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आपराधिक कानून

CrPC की धारा 437 का लाभ

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 14-Oct-2024

कनिका ढींगरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं उससे संबंधित मामले

"जो स्वयं शक्तिशाली हैं या ऐसे शक्तिशाली व्यक्तियों से जुड़े हैं, तथा अपराध की प्रकृति ऐसी है कि यह बड़े पैमाने पर जनता को प्रभावित करती  है।"

न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कनिका ढींगरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं इससे संबंधित मामलों में माना है कि यदि अपराध व्यापक रूप से जनता को प्रभावित करने वाला आर्थिक अपराध है तथा प्रभावशाली पद पर आसीन महिला को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 437 का लाभ नहीं दिया जा सकता है, तो न्यायालय ज़मानत देने से मना कर सकता है।

कनिका ढींगरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं इससे संबंधित मामलों की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • कथित धोखाधड़ी वाले वस्तु एवं सेवा कर (GST)पंजीकरण और इनपुट टैक्स क्रेडिट दावों से संबंधित तीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गईं।
  • आरोपियों पर आरोप है कि उन्होंने एक सिंडिकेट बनाया जो GST पोर्टल पर सूचना अपलोड करके फर्जी फर्म बनाने के लिये सिम कार्ड एवं व्यक्तिगत डेटा एकत्र करता था।
  • कथित तौर पर लगभग 2,600 फर्जी फर्म पंजीकृत की गईं, जिनमें 4,000 करोड़ रुपये से अधिक के इनपुट टैक्स क्रेडिट दावे शामिल थे।
  • मुख्य आरोपियों में संजय ढींगरा, उनकी पत्नी कनिका ढींगरा एवं उनका बेटा मयंक ढींगरा शामिल हैं।
  • संजय ढींगरा पर मेसर्स गुड हेल्थ प्राइवेट लिमिटेड का मुख्य नियंत्रक होने का आरोप है, जो कथित तौर पर घोटाले में शामिल था।
  • यह आरोप लगाया गया था कि दो फर्म, YOYO ट्रेडर्स एवं योयो ट्रेडर्स, अस्तित्वहीन पाए गए तथा कथित तौर पर मेसर्स गुड हेल्थ इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड से संबद्ध थे।
  • इन फर्जी फर्मों को पंजीकृत करने में प्रयोग किये गए मोबाइल फोन का पता आरोपियों में से एक दीपक मुरजानी से लगाया गया।
  • आवेदक कनिका ढींगरा एवं मयंक ढींगरा पर षड़यंत्र में शामिल होने तथा धोखाधड़ी वाले लेनदेन से लाभ उठाने का आरोप है।
  • जाँच में कनिका ढींगरा एवं मयंक ढींगरा के खातों में कई लेनदेन का पता चला, जिनकी कुल राशि लगभग 300 करोड़ रुपये थी।
  • आरोपियों पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420 (धोखाधड़ी), 467, 468, 471 एवं IPC की धारा 120 B (आपराधिक षड़यंत्र) के अधीन आरोप लगाए गए हैं।
  • अभियोजन पक्ष का तर्क है कि आवेदक फर्जी GST पंजीकरण एवं फर्जी इनपुट टैक्स क्रेडिट दावों के माध्यम से सरकार को धोखा देने की एक बड़ी साजिश का हिस्सा थे।
  • बचाव पक्ष का तर्क है कि आवेदकों को बिना किसी विश्वसनीय साक्ष्य के झूठा फंसाया गया है तथा केवल पैसे के लेन-देन से कथित अपराधों में उनकी संलिप्तता सिद्ध नहीं होती है।
  • आवेदकों द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष उपर्युक्त आरोपों के आधार पर तीन ज़मानत आवेदन दायर किये गए थे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि:
    • आर्थिक अपराधों के मामलों में ज़मानत से मना किया जा सकता है जो समाज के आर्थिक परिदृश्य को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं, विशेषकर अगर आरोपी प्रभावशाली या शक्तिशाली हो।
    • CrPC की धारा 437 का लाभ, जो आम तौर पर गैर-ज़मानती अपराधों में महिलाओं को ज़मानत देने की अनुमति देता है, उन महिलाओं को नहीं दिया जा सकता जो शक्तिशाली हैं या शक्तिशाली व्यक्तियों से जुड़ी हैं, विशेषकर जब अपराध बड़े पैमाने पर जनता को प्रभावित करता है।
    • इस मामले में करोड़ों रुपए की हेराफेरी की गई, जिसका समाज पर बहुत बड़ा असर पड़ा। इसकी शुरुआत ऐसे नागरिकों के आधार और पैन कार्ड का प्रयोग करके फर्जी फर्मों के पंजीकरण से हुई, जिन्होंने ऐसे पंजीकरण के लिये आवेदन ही नहीं किया था।
    • अगर रिश्तेदार (इस मामले में मां एवं बेटा) जानबूझ कर पैसे या लेन-देन से लाभ उठाते हैं, भले ही वे सीधे अपराध में शामिल न हों, तो उनके विरुद्ध विधिक कार्यवाही की जा सकती है क्योंकि उनके विरुद्ध अपराध गठित होता है।
  • न्यायालय ने केस डायरी में ऐसे साक्ष्य भी पाए, जिनसे पता चलता है कि मां एवं बेटे ने अवैध धन द्वारा व्यक्तिगत रूप से लाभ कमाया। इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि यह नहीं कहा जा सकता कि वे केवल इसलिये दोषी नहीं थे, क्योंकि वे सीधे तौर पर फर्जी फर्मों के पंजीकरण में शामिल नहीं थे।
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि मनी लॉन्ड्रिंग एक आम घटना बन गई है। यदि इस तथ्य के साक्ष्य हैं कि प्राप्तकर्ता ने धन के स्रोत को छिपाने का प्रयास किया या जानबूझकर दोषपूर्ण कृत्य करने के तरीकों से धन हस्तांतरित करने में भाग लिया, तो यह आपराधिक गतिविधि में शामिल होने का परिस्थितिजन्य साक्ष्य बनाता है।
  • न्यायालय ने पाया कि जमा के बाद आवेदकों की संलिप्तता, ज्ञान एवं कार्यवाहियों से संकेत मिलता है कि वे धोखाधड़ी के साधनों का उपयोग करके पंजीकृत GST फर्मों के साथ लेनदेन के संबंध में संजय ढींगरा के साथ अच्छी तरह से जुड़े हुए थे।
  • न्यायालय ने कहा कि फर्जी GST फर्मों के साथ लेनदेन करने वाले सभी आरोपियों का आशय धोखाधड़ी से इनपुट टैक्स क्रेडिट का दावा करना था।
  • न्यायालय ने पाया कि प्रथम दृष्टया आरोपियों के विरुद्ध संबंधित धाराओं के अधीन अपराध गठित होते हैं तथा FIR दर्ज होने के बाद जाँच अधिकारी द्वारा पर्याप्त जाँच की गई है।
  • इन टिप्पणियों के मद्देनजर, न्यायालय ने कथित आर्थिक अपराधों की गंभीरता एवं षड़यंत्र में उनकी संलिप्तता का संकेत देने वाले साक्ष्यों पर विचार करते हुए आवेदकों को ज़मानत देने से मना कर दिया।

