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सांविधानिक विधि
अपराधी परिवीक्षा अधिनियम का विश्लेषण
« »10-Jan-2025
रमेश बनाम राजस्थान राज्य “उच्चतम न्यायालय ने 70 वर्षीय दोषी को अपराधी परिवीक्षा अधिनियम का लाभ दिया” न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं नोंग्मीकापम कोटिश्वर सिंह। |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक अभियुक्त को अपराधी परिवीक्षा अधिनियम का लाभ प्रदान किया, जो क्रॉस-केस में किसी अन्य अभियुक्त को दिये गए लाभ के अनुरूप है। यह निर्णय पक्षों के बीच हुए समझौते और अपीलकर्त्ता के किसी भी पूर्व आपराधिक इतिहास या प्रतिकूल आचरण के अभाव की स्थिति में लिया गया।
- यह मामला एक परिवार के दो समूहों के बीच हिंसक झड़पों से उत्पन्न हुआ था, जिसके कारण अलग-अलग आपराधिक वाद चले तथा अलग-अलग परिणाम सामने आए।
- न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं नोंगमईकापम कोटिश्वर सिंह ने रमेश बनाम राजस्थान राज्य के मामले में यह निर्णय दिया।
रमेश बनाम राजस्थान राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला दो पारिवारिक समूहों से संबंधित है, जिनके बीच आपसी संघर्ष चल रहा था, जिसके परिणामस्वरूप 1 जनवरी 1993 को सुबह 6-7 बजे के बीच हिंसक झड़पें हुईं।
- गढ़मोरा पुलिस स्टेशन में उसी दिन दो अलग-अलग FIR दर्ज की गईं।
- FIR नंबर 1/1993 रमेश (अपीलकर्त्ता) तथा पाँच अन्य के विरुद्ध दर्ज की गई थी: खिलाड़ी, शंभू, शल्ला उर्फ सुरेश, जानकी एवं रूपी।
- FIR संख्या 9/1993 को दूसरे समूह द्वारा पाँच व्यक्तियों छोटू, कमल, हंसो, सफेदी एवं रामहरि के विरुद्ध प्रत्युत्तर के रूप में शिकायत के रूप में दर्ज किया गया था।
- दोनों FIR के कारण अलग-अलग आपराधिक वाद का विचारण चला - सत्र मामला संख्या 31/93 एवं आपराधिक मामला संख्या 584/1998 (33/1993)।
- सत्र मामला संख्या 31/93 में शिकायतकर्त्ता छोटू था, जो क्रॉस-केस (आपराधिक मामला संख्या 584/1998) में भी आरोपी था।
- आपराधिक मामला संख्या 584/1998 में शिकायतकर्त्ता जानकीदेवी थी, जो अपीलकर्त्ता रमेश के समूह से संबंधित थी।
- घटना के दौरान, रमेश को कथित तौर पर चोटें आईं तथा जब वह शिकायतकर्त्ता रामखिलाड़ी (जानकी का बेटा) को बचाने आया तो वह बेहोश हो गया।
- दोनों मामलों में दंगा, चोट पहुँचाना, आपराधिक अतिचार एवं हमला से संबंधित धाराओं सहित समान आरोप शामिल थे।
- दोनों मामलों में आरोपी एक ही परिवार के सदस्य थे, जो लंबे समय से विवादों में उलझे हुए थे।
- आपराधिक मामला संख्या 584/1998 के लंबित रहने के दौरान, दोनों समूहों ने सौहार्दपूर्ण समझौता किया तथा न्यायालय के समक्ष एक औपचारिक समझौता प्रस्तुत किया।
- अपीलकर्त्ता रमेश, जो अब लगभग 70 वर्ष का है, का कोई पिछला आपराधिक पूर्ववृत्त रिकॉर्ड नहीं है।
- इन परस्पर मामलों में सम्पूर्ण विधिक कार्यवाही 1993 से लेकर आज तक लगभग 25-30 वर्षों तक जारी रही है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्च न्यायालय ने कहा कि हालाँकि ये एक ही घटना से उत्पन्न क्रॉस-केस थे, लेकिन इन्हें अलग-अलग न्यायालयों द्वारा अलग-अलग समय पर निपटान किया गया तथा निपटान हुआ, जो इस स्थापित सिद्धांत के विपरीत है कि क्रॉस-केस को आदर्श रूप से एक ही न्यायालय द्वारा निपटान किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि आपराधिक मामला संख्या 584/1998 में पक्षों के बीच समझौता हो जाने के बावजूद, सत्र मामला संख्या 31/93 में शिकायतकर्त्ता या किसी भी पीड़ित पक्ष द्वारा न्यायालय के समक्ष ऐसा कोई औपचारिक समझौता दायर नहीं किया गया।
- उच्च न्यायालय ने इस तथ्य का संज्ञान लिया कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के बहुत निकट संबंधी थे, लेकिन अभिकथन के समय उनके बीच 27 वर्षों से अधिक समय से दुश्मनी थी।
- न्यायालय ने पाया कि रमेश के मामले पर विचार करते समय, हालाँकि वाद की अवधि एवं अपील के लंबे समय तक लंबित रहने को ध्यान में रखा गया था, लेकिन चोटों की प्रकृति एवं IPC की धारा 326 के अधीन सजा के प्रावधानों के अनुसार ठोस सजा दी जानी चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि दोनों आपराधिक मामले वास्तव में एक ही परिवार के दो समूहों द्वारा दायर किये गए क्रॉस-केस थे, जिनकी उत्पत्ति 1 जनवरी, 1993 को हुई एक ही झड़प से हुई थी।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि कार्यवाही के दौरान अपीलकर्त्ता के आचरण या आपराधिक पूर्ववृत्त के विरुद्ध कोई प्रतिकूल सामग्री उसके संज्ञान में नहीं लाई गई थी।
- न्यायालय ने माना कि अपीलकर्त्ता को भी अपराधी परिवीक्षा अधिनियम के अधीन उसी प्रकार के लाभ प्रदान करना उचित होगा, जैसा कि क्रॉस-केस में अभियुक्तों को दिया गया था, क्योंकि पक्षों के बीच समझौता हो चुका है तथा अपीलकर्त्ता की उम्र अधिक है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि चूँकि अपीलकर्त्ता के विरुद्ध IPC की धारा 307 के अधीन अधिक गंभीर आरोप को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया है, इसलिये शेष आरोपों पर परिवीक्षा लाभों पर विचार किया जाना उचित है।
अपराध परिवीक्षा अधिनियम, 1958
- धारा 4 - "अच्छे आचरण की परिवीक्षा पर कुछ अपराधियों को रिहा करने की न्यायालय की शक्ति"
- न्यायालयों को मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दण्डनीय नहीं अपराधों के लिये सजा देने के बजाय अपराधियों को परिवीक्षा पर रिहा करने की अनुमति देता है।
- अपराधियों को जमानतदारों के साथ या उनके बिना बॉण्ड भरने की आवश्यकता होती है। परिवीक्षा की अवधि तीन वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिये।
- धारा 5 - "रिहा किये गये अपराधियों से मुआवजा और लागत का भुगतान करने की मांग करने की न्यायालय की शक्ति"
- न्यायालय अपराधियों को क्षति/चोट के लिये उचित क्षतिपूर्ति देने का आदेश दे सकते हैं।
- कार्यवाही की लागत लगाई जा सकती है।
- CrPC की धारा 386 एवं 387 के अधीन अर्थदण्ड के रूप में राशि वसूल की जा सकती है।
- धारा 7 - "परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट गोपनीय रखी जाएगी"
- परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट को गोपनीय माना जाना चाहिये।
- न्यायालय अपराधी को मामले की सूचना दे सकती है।
- अपराधी को रिपोर्ट में दर्ज मामलों पर साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर दिया जा सकता है।
- धारा 8 - "परिवीक्षा की शर्तों में परिवर्तन"
- न्यायालय परिवीक्षा अधिकारी के आवेदन पर बॉण्ड की शर्तों में परिवर्तन कर सकते हैं
- अवधि को मूल आदेश से 3 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है
- अपराधी एवं जमानतदारों को सुनवाई का अवसर देने के साथ नई शर्तें जोड़ी जा सकती हैं
- धारा 11 - "अधिनियम के अंतर्गत आदेश देने के लिये सक्षम न्यायालय, अपील एवं पुनरीक्षण तथा अपील एवं पुनरीक्षण में न्यायालयों की शक्तियाँ"
- अपराधियों पर अभियोजन का वाद चलाने तथा उन्हें सज़ा देने के लिये अधिकृत कोई भी न्यायालय इस अधिनियम के अंतर्गत आदेश दे सकती है।
- उच्च न्यायालय या अन्य न्यायालयें अपील या पुनरीक्षण के दौरान आदेश दे सकती हैं।
- अपील न्यायालयें ट्रायल न्यायालय से ज़्यादा सज़ा नहीं दे सकतीं।
- धारा 12 - "दोषसिद्धि से संबंधित अयोग्यता का इस अधिनियम में हटाया जाना"
- धारा 3 या 4 के अधीन निपटान किये गए व्यक्ति को दोषसिद्धि से जुड़ी अयोग्यता का सामना नहीं करना पड़ेगा।
- अपवाद: यदि व्यक्ति को धारा 4 के अधीन रिहाई के बाद मूल अपराध के लिये बाद में सजा दी जाती है।
- धारा 14 - "परिवीक्षा अधिकारियों के कर्त्तव्य"
- आरोपी व्यक्तियों की परिस्थितियों की जाँच करना आवश्यक है।
- परिवीक्षाधीन व्यक्तियों की निगरानी करना एवं रोजगार खोजने में सहायता करना है।
- अपराधियों को न्यायालय द्वारा आदेशित क्षतिपूर्ति देने में सहायता करना।
- निर्देशानुसार न्यायालय को रिपोर्ट प्रस्तुत करना।