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आपराधिक कानून

आजीवन कारावास के दण्ड का निलंबन

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 08-Jul-2024

भूपतजी सरताजी जबराजी ठाकोर बनाम गुजरात राज्य

प्रथम दृष्टया असंतुलित दोषसिद्धि के आधार पर आजीवन कारावास के दण्ड का निलंबन”।

न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां

स्रोत:  उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने आजीवन कारावास के दण्ड को निलंबित करने के लिये कड़े मानदंड निर्धारित किये हैं तथा निर्णय दिया है कि ऐसी राहत प्रथम दृष्टया दोषसिद्धि के अस्थिर होने के साक्ष्य तथा सफल अपील की उच्च संभावना पर निर्भर है।

  • उच्चतम न्यायालय ने भूपतजी सरताजी जबराजी ठाकोर बनाम गुजरात राज्य के मामले में यह टिप्पणी की।
  • इस न्यायिक घोषणा से आजीवन कारावास के दण्ड के निलंबन की संभावना अत्यंत कम हो गई है तथा इससे भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र में दोषसिद्धि के उपरांत राहत के परिदृश्य में संभावित रूप से परिवर्तन आ सकता है।

भूपतजी सरताजी जबराजी ठाकोर बनाम गुजरात राज्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता (भूपतजी सरताजी जबराजी ठाकोर) और एक सह-अभियुक्त पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के अधीन हत्या के लिये सत्र न्यायालय में वाद चलाया गया।
  • वाद के दौरान याचिकाकर्त्ता ज़मानत पर बाहर था।
  • निचले न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास का दण्ड दिया, जबकि सह-आरोपी को दोषमुक्त कर दिया।
  • यह दण्ड एक प्रत्यक्षदर्शी की साक्षी पर आधारित था।
  • याचिकाकर्त्ता ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दिये गए दण्ड को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में आपराधिक अपील दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली।
  • याचिकाकर्त्ता ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 389 के अधीन एक विविध आपराधिक आवेदन भी दायर किया, जिसमें आजीवन कारावास के दण्ड को निलंबित करने की मांग की गई।
  • उच्च न्यायालय ने आजीवन कारावास के दण्ड को निलंबित करने के आवेदन को अस्वीकार कर दिया।
  • याचिकाकर्त्ता ने अब वर्तमान याचिका के साथ सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया है।
  • याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता ने कुछ परिस्थितियों का उदाहरण दिया है।
  • याचिकाकर्त्ता को अपनी विधवा बहू और उसके तीन नाबालिग बच्चों का भरण-पोषण करना है।
  • परिवार कठिन आर्थिक स्थिति में है।
  • वर्ष 2023 की अपील पर सुनवाई होने में काफी समय लगने की संभावना है।
  • उच्चतम न्यायालय ने इन परिस्थितियों के आधार पर ज़मानत की याचिका पर उत्तर देने के लिये गुजरात राज्य को नोटिस जारी किया है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने निश्चित अवधि के दण्ड एवं आजीवन कारावास के निलंबन के लिये अलग-अलग मानदंड निर्धारित किये हैं तथा आजीवन कारावास के लिये अधिक कठोर परीक्षण अनिवार्य कर दिया है।
  • न्यायालय ने कहा कि आजीवन कारावास के लिये निलंबन केवल तभी उचित है जब प्रथम दृष्टया साक्ष्य मौजूद हो कि दोषसिद्धि विधिक रूप से स्थिर नहीं है तथा इसके लिये साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन आवश्यक नहीं है।
  • पीठ ने स्पष्ट किया कि अपीलीय न्यायालय निश्चित अवधि के दण्ड को निलंबित करने में उदारतापूर्वक विवेकाधिकार का प्रयोग कर सकती है, परंतु आजीवन कारावास के निलंबन के लिये अपील पर दोषसिद्धि के संभावित उलटफेर का स्पष्ट संकेत आवश्यक है।
  • इस विधिक परीक्षण को वर्तमान मामले में लागू करते हुए, न्यायालय ने निलंबन से उच्च न्यायालय के प्रतिषेध को यथावत् रखा तथा यह निष्कर्ष निकालने के लिये कोई ठोस आधार नहीं पाया कि दोषसिद्धि अस्थिर थी या अपीलकर्त्ता के पास सफल अपील की पर्याप्त संभावना थी।
  • यह निर्णय आजीवन कारावास के दण्ड के निलंबन के लिये एक उच्च सीमा निर्धारित करता है तथा साक्ष्य की पुनः जाँच के बजाय दोषसिद्धि में स्पष्ट विधिक खामियों की आवश्यकता पर बल देता है।

आजीवन कारावास क्या है?

  • भारतीय न्याय संहिता 2023 (BNS) की धारा 4(B) आजीवन कारावास को परिभाषित करती है।
  • BNS की धारा 6 में कहा गया है कि दण्ड की अवधि के अंशों की गणना करते समय, आजीवन कारावास को बीस वर्ष के कारावास के बराबर माना जाएगा, जब तक कि अन्यथा प्रावधान न किया गया हो।
  • इससे पहले भारतीय दण्ड संहिता की धारा 55 में कहा गया था कि प्रत्येक मामले में जिसमें आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया हो, समुचित सरकार अपराधी की सहमति के बिना, उस दण्ड को चौदह वर्ष से अधिक अवधि के कारावास में परिवर्तित कर सकती है।
    • राज्य सरकार कुछ शर्तों और सीमाओं के अधीन, CrPC की धारा 432 तथा 433 के अधीन दण्ड में छूट दे सकती है या उसे कम कर सकती है।

इसमें प्रासंगिक विधिक  प्रावधान क्या हैं?

