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सांविधानिक विधि
भारत के संविधान का अनुच्छेद 32
«18-Apr-2025
सतीश चंद्र शर्मा एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य "मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उपचारात्मक प्रावधान होने के कारण, अनुच्छेद 32 का उपयोग न्यायालय के स्वयं के निर्णय को चुनौती देने के साधन के रूप में लागू नहीं किया जा सकता है।" न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता और उज्ज्वल भुइयां |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 32 को, जो मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन हेतु एक उपचारात्मक प्रावधान के रूप में कार्य करता है, न्यायालय के स्वयं के निर्णय को चुनौती देने के लिये प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है, ऐसा उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया।
- यह निर्णय सतीश चंद्र शर्मा एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) के वाद में व्यक्त किया गया।
सतीश चंद्र शर्मा एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- दिनांक 26.03.1974:
- हिमाचल प्रदेश राज्य वन विकास निगम लिमिटेड को कंपनी अधिनियम, 1956 के अधीन सम्मिलित किया गया था। हिमाचल प्रदेश राज्य निगम की 100% शेयर पूंजी का स्वामी है।
- याचिकाकर्त्ताओं की नियुक्तियाँ:
- याचिकाकर्त्ता 1 : 29.10.1975 को नियुक्त, 31.01.2013 को सेवानिवृत्त।
- याचिकाकर्त्ता 2 : 15.02.1988 को नियुक्त, 30.09.2016 को सेवानिवृत्त।
- याचिकाकर्त्ता 3 : 05.12.1981 को नियुक्त, 30.11.2014 को सेवानिवृत्त।
- दिनांक 29.10.1999:
- हिमाचल प्रदेश सरकार ने कॉर्पोरेट क्षेत्र कर्मचारी पेंशन योजना, 1999 को अधिसूचित किया, जो 01.04.1999 से प्रभावी है, तथा जिसके अंतर्गत राज्य सरकार के कर्मचारियों के समकक्ष पेंशन लाभ प्रदान किये गए।
- इस योजना का चयन करने वाले कर्मचारियों को भविष्य निधि (CPF) में नियोक्ता द्वारा किए गए अंशदान को त्यागना पड़ा।
- इस योजना में केंद्रीय सिविल सेवा (पेंशन एवं समानीकरण) नियमों का पालन किया गया।
- दिनांक 21.01.2003:
- 1999 की योजना की वित्तीय व्यवहार्यता का आकलन करने के लिये एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया।
- दिनांक 28.10.2003:
- समिति द्वारा एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि उक्त योजना वित्तीय रूप से अनुपालित (वित्तीय दृष्टि से अस्थिर) है, क्योंकि:
- ब्याज दरों में अनिश्चितता।
- सार्वजनिक क्षेत्र में नियुक्तियों में गिरावट।
- कोष निधि (Corpus Fund) की वहन क्षमता का अभाव, जिससे राज्य सरकार के कर्मचारियों के समकक्ष पेंशन भुगतान बनाए रखना संभव नहीं है।
- समिति द्वारा एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि उक्त योजना वित्तीय रूप से अनुपालित (वित्तीय दृष्टि से अस्थिर) है, क्योंकि:
- दिनांक 02.12.2004:
- सरकार द्वारा वर्ष 1999 की योजना को भविष्यलक्षी प्रभाव (Prospectively) से निरस्त कर दिया गया।
- उन कर्मचारियों को संरक्षण प्रदान किया गया, जो 01.04.1999 से 02.12.2004 की अवधि के मध्य सेवानिवृत्त हुए एवं जिन्होंने इस योजना का विकल्प चुना था।
- ऐसे कर्मचारी जो 02.12.2004 के पश्चात सेवानिवृत्त हुए, उन्हें उक्त योजना के अंतर्गत कोई लाभ प्रदान नहीं किया गया।
- 2004 के पश्चात्:
- निगम ने अपने उपनियमों में संशोधन किया और निरसन को लागू किया; यद्यपि याचिकाकर्त्ताओं ने योजना का विकल्प चुना था, लेकिन उन्हें पेंशन देने से मना कर दिया गया।
- 2009 – 2013:
- हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिकाओं का एक समूह दायर किया गया (मुख्य वाद: डी. नंदा बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य )।
- दिनांक 19.12.2013:
उच्च न्यायालय ने याचिकाओं को स्वीकार किया, कट-ऑफ तिथि को अधिकातीत (Ultra Vires) घोषित किया, तथा निरसन की व्याख्या इस प्रकार की कि वह 02.12.2004 के पश्चात् सेवानिवृत्त कर्मचारियों को भी सम्मिलित करे। - दिनांक 28.09.2016:
