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दंड विधि
आपराधिक कार्यवाही में बरी होना
« »06-Oct-2023
भारतीय स्टेट बैंक और अन्य बनाम पी जंडेंगा आपराधिक कार्यवाही में बरी होने पर व्यक्ति, संबंधित अनुशासनात्मक कार्यवाही में स्वत: ही आरोपमुक्त नहीं होता है। |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों:
- उच्चतम न्यायालय (SC) ने हाल ही में अवधारित किया है कि संबंधित आपराधिक कार्यवाही में बरी होने पर यह आवश्यक नहीं है कि भारतीय स्टेट बैंक और अन्य बनाम पी जंडेंगा के मामले में कर्मचारी के विरुद्ध चल रही अनुशासनात्मक कार्यवाही का अनुकूल परिणाम होगा।
भारतीय स्टेट बैंक और अन्य बनाम पी जंडेंगा मामले की पृष्ठभूमि:
- प्रतिवादी (पी. जंडेंगा) भारतीय स्टेट बैंक में मणिपुर के आइजोल में सहायक के रूप में कार्यरत था।
- तीन सरकारी खुदरा विक्रेताओं द्वारा आइजोल पुलिस स्टेशन में एक शिकायत दर्ज़ की गई थी कि उक्त शाखा में उनकी चालान जमा राशि को नकद रसीद स्क्रॉल में दर्ज़ नहीं किया गया था।
- आइजोल पश्चिम के ज़िला नागरिक आपूर्ति अधिकारी ने भी शिकायत दर्ज़ कराई कि एक खुदरा विक्रेता ने फर्जी चालान का उपयोग करके विशेष खाद्य सामग्री की डिलीवरी ली थी।
- उपर्युक्त के अनुसरण में, प्रतिवादी के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई थी:
- वर्ष 1999 में उन्हें एक ज्ञापन जारी किया गया था, जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि उन्हें 61,908 रुपये (1996 में) प्राप्त हुए थे, जिसके संबंध में चालान जारी किया गया था, लेकिन राशि कभी भी संबंधित खाते में जमा नहीं की गई थी।
- इसी तरह की दो अन्य घटनाएँ (1995 में) 24,640 रुपये और 27,412 रुपये की राशि के संबंध में भी कथित थीं।
- उसके विरुद्ध तीन अलग-अलग प्राथमिकी दर्ज़ की गईं थीं, जिसके तहत उसे गिरफ्तार किया गया था, लेकिन बाद में जमानत पर रिहा कर दिया गया था।
- दोषी कर्मचारी ने तर्क दिया कि अनुशासनात्मक कार्यवाही हटा देनी चाहिये या बंद कर दी जानी चाहिये क्योंकि उसके विरुद्ध आपराधिक मामले लंबित हैं।
- उच्च न्यायालय (HC) को यह उत्तर देने का कार्य सौंपा गया था कि क्या विभागीय कार्यवाही जारी रखने पर रोक लगाई जाए जबकि कार्यवाही के अधीन व्यक्ति पर उसी मूल अपराध के लिये, दंड न्यायालय के समक्ष मुकदमा चलाया जा रहा है।
- उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि अनुशासनात्मक कार्यवाही को रद्द किया जाना चाहिये।
- इस प्रकार वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति संजय करोल ने कहा कि केवल आपराधिक कार्यवाही के लंबित रहने से अनुशासनात्मक कार्यवाही पर स्वत: रोक नहीं लग जाएगी, विशेषकर यदि वह इस मामले में एक वर्ष की अवधि में सेवा के संदर्भ में निर्धारित अवधि के बाद शुरू की गई हों।
- उच्चतम न्यायालय द्वारा इस तथ्य पर भी बल दिया गया था कि आपराधिक कार्यवाही से बरी होने से अनुशासनात्मक कार्यवाही में स्वत: ही छूट नहीं मिलती है।
इसमें शामिल विधिक उपबंध:
- "ऑट्रेफॉइस एक्विट" और "ऑट्रेफॉइस कन्विक्ट" कानूनी अवधारणाएँ हैं जो यह दोहरे खतरे से संबंधित है, दंड विधि में यह एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है।
- ऑट्रेफॉइस एक्विट: यह एक कानूनी सिद्धांत है जो किसी व्यक्ति के विरुद्ध उसी अपराध के लिये फिर से मुकदमा चलाने से रोकता है जब उन्हें पिछले मुकदमे में उस अपराध से बरी कर दिया गया है (दोषी नहीं पाया गया है)।
- ऑट्रेफॉइस कन्विक्ट: यह सिद्धांत ऑट्रेफोइस एक्विट के समान है, लेकिन एक ऐसी स्थिति पर लागू होता है जहाँ किसी व्यक्ति को पहले से ही किसी विशेष अपराध का दोषी ठहराया गया है। एक बार जब किसी व्यक्ति को दोषी ठहराया जाता है और वह किसी विशिष्ट अपराध के लिये अपनी सजा काट लेता है, तो उसके विरुद्ध उसी अपराध के लिये उसी तथ्य के आधार पर फिर से मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।
- उपर्युक्त बातें, भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 20 (2) और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 300 के तहत निहित हैं।
- अनुच्छेद 20 - अपराधों के लिये दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण - (2) किसी भी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिये एक से अधिक बार मुकदमा नहीं चलाया जाएगा और दंडित नहीं किया जाएगा।
- धारा 300 - एक बार दोषी ठहराए जाने या बरी किये जाने के बाद व्यक्ति पर उसी अपराध के लियेमुकदमा नहीं चलाया जाएगा। —
- अनुशासनात्मक कार्यवाही:
- अनुशासनात्मक कार्यवाही एक अलग कानूनी प्रक्रिया है जो सामान्यत: किसी संगठनात्मक या संस्थागत संदर्भ में होती है।
- वे उन व्यक्तियों द्वारा कथित कदाचार या नियमों, विनियमों या आचार संहिता के उल्लंघन को संबोधित करते हैं जो संगठन या संस्था के अधिकार क्षेत्र के अधीन हैं।
- उदाहरण के लिये- इसमें कर्मचारी कदाचार, शैक्षिक संस्थानों में छात्र के आचरण संबंधी सुनवाई और लाइसेंस प्राप्त पेशेवरों से जुड़े पेशेवर कदाचार के मामलों जैसे रोज़गार से संबंधित मामले शामिल हैं।