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सांविधानिक विधि
संविधान का अनुच्छेद 227
« »11-Feb-2025
टी.एम.लीला एवं अन्य बनाम पी.के.वासु एवं अन्य “पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार केवल तथ्य या विधि की त्रुटियों को सुधारने के लिये उपलब्ध नहीं है, जब तक कि मामला त्रुटि या गंभीर अन्याय का न हो” । न्यायमूर्ति के. बाबू |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति के. बाबू ने अभिनिर्धारित किया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 227 का प्रयोग अपीलीय या पुनरीक्षण शक्ति के रूप में नहीं किया जा सकता । ऐसी शक्ति का प्रयोग संयम से और स्पष्ट त्रुटि या गंभीर अन्याय के मामलों में किया जाना चाहिये ।
- केरल उच्च न्यायालय ने टी.एम.लीला एवं अन्य बनाम पी.के.वासु एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया है ।
टी.एम.लीला एवं अन्य बनाम पी.के. वासु एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, वादी ने प्रतिवादियों के विरुद्ध स्थावर संपत्ति के संबंध में संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन के लिये याचिका दायर की थी ।
- मूल वाद में प्रतिवादी निम्नलिखित थे :
- टी.एम. लीला (72 वर्ष), चंद्रन की पत्नी ।
- संगीता (47 वर्ष), चंद्रन की पुत्री, पुणे में रहती है और उसका प्रतिनिधित्त्व पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से टी.एम. लीला द्वारा किया जाता है ।
- मूल वाद में वादी निम्नलिखित थे :
- पी.के. वासु, करुप्पंडी के पुत्र ।
- विश्वनाथमन्नदियार (82 वर्ष), चिन्नाथरकन के पुत्र ।
- मामला लोक अदालत में भेजा गया, जहाँ 17 जुलाई 2018 को दोनों पक्षों के बीच समझौता हो गया । समझौते की शर्तें इस प्रकार थीं:
- प्रतिवादियों को निर्णय के एक माह के भीतर संपत्ति के दस्तावेज़ प्रस्तुत करने होंगे ।
- प्रतिवादियों को तीन सप्ताह के भीतर पूर्व दस्तावेज़, कर रसीदें, कब्ज़ा प्रमाण-पत्र और भार प्रमाण-पत्र सौंपने होंगे ।
- प्रतिवादियों को शेष विक्रय प्रतिफल प्राप्त होने पर, पूर्ववर्ती दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के सात दिनों के भीतर दस्तावेज़ निष्पादित करना होगा ।
- यदि प्रतिवादी व्यतिक्रम करते हैं, तो वादी न्यायालय में विक्रय राशि जमा कर सकते हैं तथा न्यायालय के माध्यम से दस्तावेज़ पंजीकरण के लिये आवेदन कर सकते हैं ।
- तत्पश्चात्:
- 24 सितंबर 2018 को वादी ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 151 के अधीन आवेदन दायर कर शेष विक्रय राशि जमा करने की अनुमति मांगी ।
- 24 सितंबर 2020 को प्रतिवादियों ने संविदा को विखण्डित करने और डिक्री को अपास्त करने के लिये विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 28 (1) के अधीन याचिका दायर की ।
- पक्षकारों के बीच प्रमुख विवादित तथ्य निम्नलिखित थे:
- वादी का दावा है कि प्रतिवादियों ने सहमति के अनुसार दस्तावेज़ नहीं सौंपे तथा 20 सितंबर 2018 को केवल ‘अनुसूची’ ही उपलब्ध कराई ।
- प्रतिवादियों का दावा है कि उन्होंने 18 अगस्त 2018 को सभी दस्तावेज़, वादी के दस्तावेज़ लेखक (श्रीमती सिंधु) को सौंप दिये थे ।
- प्रतिवादियों का तर्क है कि डिक्री के पश्चात् संपत्ति के मूल्य में सारवान् वृद्धि हो गई ।
- प्रतिवादियों का तर्क है कि वादी शेष भुगतान के लिये तैयार नहीं थे ।
- अतिरिक्त अधीनस्थ न्यायाधीश के न्यायालय, पलक्कड़ ने एक सामान्य आदेश पारित किया, जिसे केरल उच्च न्यायालय के समक्ष इस मूल याचिका में चुनौती दी गई ।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
केरल उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियां कीं:
- दस्तावेज़ीकरण आवश्यकताओं पर:
- यह उल्लिखित किया गया कि वादी को दस्तावेज़ 17 जुलाई 2018 से तीन सप्ताह के भीतर दिये जाने थे ।
- यह पाया गया कि प्रतिवादियों ने 20 सितंबर 2018 को ही थंडापर नंबर (पंजीकरण के लिये आवश्यक) उपलब्ध कराने की बात स्वीकार की ।
- यह पाया गया कि प्रतिवादी यह साबित करने में असफल रहे कि उन्होंने सहमति के अनुसार दस्तावेज़ सौंपे थे ।
