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आपराधिक कानून

उच्चतम न्यायालय ने प्रक्रिया संबंधी अनियमितता को सुधारा

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 19-Sep-2023

बिजय शंकर मिश्रा बनाम झारखंड राज्य

उच्चतम न्यायालय (SC) ने यह कहकर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के मौलिक प्रक्रियात्मक चरित्र को मज़बूत किया है कि छोटी तकनीकी खामियाँ और अनियमितताएँ कभी भी पर्याप्त न्याय दिलाने में में बाधा नहीं बननी चाहिये।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय (SC) ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की मौलिक प्रक्रियात्मक प्रकृति को मज़बूत किया और बिजॉय शंकर मिश्रा बनाम झारखंड राज्य के मामले में इस बात पर जोर दिया कि छोटी तकनीकी खामियाँ और अनियमितताएँ कभी भी पर्याप्त न्याय दिलाने में बाधा नहीं बननी चाहिये।

पृष्ठभूमि

  • वर्ष 2016 में, अपीलकर्त्ता (बिजॉय शंकर मिश्रा) ने झारखंड के जमशेदपुर में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में अस्वीकृत चेक के संबंध में परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) की धारा 138 के तहत एक आपराधिक शिकायत दर्ज की।
  • न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) के न्यायालय ने संज्ञान लिया और आरोपियों को समन जारी किया।
  • रिकॉर्ड की जाँच करने पर न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) ने निष्कर्ष निकाला कि न्यायालय के पास परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) की धारा 142(2)(a) के संदर्भ में क्षेत्रगत क्षेत्राधिकार (प्रक्रियात्मक चूक) नहीं है।
  • अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय (HC) के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 407 के तहत एक आवेदन दायर करके उपचारात्मक सहारा लिया
  • फिर एक आदेश पारित किया गया था कि जिस चेक को लेकर विवाद है, वह अपीलकर्त्ता के खाते में आदित्यपुर, जिला सरायकेला-खरसावाँ में डाले गए थे, इसलिये, केवल सरायकेला-खरसावाँ के न्यायालयों के पास क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार था।
  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की, जिसे खारिज कर दिया गया और न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) का आदेश बरकरार रखा गया।
  • अपीलकर्त्ता को उच्च न्यायालय के समक्ष इस क्षेत्राधिकार संबंधी मुद्दे को संबोधित करने का कोई अवसर नहीं दिया गया।
  • इसलिये अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 406 के साथ पठित भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 142 के तहत हमारी शक्ति का प्रयोग करने के लिये एक उपयुक्त मामला है।
    • योगेश उपाध्याय और अन्य बनाम अटलांटा लिमिटेड (2023) के मामले पर भरोसा किया गया था, जिसके तहत यह पुष्टि की गई थी कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) मुख्य रूप से प्रक्रियात्मक उद्देश्यों को पूरा करती है, और इसे न्याय दिलाने के प्रयास में बाधा नहीं डालनी चाहिये; जब भी न्याय का हनन हो तो दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 406 को बचाव के तौर पर इस्तेमाल किया जाना चाहिये
  • इसके अलावा न्यायालय ने कहा कि न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) ने इसके कानूनी परिणामों को समझे बिना आदेश पारित कर दिया, अपीलकर्त्ता को उचित कानूनी मार्गदर्शन की कमी थी ।
  • न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति एस. वी. एन. भट्टी की पीठ ने पहले के आदेशों को रद्द करते हुए निर्देश दिया कि आपराधिक शिकायत मामले में जेएमएफसी, जमशेदपुर, झारखंड के न्यायालय में मुकदमा जारी रखा जाए, जबकि यह कहा गया था कि इस तरह की प्रक्रियात्मक खामी/चूक का कोई समाधान था, और मामले के क्षेत्राधिकार का न होना पर्याप्त नहीं था।

कानूनी प्रावधान

भारत का संविधान, 1950

अनुच्छेद 142 - यह भारत के उच्चतम न्यायालय को न्याय देने और उन मामलों में अपने निर्णयों को लागू करने के लिये विशेष शक्तियाँ प्रदान करता है जहाँ न्याय के हित में ऐसा करने की आवश्यकता हो सकती है, भले ही कोई विशिष्ट कानूनी प्रावधान न हो जो सीधे स्थिति को संबोधित करता हो।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973

CrPC की धारा 406 — मामलों और अपीलों को अंतरित करने की उच्चतम न्यायालय की शक्ति —

(1) जब कभी उच्चतम न्यायालय को यह प्रतीत कराया जाता है कि न्याय के उद्देश्यों के लिये यह समीचीन है कि इस धारा के अधीन आदेश किया जाए, तब वह निदेश दे सकता है कि कोई विशिष्ट मामला या अपील एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को या एक उच्च न्यायालय के अधीनस्थ दण्ड न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ समान या वरिष्ठ अधिकारिता वाले दूसरे दण्ड न्यायालय को अंतरित कर दी जाए।

(2) उच्चतम न्यायालय भारत के महान्यायवादी या हितबद्ध पक्षकार के आवेदन पर ही इस धारा के अधीन कार्य कर सकता है और ऐसा प्रत्येक आवेदन समावेदन द्वारा किया जाएगा जो उस दशा में सिवाय, जबकि आवेदक भारत का महान्यायवादी या राज्य का महाधिवक्ता है, शपथपत्र या प्रतिज्ञान द्वारा समर्थित होगा।