ज़मानत के संबंध में विधिक प्रावधान क्या हैं?

ज़मानत की अवधारणा:

  • ज़मानत, CrPC और अब BNSS के अंतर्गत एक विधिक प्रावधान है जो प्रतिभू जमा करने पर लंबित मुकदमे या अपील के दौरान जेल से रिहाई की सुविधा प्रदान करता है।
  • CrPC की धारा 436 के अनुसार ज़मानती अपराध ज़मानत के अधिकार की गारंटी देते हैं (यह धारा अब BNSS की धारा 478 के अंतर्गत आती है), जबकि गैर-ज़मानती अपराध न्यायालयों या नामित पुलिस अधिकारियों को विवेकाधिकार प्रदान करते हैं, जैसा कि धारा 437 में उल्लिखित है।
  • राजस्थान राज्य बनाम बालचंद (1977) के मामले में न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्ण अय्यर ने माना कि मूल नियम ज़मानत है, जेल नहीं। यह एक अवधारणा को संदर्भित करता है जो है 'ज़मानत एक अधिकार है तथा जेल एक अपवाद है"।

BNSS की धारा 480(1):

  • यह धारा गैर-ज़मानती अपराध के मामले में ज़मानत कब ली जा सकती है, इससे संबंधित प्रावधानों को उल्लिखित करती है।
  • धारा (1) में प्रावधानित किया गया है कि यदि किसी व्यक्ति पर किसी गैर-ज़मानती अपराध का आरोप है तथा उसे बिना वारंट के गिरफ्तार या अभिरक्षा में लिया गया है, तो उसे ज़मानत पर रिहा किया जा सकता है, सिवाय इसके कि:
    • खंड (1) में कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति को रिहा नहीं किया जाएगा यदि विचाराधीन कैदी को अधिकतम अवधि तक अभिरक्षा में रखने के लिये उचित आधार परिलक्षित होते हैं। गैर-ज़मानती अपराध के मामले में ज़मानत कब ली जा सकती है। यह मानते हुए कि वह मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध का दोषी है।
    • खंड (2) में कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति को इस प्रकार रिहा नहीं किया जाएगा यदि ऐसा अपराध एक संज्ञेय अपराध है तथा उसे पहले मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दण्डनीय अपराध के लिये दोषी ठहराया जा चुका है, या उसे पहले दो या अधिक अवसरों पर तीन वर्ष या उससे अधिक लेकिन सात वर्ष से कम के कारावास से दण्डनीय संज्ञेय अपराध के लिये दोषी ठहराया जा चुका है।
    • यह प्रावधान है कि उपरोक्त धाराओं के अधीन अभिरक्षा में लिये गए व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा किया जा सकता है, यदि वह व्यक्ति बच्चा, महिला या बीमार या अशक्त है।
    • इसके अतिरिक्त, धारा (ii) के अंतर्गत व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा किया जा सकता है, यदि न्यायालय ऐसा करना उचित एवं विधिसंगत समझे।
    • यह भी प्रावधान है कि केवल यह तथ्य कि किसी अभियुक्त व्यक्ति को जाँच के दौरान साक्षियों द्वारा पहचाने जाने या प्रथम पंद्रह दिन से अधिक समय तक पुलिस अभिरक्षा में रखने की आवश्यकता हो सकती है, ज़मानत देने से मना करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं होगा, यदि वह अन्यथा ज़मानत पर रिहा होने का अधिकारी है तथा यह वचन देता है कि वह न्यायालय द्वारा दिये गए निर्देशों का पालन करेगा।
    • यह भी उपबंध है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा किया गया कथित अपराध मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दण्डनीय है तो उसे इस उपधारा के अधीन न्यायालय द्वारा लोक अभियोजक को सुनवाई का अवसर दिये बिना ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।