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आपराधिक कानून

किशोरों को रोमांटिक संबंध बनाने की अनुमति

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 20-Feb-2025

राज्य बनाम हितेश 

"मेरा मानना ​​है कि किशोर प्रेम पर सामाजिक एवं विधिक दृष्टिकोण में युवा व्यक्तियों के शोषण एवं दुर्व्यवहार से मुक्त रोमांटिक संबंधों में संलग्न होने के अधिकारों पर जोर दिया जाना चाहिये।"

न्यायमूर्ति जसमीत सिंह

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की पीठ ने कहा कि किशोरों को अपराधीकरण के भय के बिना रोमांटिक एवं सहमति से संबंध बनाने की अनुमति दी जानी चाहिये।

राज्य बनाम हितेश मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 10 दिसंबर 2014 को सुबह 12:25 बजे एक पिता ने अपनी 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली बेटी के लापता होने की शिकायत दर्ज कराई। 
  • बेटी (अभियोक्ता) ट्यूशन के लिये गई थी, लेकिन घर वापस नहीं लौटी। 
  • पिता ने हितेश नामक एक व्यक्ति पर संदेह व्यक्त किया, जो उसके घर से लापता था। दो दिन बाद अभियोक्ता एवं हितेश दोनों को धारूहेड़ा में पाया गया और वापस दिल्ली लाया गया। 
  • अभियोक्ता की मेडिकल जाँच की गई तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 164 के अंतर्गत उसका अभिकथन दर्ज किया गया।
  • हितेश (प्रतिवादी) को गिरफ्तार किया गया तथा 6 अगस्त 2015 को उसके विरुद्ध लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 की धारा 4 के अधीन आरोप तय किये गए। 
  • अभियोजन पक्ष ने मुकदमे के दौरान 12 साक्षी प्रस्तुत किये। 
  • प्रतिवादी ने CrPC की धारा 313 के अंतर्गत अपने अभिकथन में स्वयं को निर्दोष बताया तथा अभियोक्ता एवं उसके माता-पिता पर मिथ्या आरोप लगाया। 
  • अभियोक्ता की उम्र को लेकर विवाद था:
    • स्कूल के रिकॉर्ड में उसकी जन्मतिथि 20 जनवरी 1998 दर्ज है। 
    • अभियोक्ता और उसकी माँ ने गवाही दी कि उसकी जन्मतिथि 22 दिसंबर 1998 है। 
    • स्कूल में प्रवेश उसके चाचा के शपथपत्र के आधार पर दिया गया था, जिसमें जन्मतिथि 20 जनवरी 1998 बताई गई थी।
  • अपनी गवाही के दौरान अभियोक्ता ने कहा कि वह हितेश के साथ स्वेच्छा से गई थी तथा कोई भी शारीरिक संबंध सहमति से था।
  • मेडिकल जाँच रिपोर्ट (MLC) में किसी भी यौन क्रिया के प्रति प्रतिरोध का संकेत देने वाली कोई चोट नहीं दिखाई गई।
  • ट्रायल कोर्ट ने आरोपी के पक्ष में संदेह के लाभ के सिद्धांत को लागू किया तथा आरोपी को POCSO अधिनियम की धारा 4 के अधीन दोषमुक्त कर दिया।
  • इसी के विरुद्ध दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील की गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने आयु निर्धारण के लिये किशोर न्याय अधिनियम 2015 (JJ अधिनियम) की धारा 94 को लागू किया, जिसके लिये प्राथमिकता के क्रम में विशिष्ट दस्तावेजी साक्ष्य की आवश्यकता होती है:
    • स्कूल/मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट। 
    • नगर निगम अधिकारियों से जन्म प्रमाण पत्र। 
    • मेडिकल आयु निर्धारण परीक्षण।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने आयु निर्धारण के सिद्धांतों को इस प्रकार लागू किया:
    • अभियोजन पक्ष को पीड़ित की अल्पवयस्कता को निर्णायक रूप से सिद्ध करना होगा।
    • जब कथित आयु 18 वर्ष के करीब हो तो कठोर प्रमाण की आवश्यकता होती है।
    • जब आयु प्रमाण अनिर्णायक हो तो संदेह का लाभ लागू होता है।
    • 14-15 वर्ष से कम आयु वाले पीड़ितों के लिये अलग-अलग मानक लागू हो सकते हैं।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने सहमति निर्धारित करने के लिये विभिन्न साक्ष्यों पर भी विचार किया:
    • अभियोक्ता ने CrPC की धारा 164 अभिकथन में लगातार सहमति बनाए रखी।
    • कोर्ट में दी गई गवाही ने सहमति से संबंधों की पुष्टि की।
    • मेडिकल जाँच में कोई प्रतिरोध चोट नहीं दिखाई दी।
    • अभियोक्ता ने आरोपी को पीछे बैठाकर मोटरसाइकिल चलाई।
    • उसने आरोपी के विरुद्ध शिकायत या कार्यवाही की कोई इच्छा नहीं जताई।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्थापित किया:
    • वयस्कता की आयु का प्रासंगिक निर्वचन की आवश्यकता।
    • पीड़ित की परिपक्वता और इच्छाओं पर विचार करने का महत्त्व।
    • POCSO मामलों में निश्चित आयु प्रमाण की आवश्यकता।
    • सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि:
    • अभियोजन पक्ष संदेह से परे अप्राप्तवय होने को सिद्ध करने में विफल रहा।
    • स्पष्ट साक्ष्य के आधार पर यह संबंध सहमति से बना था।
    • ट्रायल कोर्ट का निर्णय तर्कसंगत था।
    • अपील को गुण-दोष के आधार पर खारिज कर दिया गया।
    • यह निर्णय युवा व्यक्तियों के बीच संबंधों से संबंधित मामलों के विचारण में न्यायशास्त्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है, जहाँ एक साथी वयस्कता की आयु के करीब है।

आयु निर्धारण की प्रक्रिया क्या है?

  • JJ अधिनियम की धारा 94 में समिति या बोर्ड के समक्ष उपस्थित होने वाले व्यक्ति की आयु के निर्धारण की प्रक्रिया बताई गई है, जिससे आयु निर्धारण प्रक्रियाओं में एकरूपता एवं निष्पक्षता सुनिश्चित होती है:
    • प्रत्यक्ष आयु आकलन:
    • यदि किसी व्यक्ति की शारीरिक बनावट से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि वह बालक है, तो समिति या बोर्ड इस अवलोकन को अनुमानित आयु के साथ दर्ज कर सकता है। 
      • इसके बाद वे अतिरिक्त आयु पुष्टि की प्रतीक्षा किये बिना अपनी जाँच आगे बढ़ा सकते हैं।
    • आयु निर्धारण प्रक्रिया:
      • यदि इस तथ्य पर उचित संदेह है कि व्यक्ति बालक है या नहीं, तो समिति या बोर्ड को साक्ष्य के माध्यम से उसकी आयु निर्धारित करनी होगी।
    • साक्ष्य को प्राथमिकता के निम्नलिखित सख्त क्रम में एकत्र किया जाना चाहिये:
      • स्कूल जन्म तिथि प्रमाण पत्र या परीक्षा बोर्ड से मैट्रिकुलेशन प्रमाण पत्र।
      • निगम, नगर निगम प्राधिकरण या पंचायत से जन्म प्रमाण पत्र।
      • केवल यदि उपरोक्त दस्तावेज उपलब्ध न हों, तो चिकित्सा आयु निर्धारण परीक्षण जैसे कि ऑसिफिकेशन टेस्ट।
    • चिकित्सा परीक्षण आवश्यकताएँ:
      • किसी भी चिकित्सा आयु निर्धारण परीक्षण को आदेश दिये जाने की तिथि से 15 दिनों के अंदर पूरा किया जाना चाहिये। 
      • चिकित्सा परीक्षण केवल तभी आदेशित किया जा सकता है जब स्कूल रिकॉर्ड और जन्म प्रमाण पत्र दोनों अनुपलब्ध हों।
    • आयु निर्धारण की विधिक स्थिति:
      • एक बार जब समिति या बोर्ड आयु दर्ज कर देता है, तो यह इस अधिनियम के अंतर्गत सभी प्रयोजनों के लिये व्यक्ति की विधिक रूप से मान्यता प्राप्त आयु बन जाती है।
    • आयु निर्धारण के लिये साक्ष्यों का एक स्पष्ट पदानुक्रम उपलब्ध है।
      • दस्तावेजी साक्ष्य चिकित्सा परीक्षणों से अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं।
      • यदि व्यक्ति स्पष्ट रूप से बालक है तो शारीरिक उपस्थिति पर्याप्त हो सकती है।
      • विधि में चिकित्सा आयु निर्धारण के लिये विशिष्ट समय-सीमा निर्धारित की गई है।
      • समिति या बोर्ड द्वारा आयु निर्धारण अधिनियम के अंतर्गत अंतिम एवं बाध्यकारी माना जाता है।

