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राजस्थान
असम विधायी अधिनियम द्वारा बहुविवाह पर लगाएगा प्रतिबंध
« »07-Aug-2023
चर्चा में क्यों?
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा है कि राज्य सरकार इस्लामिक कानून के तहत बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने के लिये कानून बनाएगी ।
पृष्ठभूमि (Background )
असम सरकार ने इस तरह का कानून निर्माण के लिये राज्य विधायिका की क्षमता की जाँच करने और 60 दिनों के भीतर एक रिपोर्ट सौंपने के लिये गुवाहाटी उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश रूमी फुकन की अध्यक्षता में चार सदस्यीय समिति का गठन किया है।
समिति ने कहा कि विवाह और तलाक समवर्ती सूची के विषय हैं, राज्य द्वारा निर्मित कानून राष्ट्रपति की सहमति मिलने के बाद ही राज्य में लागू किया जा सकेगा।
यह भी कहा गया कि बहुविवाह भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 14,15,21 के तहत इस्लामी महिलाओं को प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
समिति का यह भी कहना था कि बहुविवाह की अनुमति है लेकिन क्या यह एक अनिवार्य प्रथा नहीं है क्योंकि यह इस्लाम की आवश्यक धार्मिक प्रथाओं का हिस्सा नहीं है, इसलिये इस प्रकृति में अधिनियमित कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन नहीं करेगा, लेकिन मुस्लिम स्वीय विधि (शरीयत) अधिनियम 1937 (Muslim Personal (Shariat) Act 1937) द्वारा संरक्षित है।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के अधिनियमन के बाद हिंदुओं, बौद्धों और सिखों के बीच बहुविवाह को समाप्त कर दिया गया।
ईसाइयों के बीच ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 (Christian Marriage Act, 1872) द्वारा और पारसियों के बीच पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 (Parsi Marriage and Divorce Act, 1936) द्वारा बहुविवाह पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, हालाँकि, मुस्लिम स्वीय विधि (शरीयत) अधिनियम 1937 द्वारा संरक्षण के कारण मुसलमानों द्वारा बहुविवाह का चलन जारी है।
समिति ने टिप्पणी की कि उच्चतम न्यायालय ने बार-बार विधायिका को समान नागरिक संहिता (UCC) की वांछनीयता पर ज़ोर देते हुए भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत राज्य नीति के निदेशक तत्वों (DPSP) पर कार्य करने का सुझाव दिया है।
बहुविवाह (Polygamy)
“बहुविवाह एक ही समय में एक से अधिक व्यक्तियों से विवाह करने का तथ्य या प्रथा है। “
इस्लामी कानून या निकाह के तहत विवाह, एक संस्कार नहीं है (जैसा कि हिंदू धर्म में है), बल्कि एक पुरुष और महिला के बीच पति और पत्नी के रूप में रहने के लिये एक नागरिक अनुबंध है।
मुस्लिम विवाह दोनों पक्षों द्वारा अपनी स्वतंत्र इच्छा से किया जाता है क्योंकि विवाह उपरांत यह अनुबंध का रूप ले लेता है क्योंकि पक्षों के बीच एक प्रस्ताव (इज़ाब) और स्वीकृति (कुबूल) होता है।
शरीयत कानून (Shariat Law)
भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के अनुसार, 1860 द्विविवाह एक दाण्डिक अपराध है जबकि शरीयत अधिनियम की धारा 2 मुसलमानों को बहुविवाह करने की अनुमति देती है।
ऑल-इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा व्याख्या किये गए 1937 के मुस्लिम स्वीय विधि एप्लीकेशन एक्ट (शरीयत) की शर्तों के अधीन हैं।
मुस्लिम महिलाओं को बहुविवाह करने की अनुमति नहीं है जो विशेष रूप से धर्म और लिंग पर आधारित विवेकाधीन और गैर-तर्कसंगत आदेश है।
धारा 2. मुसलमानों को स्वीय विधि का लागू होना- निर्वसीयती उत्तराधिकार स्त्रियों की विशेष सम्पत्ति, जिसमें विरासत में मिली या संविदा या दान स्वीय विधि के किसी अन्य उपबंध के अधीन प्राप्त हुई स्वीय संपत्ति आती है, विवाह, विवाह-विघटन, जिसमें तलाक, इला, जिहार, लियान, खुला तथा मुबारात आते हैं, भरणपोषण, मेहर, संरक्षकता, दाने, न्यास तथा न्याय-संपत्ति और वक्फ (जो पूर्त तथा पूर्त संस्थाओं तथा पूर्त धार्मिक विन्यासों से भिन्न हो) से संबंधित (कृषि भूमि से से संबद्ध प्रश्नों के सिवाय) सभी प्रश्नों में तत्प्रतिकूल किसी रूढ़ि या प्रथा के होते हुए भी, ऐसे मामलों में जहाँ पक्षकार मुसलमान है वहाँ विनिश्चय का नियम मुस्लिम स्वीय विधि (शरीयत) होगा।