- उच्च्ताम न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम राजेश चंद्र सूद वाद में उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया और निरसन की कट-ऑफ तिथि और वैधता को बरकरार रखा ।
- दिनांक 20. 03.2018:
- उच्चतम न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने वर्तमान याचिका पर नोटिस जारी करते हुए राजेश चंद्र सूद निर्णय की सत्यता पर प्रश्न उठाते हुए इसे तीन न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया।
- वर्तमान याचिका दायर:
- तीनों याचिकाकर्त्ताओं ने अनुच्छेद 32 के अधीन एक रिट दायर की, जिसमें दावा किया गया कि राजेश चंदर सूद निर्णय 'Per Incuriam' (विधि को ध्यानपूर्वक अवलोकन के बिना) पारित किया गया था, तथा पूर्व-2004 सेवानिवृत्त कर्मचारियों के समान लाभ की मांग की गई थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- पोषणीयता (Maintainability) और पूर्व-न्याय (Res Judicata) :
- अनुच्छेद 32 के अधीन दायर याचिका को पोषणीय नहीं माना गया ।
- उक्त विवाद का निपटारा पूर्व में ही उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘राजेश चंदर सूद’ वाद में निश्चायक रूप से किया जा चुका है।
- उच्चतम न्यायालय के निर्णयों की अंतिमता:
- अनुच्छेद 32 के अंतर्गत रिट याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को पुनः नहीं खोला जा सकता ।
- उचित विधिक उपचार ‘पुनर्विचार याचिका’ (Review Petition) के माध्यम से है, तथा आवश्यकता पड़ने पर उसके उपरांत ‘उपचारात्मक याचिका’ (Curative Petition) दायर की जा सकती है।
- इस तरह के रिट की अनुमति देने से न्यायिक अराजकता उत्पन्न होगी और मुकदमे की अंतिमता कमजोर होगी।
- प्रति इंकुरियम (Per Incuriam) तर्क नामंजूर किया गया:
- याचिकाकर्त्ताओं का यह दावा कि राजेश चंद्र सूद अपराध में संलिप्त थे , दृढ़ता से खारिज कर दिया गया।
- न्यायालय ने पाया कि किसी भी बाध्यकारी पूर्व निर्णय को नजरअंदाज नहीं किया गया था, निर्णय उचित तर्क पर आधारित था ।
- राज्य की नीति और वैध वर्गीकरण:
- न्यायालय ने यह माना कि राज्य को वित्तीय सामर्थ्य (Financial Feasibility) के आधार पर नीतियों में परिवर्तन करने का अधिकार प्राप्त है।
- दिनांक 02.12.2004 की कट-ऑफ तिथि उचित, न्यायसंगत और मनमानी नहीं पाई गई ।
- पेंशन योजना मौलिक अधिकार नहीं:
- 1999 की योजना एक कल्याणकारी उपाय के रूप में प्रारंभ की गई थी, न कि एक सांविधिक अधिकार के रूप में।
- याचिकाकर्त्ता सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के कर्मचारी हैं और राज्य सरकार के कर्मचारी नहीं हैं, इसलिये वे सेवा लाभों में समानता का दावा नहीं कर सकते ।
- याचिका खारिज करना और अंतिम टिप्पणी:
- रिट याचिका पूरी तरह से गलत पाई गई और उसे खारिज कर दिया गया ।
- याचिकाकर्ताओं के सेवानिवृत्त और बुजुर्ग होने के कारण उन पर कोई जुर्माना अधिरोपित नहीं किया गया ।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 32 क्या है?
अनुच्छेद 32 की प्रकृति और महत्त्व:
- बी.आर. अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को "संविधान का हृदय और आत्मा" कहा है।
- यह नागरिकों को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये सीधे उच्चतम न्यायालय में जाने का अधिकार देता है ।
- यह एक उपचारात्मक मौलिक अधिकार है, मूलभूत अधिकार नहीं - यह संविधान के भाग 3 के अधीन अन्य अधिकारों को लागू करने के लिये एक तंत्र प्रदान करता है।
- यह संविधान के मूल ढाँचे का भाग है और अनुच्छेद 359 के अधीन आपातस्थिति को छोड़कर इसे हटाया नहीं जा सकता है।
अनुच्छेद 32 का विधिक आधार और पाठ:
अनुच्छेद |
उपबंध |
अनुच्छेद 32(1) |
मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये उच्चतम न्यायालय में जाने का अधिकार प्रदान करता है। |
अनुच्छेद 32(2) |
यह विधेयक उच्चतम न्यायालय को निदेश, आदेश या रिट (बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा, उत्प्रेषण) जारी करने का अधिकार देता है। |
अनुच्छेद 32(3) |
संसद अन्य न्यायालयों को भी समान शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार दे सकती है। |
अनुच्छेद 32(4) |
इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्रदत्त अधिकार को स्थगित नहीं किया जा सकता, सिवाय संविधान में प्रदत्त उपबंधों के अनुसार (उदाहरणार्थ: आपातकाल की स्थिति में अनुच्छेद 359 के अधीन)। |
अनुच्छेद 32 के अधीन रिट:
रिट |
उद्देश्य |
बंदी प्रत्यक्षीकरण |
किसी निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना एवं निरोधन का औचित्य सिद्ध करना। |
परमादेश |
किसी लोक अधिकारी को कर्तव्य पालन हेतु निदेश देना। |
प्रतिषेध |
अवर न्यायालय को उसकी अधिकारिता से बाहर की कार्यवाही रोकने का आदेश देता है। |
उत्प्रेषण |
अवर न्यायालय द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया गया। |
अधिकार पृच्छा |
विधिक प्राधिकरण के अभाव में किसी व्यक्ति द्वारा लोक पद धारण किये जाने की वैधता को चुनौती देता है। |
अनुच्छेद 32 से संबंधित प्रमुख सिद्धांत और न्याय सिद्धांत
लोकस स्टैंडी (Locus Standi) और जनहित याचिका (Public Interest Litigation - PIL):
- प्रारंभ में केवल व्यथित व्यक्ति ही न्यायालय में जा सकता था।
- इस सिद्धांत का विकास जनहित याचिका (PIL) के रूप में हुआ, जिससे उन व्यक्तियों की ओर से भी याचिका दायर की जा सकती है जो स्वयं न्याय प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं।
- यह सिद्धांत निम्नलिखित वादों में मान्यता प्राप्त:
- ए.बी.एस.के संघ बनाम भारत संघ (1981)
- एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1982)
पूर्व-न्याय (Res Judicata):
- यह अंतिमता के सिद्धांत (Doctrine of Finality) को स्थापित करता है – एक बार जब किसी विषय का निर्णय अनुच्छेद 32 के अंतर्गत हो जाता है, तो उसे पुनः नहीं खोला जा सकता है ।
- अपवाद: बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) पर लागू नहीं होता है या यदि उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया जाता है , तो उच्चतम के समक्ष पुनः याचिका प्रस्तुत की जा सकती है।
विलंब का सिद्धांत (Rule of Laches):
- यदि याचिका में अत्यधिक विलंब हो, तो न्यायालय उसे खारिज कर सकता है।
- अनुच्छेद 32 के अंतर्गत कोई निश्चित परिसीमा काल नहीं है; न्यायालय प्रत्येक वाद के तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर निर्णय लेते हैं (जैसा कि त्रिलोकचंद मोतीचंद बनाम एच.बी. मुंशी, 1970 में प्रतिपादित किया गया)।
अनुच्छेद 32 बनाम अनुच्छेद 226
पहलू |
अनुच्छेद 32 |
अनुच्छेद 226 |
अधिकारिता |
उच्चतम न्यायालय |
उच्च न्यायालय |
विस्तार |
केवल मौलिक अधिकारों के लिये |
मौलिक अधिकारों एवं अन्य विधिक अधिकारों के लिये |
शक्ति का स्रोत |
मौलिक अधिकार स्वयं |
सांविधानिक शक्ति (मौलिक नहीं) |
पहुँच |
प्रवर्तन तक सीमित |
व्यापक; इसमें प्रशासनिक कार्यवाहियाँ सम्मिलित हैं |
पदानुक्रम |
उच्चतम न्यायालय के निर्णय उच्च न्यायालयों पर प्रबल होते हैं |
अनुच्छेद 32 के अधीनस्थ |
- न्यायिक दृष्टिकोण एवं महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ:
- रोमेश थापर वाद : उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि वह मौलिक अधिकारों का संरक्षक एवं प्रत्याभूतिकर्ता (Guarantor) है ।
- अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय को विवेकाधिकार प्राप्त है – उच्चतम न्यायालय को यह विवेकाधिकार प्राप्त है कि वह किसी पत्र को भी याचिका के रूप में स्वीकार कर सकता है, विशेषकर जब निर्धन या वंचित वर्ग के अधिकारों का हनन हुआ हो।
- अनुच्छेद 32 को प्रवर्तित करने हेतु कोई निश्चित प्रक्रिया नहीं है; न्यायालय आवश्यकता अनुसार विरोधात्मक प्रणाली (Adversarial System) के स्थान पर अन्वेषणात्मक दृष्टिकोण (Inquisitorial Approach) को भी अपनाने हेतु स्वतंत्र हैं।
- सीमाएँ और दुरुपयोग से संबंधित चिंताएँ:
- इसके लिये उपयोग नहीं किया जा सकता:
- संविदात्मक अधिकार , निजी विवाद , या अन्य विधियों के अंतर्गत आने वाले अधिकार ।
- आपातकाल (अनुच्छेद 359) के दौरान, अनुच्छेद 32 के अधीन अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने इसके दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त की है तथा अनुच्छेद 32 के अधीन निरर्थक एवं अवांछनीय याचिकाओं को रोकने हेतु सतर्कता बरती है।
- इसके लिये उपयोग नहीं किया जा सकता: