध के लिये उत्तरदायी बनाती है।
    रोहतास बनाम हरियाणा राज्य (2020) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि इस प्रावधान के तहत अपराध विधि-विरूद्ध जनसमूह में सदस्यता के आधार पर एक परोक्ष दायित्व बनाता है।