इससे संबंधित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • न्यायालय ने स्वप्रेरणा से (लज्जा देवी) बनाम राज्य (दिल्ली), (2012):
    • इस मामले में न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धांत अभिनिर्धारित किये:
      • न्यायालयों को 16 वर्ष से अधिक उम्र की लड़कियों के आपसी संबंधों के मामलों में उनकी सहमति के विषय में दिये गए अभिकथनों को उचित महत्त्व देना चाहिये। 
      • परिपक्वता का आकलन केवल उम्र के आधार पर नहीं होना चाहिये, बल्कि व्यक्ति की समग्र समझ और विकास पर विचार करना चाहिये। 
      • न्यायालयें सभी मामलों में एक समान फॉर्मूला लागू नहीं कर सकती हैं तथा उन्हें प्रत्येक स्थिति का मूल्यांकन उसकी विशिष्ट परिस्थितियों के आधार पर करना चाहिये। 
      • लड़की के जीवन को प्रभावित करने वाले किसी भी निर्णय को लेते समय उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सर्वोच्च महत्त्व दिया जाना चाहिये।
      • न्यायालयों को निर्णय लेते समय अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय संबंधों जैसी सामाजिक वास्तविकताओं को पहचानना और उन पर विचार करना चाहिये।
      • विशेष गृहों को अभिरक्षा में रखने की जगह नहीं बनना चाहिये, तथा वयस्क अप्राप्तवयों की स्वतंत्रता को अनुचित रूप से प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिये।
      • वयस्क नाबालिगों की आवाज़ और इच्छाओं का सम्मान किया जाना चाहिये तथा विधिक कार्यवाही में उन्हें उचित ध्यान दिया जाना चाहिये।
  • महेश कुमार बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) (2023):
    • इस मामले में न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
      • न्यायालयों को युवा लोगों के बीच शोषणकारी संबंधों एवं सहमति से बने रोमांटिक संबंधों के बीच स्पष्ट अंतर करना चाहिये। 
      • युवा लोगों के बीच वास्तविक रोमांटिक संबंधों से जुड़े मामलों में विधि का निर्वचन सहानुभूतिपूर्वक किया जाना चाहिये। 
      • रिश्ते की प्रकृति का मूल्यांकन करते समय दोनों पक्षों की भावनात्मक परिपक्वता पर विचार किया जाना चाहिये। 
      • साक्ष्यों एवं गवाही के माध्यम से बलपूर्वक या शोषण की अनुपस्थिति को सावधानीपूर्वक सत्यापित किया जाना चाहिये।
  • रजक मोहम्मद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2018):
    • इस मामले में न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धांत अभिनिर्धारित किये:
      • न्यायालयों को आयु निर्धारण में प्रमाण के उच्च मानकों को बनाए रखना चाहिये, विशेषकर उन मामलों में जहाँ कथित आयु विधिक सीमा के करीब है।
      • उन मामलों में संदेह का लाभ अभियुक्त को दिया जाना चाहिये जहाँ आयु प्रमाण निर्णायक नहीं है।
      • POCSO अधिनियम के अंतर्गत कठोर दण्ड को सावधानीपूर्वक लागू करने की आवश्यकता होती है तथा इसे यंत्रवत् नहीं लगाया जाना चाहिये।
  • अलामेलु एवं अन्य बनाम राज्य (2011):
    • इस मामले में न्यायालय द्वारा निम्नलिखित टिप्पणियाँ की गईं:
      • आयु निर्धारण के लिये विधि द्वारा निर्धारित दस्तावेजी साक्ष्यों के स्पष्ट पदानुक्रम का पालन किया जाना चाहिये।
      • केवल स्कूल रिकॉर्ड ही आयु सिद्ध करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं, जब तक कि अन्य पुष्टि करने वाले साक्ष्यों द्वारा समर्थित न हों।
      • आयु संबंधी दस्तावेजों की प्रामाणिकता स्थापित करने के लिये मूल आयु संबंधी सूचना प्रदान करने वाले व्यक्ति की जाँच की जानी चाहिये।
  • स्वप्रेरणा से न्यायालय बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य (2024):
    • इस मामले में निम्नलिखित सिद्धांतों पर प्रकाश डाला गया:
      • न्यायालयों को वास्तविक रोमांटिक रिश्तों का सम्मान करते हुए अप्राप्तवयों को शोषण से बचाने की आवश्यकता के बीच संतुलन बनाना चाहिये। 
      • युवा रिश्तों से जुड़े मामलों में निर्णय लेते समय सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भों पर विचार किया जाना चाहिये। 
      • शोषण के विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए व्यक्तिगत पसंद एवं सम्मान के अधिकार की रक्षा की जानी चाहिये। 
      • उम्र या सहमति के विषय में निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले साक्ष्य की सावधानीपूर्वक जाँच एवं सत्यापन किया जाना चाहिये। 
      • उम्र निर्धारण एवं सहमति सत्यापन के लिये प्रक्रियात्मक दिशानिर्देशों का कठोरता से पालन किया जाना चाहिये।
      • रिश्तों से संबंधित मामलों का मूल्यांकन करते समय पारिवारिक गतिशीलता और सांस्कृतिक संदर्भों पर विचार किया जाना चाहिये।
      • न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि अप्राप्तवयों की सुरक्षा के कारण वास्तविक रिश्तों से जुड़े मामलों में अन्याय या अनुचित उत्पीड़न न हो।