(3) जहाँ इस धारा द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करने के लिये कोई आवेदन खारिज कर दिया जाता है वहाँ, यदि उच्चतम न्यायालय की यह राय है कि आवेदन तंग करने वाला था तो वह आवेदक को आदेश दे सकता है कि वह एक हजार रुपए से अनधिक इतनी राशि, जितनी वह न्यायालय उस मामले की परिस्थितियों में समुचित समझे, प्रतिकर के तौर पर उस व्यक्ति को दे जिसने आवेदन का विरोध किया था।

  • इस प्रावधान का प्रयोग संयमित ढंग से और केवल तभी किया जाना चाहिये जब न्याय स्पष्ट रूप से गंभीर खतरे में हो।
  • ऐसे हस्तांतरणों के प्राथमिक आधारों में आम तौर पर शामिल हैं:
    • निष्पक्ष और पक्षपातरहित सुनवाई: जब न्यायालय का मानना है कि स्थानीय पूर्वाग्रह, गवाहों को धमकी, या किसी अन्य कारण जैसे विभिन्न कारकों के कारण मूल न्यायक्षेत्र में निष्पक्ष और पक्षपातरहित सुनवाई नहीं की जा सकती है जो मुकदमे की निष्पक्षता से समझौता कर सकती है।
    • न्याय का हित: न्याय के हित में, यदि उच्चतम न्यायालय न्याय सुनिश्चित करने के लिये किसी मामले को स्थानांतरित करना आवश्यक समझता है।
    • कार्यवाही की बहुलता से बचाव : जब एक ही मुद्दे या पक्षों से जुड़े कई मामले अलग-अलग न्यायालयों में लंबित हों, तो विरोधाभासी निर्णयों से बचने और कानूनी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिये उच्चतम न्यायालय उन्हें किसी न्यायालय में स्थानांतरित कर सकता है।
    • सुविधा: यदि मामले को किसी अन्य क्षेत्राधिकार में स्थानांतरित करने से गवाहों और वादियों सहित पक्षों की सुविधा बेहतर होगी, तो स्थानांतरण का निर्णय अवश्य लिया जाना चाहिये।

परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881

  • चेक के अनादरण के बारे में धारा 138 के तहत प्रावधान किया गया है और धारा 142 में अपराध के संज्ञान के बारे में उल्लेख किया गया है ।
  • इसे संक्षेप में निम्नलिखित तरीके से समझा जा सकता है:
    • केवल जेएमएफसी या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट से उच्चतर न्यायालय ही धारा 138 के तहत चेक के अनादरण से संबंधित अपराध का संज्ञान ले सकता है और उचित समय के अंदर अस्वीकृत चेक के प्राप्तकर्त्ता या धारक द्वारा की गई लिखित शिकायत के आधार पर ही ऐसा संज्ञान लिया जा सकता है।
    • धारा 138(C) के तहत शिकायत का कारण उत्पन्न होने की तारीख से एक महीने के भीतर शिकायत दर्ज की जानी चाहिये। हालाँकि, यदि शिकायतकर्त्ता देरी के लिये पर्याप्त कारण स्थापित कर सकता है, तो न्यायालय शिकायत पर विचार कर सकता है, भले ही वह शिकायत निर्धारित अवधि के बाद दायर की गई हो।
    • धारा 142(2) में प्रावधान है कि:
      • अपराध की जाँच और विचारण केवल उसी न्यायालय द्वारा किया जाएगा जिसके स्थानीय क्षेत्राधिकार के भीतर, -
        धारा 138 के अधीन दंडनीय अपराध की जाँच और उसका विचारण, केवल ऐसे न्यायालय द्वारा किया जाएगा, जिसकी स्थानीय अधिकारिता के भीतर (क) यदि चेक किसी खाते के माध्यम से संग्रहण के लिये परिदत्त किया जाता है तो, बैंक की शाखा जहाँ पर, यथास्थिति, सम्यक् अनुक्रम में चेक पाने वाले या धारक का खाता हो या
        (ख) यदि चेक, सम्यक् अनुक्रम में, पाने वाले या धारक द्वारा, संदाय के लिये खाते के माध्यम से अन्यथा प्रस्तुत किया जाता है, बैंक की शाखा, जहाँ पर चेक पाने वाले या धारक, का खाता हो।

निर्णय विधि

  • लक्ष्मी डाइकेम बनाम गुजरात राज्य (2012): वर्तमान मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 से 142 उन व्यक्तियों को दंडित करने के लिये बनाई गई है जो इस तथ्य से अवगत हैं कि उनके बैंक खाते में पर्याप्त धनराशि नहीं है लेकिन फिर भी चेक जारी करते हैं। मौजूदा ऋण या दायित्व का निपटान करने के लिये ऐसा चेक, जो धोखाधड़ी का कारण बनता है। इन प्रावधानों का उद्देश्य उन व्यक्तियों को दंडित करना नहीं है जिनके पास अपने ऋण दायित्वों को पूरा न करने का वैध कारण है।