भारत का संविधान, 1950
अनुच्छेद 14 दो सिद्धांतों का मिश्रण है, विधि के समक्ष समाता और विधि का समान संरक्षण।
अनुच्छेद 14 - विधि के समक्ष समाता - राज्य भारत के क्षेत्र के भीतर किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समाता या विधिके समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
अनुच्छेद 15(1) में उल्लेख है कि राज्य द्वारा लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा और इसका उल्लेख इस प्रकार है:
अनुच्छेद 15 - धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध - (1) राज्य किसी भी नागरिक के खिलाफ केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
अनुच्छेद 25 धार्मिक आस्था की रक्षा करता है न कि ऐसी प्रथा की जो सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य या नैतिकता के विपरीत हो सकती है।
अनुच्छेद 25 - अंतःकरण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता -
अंतःकरण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता
(1) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।
(2) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो-
(क) धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बन्धन करती है;
(ख) सामाजिक कल्याण और सुधार के लिये या सार्वजनिक प्रकार की हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिंदुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिये खोलने का उपबंध करती है।
स्पष्टीकरण 1-कृपाण धारण करना और लेकर चलना सिक्ख धर्म के मानने का अंग समझा जाएगा ।
स्पष्टीकरण 2-खंड (2) के उपखंड (ख) में हिंदुओं के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उसके अंतर्गत सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश है और हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तद्नुसार लगाया जाएगा।
DPSP के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि "राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा"। UCC का लक्ष्य सभी नागरिकों के लिये एक समान कानूनी ढाँचा स्थापित करना है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो।
समवर्ती सूची - सूची-III (सातवीं अनुसूची) कुल 52 मदों की एक सूची है। इसमें केंद्र और राज्य सरकार दोनों द्वारा कानून निर्माण की शक्ति शामिल है।
उन निर्णयज विधि (case laws) की सूची, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने UCC के महत्त्व पर ज़ोर दिया
मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985)
उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अंतर्गतगुजारा भत्ता पाने के अधिकार के संबंध में एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के पक्ष में निर्णय दिया था । इसके अलावा, इसने सिफारिश की कि एक UCCस्थापित किया जाए।
सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (1995)
इसमें प्रश्न यह था कि क्या कोई हिंदू पति इस्लाम अपनाकर हिंदू विधि के तहत विवाह कर सकता है, क्या वह दूसरा विवाह कर सकता है? उच्चतम न्यायालय ने माना कि धर्म परिवर्तन किसी व्यक्ति को कानून के प्रावधानों को तोड़ने और द्विविवाह करने की अनुमति नहीं देता है।
टिप्पणी:
हाल ही में, भारत के 22 वें विधि आयोग ने UCC के संबंध में आम जनता के साथ-साथ मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों की राय और सुझाव लेने का विकल्प चुना है।
भारतीय विधि आयोग (2018): इसने कहा कि UCC इस स्तर पर न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है, क्योंकि यह राष्ट्र की सद्भावना के लिये अनुत्पादक होगा।
इसने यह भी सुझाव दिया कि स्वीय विधियों में सुधार संशोधन द्वारा किया जाना चाहिये न कि प्रतिस्थापन द्वारा।