- साक्ष्य पर:
- इस बात पर प्रकाश डाला गया कि प्रतिवादियों ने वादी या श्रीमती सिंधु को दस्तावेज़ परिदत्त करने के संबंध में कोई साक्ष्य पेश नहीं किया ।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 114(छ) को लागू किया गया, यह मानते हुए कि अप्रस्तुत साक्ष्य प्रतिवादियों के लिये प्रतिकूल होगा ।
- प्रतिवादियों द्वारा श्रीमती सिंधु को साक्षी के रूप में पेश करने के महत्त्व पर ध्यान दिया गया, जो सर्वोत्तम साक्ष्य प्रस्तुत कर सकती थीं ।
- घटनाओं की समयरेखा पर:
- यह प्रेक्षित किया गया कि थंडापर नंबर 30 अगस्त 2018 को जारी किया गया था ।
- विख्यात वादीगण ने 24 सितंबर 2018 को (समय-सीमा के 38 दिन पश्चात्) निक्षेप की अनुमति के लिये आवेदन दायर किया ।
- प्रतिवादियों द्वारा दस्तावेज़ परिदत्त करने में की गई पूर्ववर्ती विलंब के कारण इस विलंब को न्यायोचित पाया गया ।
- संविदा अनुपालन के संबंध में:
- निर्धारित प्रतिवादी अपना प्रथम दायित्त्व (दस्तावेज़ परिदत्त करना) पूरा करने में असफल रहे ।
- यह पाया गया कि वादी को समय-विस्तार मांगने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि प्रतिवादियों ने अपने प्राथमिक दायित्त्वों को पूरा नहीं किया था ।
- निष्कर्ष यह निकला कि प्रतिवादी संविदा विखण्डन के लिये वैध आधार स्थापित करने में असफल रहे ।
- क्षेत्राधिकार के संबंध में:
- यह स्पष्ट किया गया कि भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 227 के अधीन शक्तियां निम्नलिखित मामलों तक सीमित हैं:
- कर्त्तव्य की गंभीर उपेक्षा
- विधि का घोर उल्लंघन
- गंभीर अन्याय को रोकने के लिये हस्तक्षेप की आवश्यकता वाले मामले |
- इन शक्तियों पर बल देते हुए इन्हें अपीलीय या पुनरीक्षण प्राधिकार के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता ।
- केरल उच्च न्यायालय ने अंततः विचारण न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा तथा सामान्य आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाया, क्योंकि प्रतिवादी यह साबित करने में असफल रहे कि उन्होंने संविदा के अधीन अपने दायित्त्वों को पूरा किया था तथा संविदा को विखण्डित करने का कोई आधार भी स्थापित नहीं किया ।
- यह स्पष्ट किया गया कि भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 227 के अधीन शक्तियां निम्नलिखित मामलों तक सीमित हैं:
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 227 क्या है ?
- यह अनुच्छेद संविधान के भाग 5 के अंतर्गत उपबंधित है जो उच्च न्यायालय द्वारा सभी न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति से संबंधित है ।
- यह अभिकथित करता है कि-
- खण्ड (1) में कहा गया है कि प्रत्येक उच्च न्यायालय को उन सभी न्यायालयों और न्यायाधिकरणों पर अधीक्षण रखना होगा जिनके संबंध में वह अधिकारिता का प्रयोग करता है ।
- खण्ड (2) में कहा गया है कि पूर्वगामी प्रावधान की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, उच्च न्यायालय -
- ऐसे न्यायालयों से वापस मांग सकता है,
- ऐसे न्यायालयों की कार्यप्रणाली और कार्यवाही को विनियमित करने के लिये सामान्य नियम बना और जारी करना तथा प्रारूप निर्धारित कर सकता है,
- ऐसे न्यायालयों के अधिकारियों द्वारा पुस्तकें, प्रविष्टियाँ और खाते रखे जाने के लिये प्रारूप निर्धारित कर सकता है ।
- खण्ड (3) में कहा गया है कि उच्च न्यायालय ऐसे न्यायालयों के शेरिफ और सभी क्लर्कों और अधिकारियों तथा उनमें प्रैक्टिस करने वाले अटॉर्नी, अधिवक्ताओं और प्लीडरों को दी जाने वाली फीस की तालिका भी निर्धारित कर सकता है ।
- परंतु खण्ड (2) या खण्ड (3) के अधीन बनाए गए कोई नियम, विहित कोई प्ररूप या निर्धारित की गई कोई तालिका, तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के उपबंधों से असंगत नहीं होगी और उसके लिये राज्यपाल का पूर्व अनुमोदन अपेक्षित होगा ।
- खण्ड (4) में कहा गया है कि इस अनुच्छेद की कोई बात किसी उच्च न्यायालय को सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण पर अधीक्षण की शक्ति प्रदान करने वाली नहीं समझी जाएगी ।