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सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन निर्णीत-ऋणी की गिरफ्तारी
« »12-Feb-2025
भूदेव मलिक उर्फ भूदेब मलिक एवं अन्य बनाम रणजीत घोषाल एवं अन्य “निर्णय-ऋणी को कारावास में डालना निस्संदेह एक कठोर कदम है तथा इससे उसे अपनी इच्छानुसार कहीं भी जाने से रोका जा सकेगा।” न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने कहा कि न्यायालय को किसी व्यक्ति को निरोध में लेने का आदेश तब तक नहीं देना चाहिये जब तक कि वह संतुष्ट न हो जाए कि व्यक्ति को डिक्री का पालन करने का अवसर मिला है, फिर भी उसने जानबूझकर इसका उल्लंघन किया है।
- उच्चतम न्यायालय ने भूदेव मलिक उर्फ भूदेब मलिक एवं अन्य बनाम रणजीत घोषाल एवं अन्य (2025) के मामले में यह आदेश दिया।
भूदेव मलिक उर्फ भूदेब मलिक एवं अन्य बनाम रणजीत घोषाल एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- मूल वादियों ने हक़ के लिये वाद दायर किया था, जिसमें हक़ के आधार पर कब्जे की पुष्टि या कब्जे की वसूली के साथ-साथ बाधा के विरुद्ध एक स्थायी व्यादेश की मांग की गई थी।
- 1976 में वादियों के पक्ष में वाद तय किया गया था, जिसमें उनके हक़ और कब्जे की पुष्टि की गई थी, और प्रतिवादियों को उनके कब्जे में बाधा उत्पन्न करने से स्थायी रूप से रोक दिया गया था।
- 1976 के निर्णय से असंतुष्ट, अपीलकर्त्ताओं (प्रतिवादियों) ने अपील दायर की, किंतु इसके व्ययन का विवरण अस्पष्ट है, अपीलकर्त्ताओं ने दावा किया कि इसका व्ययन 1980 में किया गया था।
- वर्ष 2017 में, लगभग 40 वर्षों के पश्चात्, प्रतिवादियों (वादी के उत्तराधिकारियों) ने एक निष्पादन वाद दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि अपीलकर्त्ता वाद की संपत्ति के उनके कब्जे में बाधा उत्पन्न करके स्थायी व्यादेश का उल्लंघन कर रहे थे।
- अपीलकर्त्ताओं ने 2018 में निष्पादन मामले पर लिखित आपत्तियाँ दर्ज कीं, जिसमें तर्क दिया गया कि वाद पोषणीय नहीं था, डिक्री अस्पष्ट थी, और उन्होंने डिक्री का उल्लंघन नहीं किया था, क्योंकि वे 1980 से संपत्ति पर कब्जा कर रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि डिक्रीदारों के पास कभी भी संपत्ति का कब्जा नहीं था।
- निष्पादन न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं की लिखित आपत्तियों को खारिज कर दिया और जनवरी 2019 में अंतिम दलीलें पेश कीं। अपीलकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक पुनरीक्षण आवेदन दायर किया, जिसने मार्च 2019 में कार्यवाही को स्थगित कर दिया।
- स्थगन के बावजूद, सिविल जज ने 4 सितंबर 2019 को एक आदेश पारित किया, जिसमें निष्पादन मामले को एकपक्षीय अनुमति दी गई, जिसमें अपीलकर्त्ताओं को गिरफ्तार करने और 30 दिनों के लिये सिविल कारागार में निरोध में रखने और उनकी संपत्ति को कुर्क करने का निर्देश दिया गया।
- अपीलकर्त्ताओं ने आदेश को चुनौती देते हुए एक पुनरीक्षण आवेदन दायर किया, किंतु उच्च न्यायालय ने सितंबर 2019 में पुनरीक्षण आवेदन को खारिज कर दिया, अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की और अपीलकर्त्ताओं के दावों को खारिज कर दिया।
- उच्च न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट अपीलकर्त्ता अब उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील में आदेश को चुनौती दे रहे हैं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने सबसे पहले सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (CPC) के अधीन गिरफ्तारी से संबंधित उपबंधों पर चर्चा की।
- डिक्री के निष्पादन के लिये परिसीमा काल के संबंध में न्यायालय ने माना कि परिसीमा अधिनियम, 1963 (LA) के अनुच्छेद 136 के उपबंध से यह स्पष्ट होता है कि शाश्वत व्यादेश देने वाली डिक्री के प्रवर्तन या निष्पादन के लिये कोई परिसीमा काल नहीं होगा।
- सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21नियम 32 के अनुसार, यदि कोई निर्णीतऋणी व्यादेश की डिक्री की अवहेलना करता है, तो उसे इस नियम के अधीन कारावास या संपत्ति की कुर्की या दोनों द्वारा निपटाया जा सकता है।
- यद्यपि, न्यायालय को यह निष्कर्ष अभिलिखित करना होगा कि निर्णीत-ऋणी ने जानबूझकर अवहेलना की या उसे अवसर दिये जाने के बावजूद डिक्री का पालन करने में विफल रहा। इस तरह के निष्कर्ष की अनुपस्थिति आदेश को दूषित करने वाली एक गंभीर दुर्बलता है।
- इसलिये, उपनियम के अधीन व्यादेश के लिये डिक्री के निष्पादन की मांग करने वाले व्यक्ति से यह अपेक्षित है कि वह निष्पादन न्यायालय के समक्ष ऐसी सामग्री प्रस्तुत करे जिससे वह यह निष्कर्ष निकाल सके:
- कि डिक्री से आबद्ध व्यक्ति को डिक्री की शर्तों और उसके बाध्यकारी स्वरूप की पूरी जानकारी थी।
- उस व्यक्ति को ऐसी डिक्री का पालन करने का अवसर मिला था, किंतु उसने जानबूझकर, अर्थात् सतर्कता से और सोच-समझकर, ऐसी डिक्री की अवज्ञा की है, जिससे वह उसकी निरोध का आदेश दे सके।
- न्यायालय ने इस मामले में यह भी चर्चा की कि अधिकारिता संबंधी त्रुटि क्या होगी।
- न्यायालय ने अंततः माना कि निष्पादन न्यायालय को विचारशील होना चाहिये था और अपीलकर्त्ताओं को उनकी गिरफ्तारी का आदेश देने से पूर्व कम से कम एक अवसर देना चाहिये था।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश इसलिये विधि में टिकने योग्य नहीं है।
सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन गिरफ्तारी से संबंधित उपबंध क्या हैं?
- सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 51 के उपबंध:
- जहाँ डिक्री धन के संदाय के लिये है, वहाँ कारावास द्वारा निष्पादन का आदेश तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि:
- हेतुक दर्शित करने का अवसर – निर्णीत-ऋणी को यह स्पष्ट करने का अवसर दिया जाना चाहिये कि उसे कारावास क्यों नहीं दिया जाना चाहिये।
- न्यायालय का समाधान - न्यायालय को अभिलिखित कारणों में दर्ज करना चाहिये और समाधान होना चाहिये कि:
- जहाँ डिक्री धन के संदाय के लिये है, वहाँ कारावास द्वारा निष्पादन का आदेश तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि:
- निर्णीत-ऋणी, निष्पादन में बाधा उत्पन्न करने या विलंब करने के लिये, न्यायालय की अधिकारिता से भागने या बाहर जाने की संभावना है।
- वाद दायर किये जाने के पश्चात्, निर्णीत-ऋणी ने बेईमानी से संपत्ति अंतरित की, छिपाई, या हटाई, या अपनी संपत्ति के संबंध में असद्भावपूर्वक कोई अन्य कार्य किया।
- निर्णय-ऋणी के पास डिक्री की तारीख से डिक्री राशि (या पर्याप्त भाग) का संदाय करने का साधन था, किंतु संदाय करने से इंकार करता है या उपेक्षा करता है।
- डिक्री उस राशि के लिये है, जिसका निर्णीत-ऋणी वैश्वासिक हैसियत में आबद्ध था।
- सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 58:
- डिक्री का संदाय न करने के कारण सिविल कारागार में बंद व्यक्ति को निरोध में लिया जाएगा:
- यदि राशि 5,000 रुपए से अधिक है तो अधिकतम तीन मास के लिये।
- यदि राशि 2,000 रुपए से अधिक किंतु 5,000 रुपए से अनधिक है तो अधिकतम छह सप्ताह के लिये।
- यदि डिक्री राशि 2,000 रुपए या उससे कम है तो निरोध का आदेश नहीं दिया जाएगा।
- निरोध से मुक्ति ऋण से विमुक्ति नहीं होता है।
- निर्णीत-ऋणी को उसी डिक्री के अधीन पुन: गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है।
- डिक्री का संदाय न करने के कारण सिविल कारागार में बंद व्यक्ति को निरोध में लिया जाएगा:
- सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 21 नियम 32:
- यह उपबंध विनिर्दिष्ट पालन के लिये दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये व्यादेश के लिये डिक्री के निष्पादन को उपबंधित करता है।
- नियम 32 के उपनियम (1) में कहा गया है कि जहाँ डिक्री किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन या व्यादेश के लिये है और निर्णीत-ऋणी जानबूझकर ऐसी डिक्री की अवज्ञा करता है, तो इसे निर्णीत-ऋणी की संपत्ति की कुर्की या उसे कारागार में या दोनों रीती से प्रवृत्त किया जा सकता है।
- उपनियम (2) घोषित करता है कि जहाँ विनिर्दिष्ट पालन या व्यादेश के लिये डिक्री में निर्णीत-ऋणी एक निगम है, वहाँ उसे निगम की संपत्ति की कुर्की करके या न्यायालय की अनुमति से निदेशकों या अन्य प्रमुख अधिकारियों को निरोध में लेकर या कुर्की और निरोध दोनों रीती से प्रवृत्त किया जा सकता है।
- उपनियम (3) कुर्क की गई संपत्ति का विक्रय और विक्रय से प्राप्त राशि का संदाय डिक्रीदार को करने का उपबंध करता है, जहाँ कुर्की छह मास तक प्रभावी रहती है और निर्णीत-ऋणी डिक्री का पालन करने में असफल रहता है।
- उपनियम (4) उन मामलों से संबंधित है जहाँ निर्णीत-ऋणी डिक्री का पालन करता है, या डिक्रीदार व्यतिक्रम करता है।
- उपनियम (5) निष्पादन न्यायालय को निर्णीत-ऋणी की कीमत पर डिक्री को लागू करने के लिये उचित कार्रवाई करने का अधिकार देता है, जो जानबूझकर ऐसी डिक्री की अवज्ञा करता है।
- सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 21 नियम 11क:
- सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 21 नियम 11क यह उपबंध करता है कि:
- जहाँ निर्णीत-ऋणी की गिरफ्तारी और कारागार में निरोध के लिये आवेदन किया जाता है वहाँ उसमें उन आधारों का जिन पर गिरफ्तारी के लिये आवेदन किया गया है, कथन होगा या उसके साथ एक शपथपत्र होगा जिसमें उन आधारों का जिन पर गिरफ्तारी के लिये आवेदन किया गया है, कथन होगा।
- सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 21 नियम 11क यह उपबंध करता है कि: