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सांविधानिक विधि
अनुसूचित जाति कोटे के अंतर्गत बैंक कर्मचारी
« »29-Aug-2024
के. निर्मला एवं अन्य बनाम केनरा बैंक एवं अन्य “न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुसूचित जाति कोटे के अंतर्गत नियुक्त बैंक कर्मचारी अपनी जाति के अनुसूचित सूची हटाए जाने के बावजूद अपने पद पर बने रह सकते हैं।” न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति संदीप मेहता |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने केनरा बैंक द्वारा अनुसूचित जाति (SC) कोटे के तहत वैध जाति प्रमाण-पत्रों के आधार पर नियुक्त कर्मचारियों को जारी किये गए कारण बताओ नोटिस को अस्वीकार कर दिया। ये नोटिस वर्ष 1977 के सरकारी परिपत्र के बाद जारी किये गए थे, जिसमें 'कोटेगारा' समुदाय को अनुसूचित जाति (SC) के समान माना गया था, जिसे बाद में महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद, 2000 में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के उपरांत अमान्य माना गया था।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केवल राष्ट्रपति ही भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 341 और 342 के अंतर्गत अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति सूचियों को संशोधित कर सकते हैं, जिससे राज्य सरकार द्वारा किया गया संशोधन निरर्थक हो जाता है।
- न्यायमूर्ति हिमा कोहली और संदीप मेहता ने के. निर्मला एवं अन्य बनाम केनरा बैंक एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।
के. निर्मला एवं अन्य बनाम केनरा बैंक एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता कर्नाटक में विभिन्न बैंकों और सरकारी उपक्रमों में अनुसूचित जाति (SC) के लिये आरक्षित पदों पर कार्यरत थे।
- अपीलकर्त्ताओं ने अनुसूचित जाति का जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त किया, जिससे प्रामाणित हुआ कि वे 'कोटेगारा' समुदाय से हैं, जिसे कर्नाटक सरकार के परिपत्रों द्वारा अनुसूचित जाति के अंतर्गत माना गया था।
- उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने 2001 में निर्णय दिया था कि राज्य सरकारों को अनुसूचित जातियों की सूची में संशोधन या परिवर्तन करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि ऐसा परिवर्तन करने की शक्ति संसद हेतु आरक्षित है।
- इस निर्णय के उपरांत वित्त मंत्रालय ने कर्नाटक सरकार के उस परिपत्र को अवैध घोषित कर दिया, जिसमें 'कोटेगारा' को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया गया था।
- इसके उपरांत कर्नाटक सरकार ने वर्ष 2002 और 2003 में परिपत्र जारी कर पूर्व में अमान्य किये गए जाति प्रमाण-पत्रों के आधार पर नौकरी पाने वाले व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान किया तथा उन्हें सामान्य योग्यता श्रेणी के अभ्यर्थी के रूप में स्वीकार किये जाने की अनुमति दी।
- ज़िला जाति सत्यापन समिति द्वारा अपीलकर्त्ताओं के जाति प्रमाण-पत्र रद्द कर दिये गए।
- कुछ अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही प्रारंभ की गई, परंतु बाद में उच्च न्यायालय ने उसे रद्द कर दिया।
- नियोक्ताओं (बैंकों एवं उपक्रमों) ने अपीलकर्त्ताओं को कारण बताओ नोटिस जारी कर पूछा कि उनके जाति प्रमाण-पत्र रद्द करने के आधार पर उनकी सेवाएँ क्यों न समाप्त कर दी जाएँ।
- अपीलकर्त्ताओं ने इन नोटिसों को कर्नाटक उच्च न्यायालय में रिट याचिकाओं के माध्यम से चुनौती दी, जिन्हें एकल न्यायाधीश और खंडपीठ दोनों ने अस्वीकार कर दिया।
- इसके उपरांत अपीलकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय की शरण ली।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि यद्यपि अपीलकर्त्ताओं ने कर्नाटक सरकार के परिपत्रों के आधार पर उचित प्रक्रिया के माध्यम से अपने अनुसूचित जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त किये, परंतु राज्य के पास अनुसूचित जाति की सूची को संशोधित करने का संवैधानिक अधिकार नहीं है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के अंतर्गत केवल संसद ही ऐसा कर सकती है।
- महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद, 2000 के निर्णय के बाद कर्नाटक सरकार ने उन व्यक्तियों के रोजगार की रक्षा के लिये परिपत्र (दिनांक 11 मार्च 2002 और 29 मार्च 2003) जारी किये, जिन्होंने उनकी जाति को अनुसूचित जाति की सूची से हटाये जाने से पूर्व जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लिया था तथा उन्हें भविष्य के प्रयोजनों के लिये सामान्य योग्यता वाले अभ्यर्थियों के रूप में पुनर्वर्गीकृत किया था।
- न्यायालय ने कहा कि वित्त मंत्रालय का 17 अगस्त 2005 का पत्र, जिसमें कर्नाटक के निर्णय की पुष्टि की गई थी तथा बैंक कर्मचारियों को संरक्षण प्रदान किया गया था, 8 जुलाई 2013 को जारी किये गये उस कार्यालय ज्ञापन पर वरीयता रखता है, जो 29 मार्च 2003 के महत्त्वपूर्ण परिपत्र पर विचार किये बिना जारी किया गया था।
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपीलकर्त्ता 29 मार्च, 2003 के परिपत्र और 17 अगस्त, 2005 के वित्त मंत्रालय के पत्र के अंतर्गत अपनी सेवाओं की सुरक्षा के अधिकारी हैं, जिससे उनकी नौकरी समाप्त करने की किसी भी प्रस्तावित कार्यवाही को अस्वीकार कर दिया गया और उच्च न्यायालय की खंडपीठ के विवादित निर्णयों को स्वीकार कर दिया गया।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 341 एवं अनुच्छेद 342 क्या है?
- भारत का संविधान स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं करता कि अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ क्या हैं।
- अनुच्छेद 342 राष्ट्रपति को सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा किसी विशेष राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में अनुसूचित जनजाति मानी जाने वाली जनजातियों या जनजातीय समुदायों को निर्दिष्ट करने की शक्ति प्रदान करता है।
- राज्यों के लिये, राष्ट्रपति को ऐसी अधिसूचना जारी करने से पहले राज्यपाल से परामर्श करना होगा।
- अनुच्छेद 342(1) के अंतर्गत प्रारंभिक राष्ट्रपति अधिसूचना को अनुच्छेद 342(2) के अनुसार केवल संसद के अधिनियम द्वारा संशोधित किया जा सकता है।
- संसद, विधि द्वारा, राष्ट्रपति की अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किसी जनजाति, जनजातीय समुदाय या उसके किसी भाग को अनुसूचित जनजातियों की सूची में सम्मिलित कर सकती है या उससे बाहर कर सकती है।
- एक बार जारी होने के उपरांत, अनुच्छेद 342(1) के अंतर्गत अधिसूचना को संसद के अधिनियम के अतिरिक्त किसी भी बाद की अधिसूचना द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।
- किसी विशेष समूह के अनुसूचित जनजाति होने का निर्धारण अनुच्छेद 342(1) के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा जारी सार्वजनिक अधिसूचना के आधार पर किया जाना चाहिये।
- संविधान के अनुच्छेद 341 के अंतर्गत अनुसूचित जातियों के लिये भी इसी प्रकार के प्रावधान मौजूद हैं।
- अनुच्छेद 342 के अंतर्गत किसी विशेष जनजाति को सम्मिलित करने या बाहर करने से संबंधित किसी भी प्रश्न का समाधान राष्ट्रपति की अधिसूचना के माध्यम से किया जाना चाहिये।
- संविधान में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के हितों की सुरक्षा के लिये विशेष प्रावधान किये गए हैं, यद्यपि इनका उल्लेख इस पाठ में नहीं किया गया है।
- अनुसूचित जनजातियों (या अनुसूचित जातियों) की सूची को संशोधित करने की शक्ति पूरी तरह से संसद में निहित है, जो ऐसे वर्गीकरणों के महत्त्व एवं संवेदनशीलता पर ज़ोर देता है।
अनुच्छेद 341 एवं अनुच्छेद 342 के विधिक प्रावधान क्या हैं?
अनुच्छेद 341:
- अनुच्छेद 341 अनुसूचित जातियों से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि:
- भारत के राष्ट्रपति को सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से यह निर्दिष्ट करने का अधिकार है कि कौन-सी जातियाँ, मूलवंश, जनजातियाँ या उनके भाग किसी विशेष राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में अनुसूचित जातियाँ मानी जाएंगी।
- राज्यों के लिये, राष्ट्रपति को ऐसी अधिसूचना जारी करने से पहले संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श करना आवश्यक है।
- राष्ट्रपति की अधिसूचना में निर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची को संशोधित करने की शक्ति विशेष रूप से भारत की संसद के लिये आरक्षित है।
- संसद विधान बनाकर किसी भी जाति, मूलवंश, जनजाति या उसके किसी भाग को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल कर सकती है या उससे बाहर कर सकती है।
- एक बार अनुच्छेद 341 के खंड (1) के अंतर्गत अधिसूचना जारी कर दी गई है तो उसे खंड (2) में निर्धारित संसद के अधिनियम के अतिरिक्त किसी भी बाद की अधिसूचना द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 342:
- अनुच्छेद 342 अनुसूचित जनजातियों से संबंधित है।
- भारत के राष्ट्रपति को सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से यह निर्दिष्ट करने का अधिकार है कि संवैधानिक प्रयोजनों के लिये किन जनजातियों या जनजातीय समुदायों को अनुसूचित जनजाति माना जाएगा।
- यह राष्ट्रपति शक्ति भारत के किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश पर लागू होती है।
- राज्यों के मामले में, राष्ट्रपति को ऐसी अधिसूचना जारी करने से पहले संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श करना होगा।
- अनुसूचित जनजातियों में संपूर्ण जनजातियाँ/समुदाय अथवा उनके भाग/समूह शामिल हो सकते हैं।
- एक बार अनुच्छेद 342 के खंड (1) के तहत अधिसूचना जारी कर दी जाए तो उसे किसी भी बाद की अधिसूचना द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
- केवल भारत की संसद को, अधिनियमित विधान के माध्यम से, राष्ट्रपति की अधिसूचना में निर्दिष्ट अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल करने या उससे बाहर करने की शक्ति है।
- सूची में संशोधन करने की संसद की शक्ति उस सामान्य नियम का अपवाद है जो मूल अधिसूचना में परिवर्तन पर रोक लगाता है।
- अनुसूचित जनजातियों को नामित करने की संवैधानिक प्रक्रिया में दो चरण शामिल हैं:
- प्रारंभिक विनिर्देशन राष्ट्रपति द्वारा किया जाएगा, तत्पश्चात् संसदीय विधान के माध्यम से ही इसमें संशोधन किया जा सकेगा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 एवं अनुच्छेद 342 पर ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ क्या हैं?
- महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद, (2000):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के अंतर्गत अधिनियम के माध्यम से अनुसूचित जातियों की सूची में संशोधन करने का अधिकार केवल संसद को है, राज्य सरकारों को इन सूचियों को संशोधित करने का अधिकार नहीं है।
- पंजाब राज्य बनाम दलबीर सिंह (2012):
- भारत के उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि संविधान के अनुच्छेद 341(1) के तहत राष्ट्रपति को यह निर्दिष्ट करने का विशेष अधिकार है कि किन जातियों, मूलवंशों या जनजातियों को अनुसूचित जाति माना जाएगा।
- इस निर्णय ने अनुच्छेद 341 के विस्तार एवं व्याख्या को स्पष्ट किया तथा अनुसूचित जाति निर्धारित करने में राष्ट्रपति की भूमिका पर ज़ोर दिया।
- मद्रास राज्य बनाम श्रीमती चंपकम दोराईराजन (1951):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि शैक्षणिक संस्थाओं में केवल जाति के आधार पर सीटें आरक्षित करना संविधान में प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन है।
- इस निर्णय में अनुच्छेद 15(4) की व्याख्या की गई, जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिये विशेष प्रावधान प्रदान करता है तथा जाति-आधारित आरक्षण की सीमाओं के लिये एक उदाहरण स्थापित किया गया।
- इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992):
- इस ऐतिहासिक मामले में, जिसे मंडल आयोग मामले के रूप में भी जाना जाता है, उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण नीतियों की संवैधानिक वैधता को यथावत् रखा।
- हालाँकि न्यायालय ने आरक्षण पर 50% की सीमा लगा दी और उनके कार्यान्वयन के लिये दिशा-निर्देश स्थापित किये, जिससे भारत की सकारात्मक कार्यवाही नीतियों को महत्त्वपूर्ण रूप से आकार मिला।
- वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2004):
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुसूचित जातियों को उपसमूहों में वर्गीकृत करना राष्ट्रपति सूची में 'छेड़छाड़' नहीं है और यह संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 341 और 342 के अंतर्गत, हालाँकि राष्ट्रपति को अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों को निर्दिष्ट करने की शक्ति है, परंतु इन सूचियों में कोई भी संशोधन केवल संसद द्वारा बनाये गए विधान के माध्यम से ही किया जा सकता है।
- यह निर्णय अनुसूचित जाति सूचियों के वर्गीकरण और संशोधन के संबंध में संवैधानिक प्रावधानों पर प्रकाश डालता है।