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 430:
    • BNSS की धारा 430 अपील लंबित रहने तक दण्ड के निलंबन; अपीलकर्त्ता को ज़मानत पर रिहा करने से संबंधित है।
    • इससे पहले यह मामला CrPC की धारा 389 के तहत निपटाया जाता था।
    • धारा की उपधारा (1) में कहा गया है कि किसी दोषी व्यक्ति द्वारा अपील लंबित रहने पर, अपीलीय न्यायालय, उसके द्वारा लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों से, आदेश दे सकता है कि जिस दण्ड या आदेश के विरुद्ध अपील की गई है, उसका निष्पादन निलंबित कर दिया जाए और, यदि वह कारावास में है, तो उसे ज़मानत पर या अपने स्वयं के बॉण्ड  या ज़मानत बॉण्ड पर रिहा किया जाए:
      • परंतुक (1) में यह प्रावधान है कि अपीलीय न्यायालय, किसी ऐसे दोषसिद्ध व्यक्ति को, जो मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास या कम-से-कम दस वर्ष की अवधि के कारावास से दण्डनीय किसी अपराध के लिये दोषसिद्ध है, अपने स्वयं के बॉण्ड या ज़मानत बॉण्ड पर रिहा करने से पहले, लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के विरुद्ध लिखित में कारण बताने का अवसर देगा;
      • परंतुक (2) में यह भी प्रावधान किया गया है कि ऐसे मामलों में जहाँ किसी दोषी व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा किया जाता है, वहाँ लोक अभियोजक ज़मानत रद्द करने के लिये आवेदन दायर कर सकता है।
    • उपधारा (2) में कहा गया है कि इस धारा द्वारा अपीलीय न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उच्च न्यायालय द्वारा भी किसी दोषसिद्ध व्यक्ति द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालय में की गई अपील के मामले में किया जा सकता है।
    • उपधारा (3) में कहा गया है कि जहाँ दोषी व्यक्ति उस न्यायालय को संतुष्ट कर देता है जिसके द्वारा उसे दोषी ठहराया गया है कि वह अपील प्रस्तुत करने का आशय रखता है, तो न्यायालय—
      • जहाँ ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रहते हुए तीन वर्ष से अधिक अवधि के कारावास का दण्ड दिया गया हो; या
      • जहाँ वह अपराध, जिसके लिये ऐसे व्यक्ति को दोषसिद्ध किया गया है, ज़मानती है और वह ज़मानत पर है, वहाँ आदेश दे सकेगी कि दोषसिद्ध व्यक्ति को, जब तक कि ज़मानत देने से प्रतिषेध करने के लिये विशेष कारण न हों, ज़मानत पर ऐसी अवधि के लिये रिहा किया जाए जो अपील प्रस्तुत करने और उपधारा (1) के अधीन अपील न्यायालय के आदेश प्राप्त करने के लिये पर्याप्त समय दे सके; और कारावास का दण्डादेश, जब तक वह इस प्रकार ज़मानत पर रिहा रहता है, निलंबित समझा जाएगा।
    • उपधारा (4) में कहा गया है कि जब अपीलकर्त्ता को अंततः एक अवधि के लिये कारावास या आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाता है, तो जिस अवधि के दौरान उसे रिहा किया जाता है, उसे उस अवधि की गणना करने में शामिल नहीं किया जाएगा जिसके लिये उसे दण्ड दिया गया है।

दोषसिद्धि के निलंबन से संबंधित निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • ओमप्रकाश साहनी बनाम जय शंकर चौधरी एवं अन्य (2023):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि CrPC की धारा 389 के अधीन दण्ड के मूल आदेश को निलंबित करने के लिये, रिकॉर्ड के सामने कुछ स्पष्ट बात होनी चाहिये, जिसके आधार पर न्यायालय प्रथम दृष्टया इस निष्कर्ष पर पहुँच सके कि दोषसिद्धि स्थिर रखने योग्य नहीं हो सकती है।
  • राजस्थान राज्य बनाम सलमान सलीम खान, (2015):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दोषसिद्धि के निलंबन की शक्ति का प्रयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में किया जाएगा, जहाँ दोषसिद्धि पर रोक लगाने में विफलता से अन्याय एवं अपरिवर्तनीय परिणाम होंगे तथा इस प्रकार कोई विदेशी देश इस आधार पर उक्त देश में जाने की अनुमति नहीं दे रहा है कि अभियुक्त को किसी अपराध के लिये दोषसिद्धि दी गई है और भारतीय विधि के अंतर्गत दण्ड दिया गया है, उक्त आदेश दोषसिद्धि के आदेश पर रोक लगाने का आधार नहीं हो सकता।
  • तमिलनाडु राज्य बनाम ए. जगन्नाथन, (1996):
    • उच्चतम न्यायालय ने अपील या पुनरीक्षण के लंबित रहने के दौरान दोषसिद्धि एवं दण्ड के निलंबन के लिये विवेकाधिकार का प्रयोग करने में पालन किये जाने वाले दिशा-निर्देश निर्धारित किये हैं। कुछ सरकारी कर्मचारियों को गंभीर आपराधिक अपराधों (धारा 392, 218 एवं 466 IPC) के लिये दोषसिद्धि दी गई थी। दोषियों की नैतिक कमियों पर विचार किये बिना दोषसिद्धि एवं दण्ड को निलंबित करना विवेकाधिकार का उचित प्रयोग नहीं माना गया।