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सांविधानिक विधि
जाति आधारित मंदिर प्रशासन धार्मिक प्रथा नहीं है
« »05-Mar-2025
सी. गणेशन बनाम आयुक्त “जब कोई धार्मिक संप्रदाय या धर्म की अनिवार्य प्रथा सम्मिलित नहीं होती है, तो संरक्षण का विस्तार नहीं होता है।” न्यायमूर्ति भरत चक्रवर्ती |
स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति भरत चक्रवर्ती ने निर्णीत किया है कि कोई भी जाति मंदिर के स्वामित्व का दावा नहीं कर सकती, क्योंकि मंदिर प्रशासन अनुच्छेद 25 और 26 के अधीन संरक्षित धार्मिक प्रथा नहीं है।
- मद्रास उच्च न्यायालय ने सी. गणेशन बनाम आयुक्त (2025) के मामले में यह निर्णय सुनाया।
सी. गणेशन बनाम आयुक्त मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- सी. गणेशन ने हिंदू धार्मिक और पूर्त बंदोबस्ती प्रशासन विभाग (Charitable Endowments Administration Department) के आयुक्त और सहायक आयुक्त के विरुद्ध एक रिट याचिका दायर की।
- याचिका प्रशासनिक रूप से संयुक्त मंदिरों के एक समूह से संबंधित थी, जिसमें अरुलमिघु मरिअम्मन, अंगलम्मन, पेरुमल और पोंकलीअम्मन मंदिर सम्मिलित थे।
- मुख्य विवाद इन मंदिरों की प्रशासनिक संरचना थी, विशेष रूप से अरुलमिघु पोंकलीअम्मन मंदिर पर ध्यान केंद्रित था।
- याचिकाकर्त्ता ने दावा किया कि पोंकालीअम्मन मंदिर का पोषण और प्रशासन विशेष रूप से एक विशिष्ट जाति के सदस्यों द्वारा किया जाता था।
- इसके विपरीत, समूह के अन्य मंदिरों में विभिन्न जातियों के लोगों की प्रशासनिक भागीदारी सम्मिलित थी।
- गणेशन ने पोंकालीअम्मन मंदिर को प्रशासनिक समूह से पृथक् करने के लिये न्यायिक निदेश की मांग की।
- अनुरोध मूलतः जाति-विशिष्ट प्रशासनिक पृथक्करण पर आधारित था।
- याचिका का उद्देश्य मंदिर के लिये जाति-विशिष्ट प्रशासनिक तंत्र स्थापित करना था।
- विधिक आवेदन ने धार्मिक संस्थानों के मौजूदा प्रशासनिक ढाँचे को चुनौती दी।
- मूलभूत उद्देश्य जाति-आधारित प्रशासनिक भेदभाव को बनाए रखना प्रतीत होता है।
- याचिका द्वारा समानता और गैर-भेदभाव के सांविधानिक सिद्धांतों को सीधे चुनौती दी गई थी।
- प्रस्तावित प्रशासनिक पृथक्करण ने संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के अधीन प्रत्याभूत (guaranteed) मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने दृढ़तापूर्वक कहा कि भारत के संविधान के अधीन जाति को धार्मिक संप्रदाय नहीं माना जा सकता।
- न्यायमूर्ति भरत चक्रवर्ती ने कहा कि जाति पहचान के आधार पर मंदिर प्रशासन संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के अधीन संरक्षित धार्मिक प्रथा नहीं है।
- न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि एक सार्वजनिक मंदिर सभी भक्तों के लिये सुलभ, प्रबंधनीय और प्रशासनिक होना चाहिये, चाहे उनकी जाति कुछ भी हो।
- न्यायिक अवलोकन में कहा गया है कि धार्मिक प्रथाओं की आड़ में जातिगत भेदभाव को छिपाने का प्रयास मूलतः असांविधानिक है।
- न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के पूर्व निर्णयों, विशेष रूप से काशी विश्वनाथ मंदिर मामले का संदर्भ देते हुए इस सिद्धांत को पुष्ट किया कि जाति धार्मिक संस्थागत प्रबंधन का आधार नहीं हो सकती।
- अवलोकन में आलोचनात्मक रूप से उल्लेख किया गया कि आस्तिक अक्सर धार्मिक संप्रदायों की सुरक्षा का दुरुपयोग करके जातिगत घृणा को बनाए रखने की कोशिश करते हैं, मंदिरों को विभाजनकारी सामाजिक प्रवृत्तियों के प्रजनन स्थल के रूप में देखते हैं।
- न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि सांविधानिक लक्ष्य जातिविहीन समाज का निर्माण करना है, और जातिगत विभाजन को बनाए रखने वाली कोई भी प्रथा भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।
धर्म के अधिकार से संबंधित सांविधानिक प्रावधान क्या हैं?
- अनुच्छेद 25, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन, अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने के अधिकार की गारंटी देता है।
- यह मौलिक अधिकार नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों के लिये उपलब्ध है, जिसमें धार्मिक विश्वासों और धार्मिक प्रथाओं दोनों सम्मिलित है।
- यह अनुच्छेद राज्य को धार्मिक प्रथाओं से जुड़ी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या पंथनिरपेक्ष गतिविधियों को विनियमित करने वाली विधि को निर्मित करने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 26 धार्मिक संप्रदायों को धार्मिक और पूर्त प्रयोजनों के लिये संस्थानों की स्थापना और पोषण, अपने धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने और संपत्ति का स्वामित्व और प्रशासन करने का अधिकार प्रदान करता है।
- धार्मिक संप्रदाय के रूप में मान्यता प्राप्त करने के लिये, एक समूह के पास होना चाहिये:
- आध्यात्मिक कल्याण के लिये अनुकूल विश्वासों की एक प्रणाली।
- एक सामान्य संगठन।
- एक विशिष्ट नाम।
- अनुच्छेद 27 किसी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय को बढ़ावा देने या बनाए रखने के लिये विशेष रूप से करों का संदाय करने के लिये बाध्य करने पर प्रतिबंध लगाता है।
- अनुच्छेद 28 शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा को विनियमित करता है, तथा निम्नलिखित के बीच अंतर करता है:
- राज्य द्वारा संचालित संस्थान (कोई धार्मिक शिक्षा नहीं)।
- विशिष्ट धार्मिक न्यास आवश्यकताओं वाली राज्य-प्रशासित संस्थाएँ।
- स्वैच्छिक धार्मिक शिक्षा को मान्यता देने वाली संस्थाएँ।
- ये सांविधानिक प्रावधान सामूहिक रूप से धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हैं, जबकि भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को बनाए रखते हैं, व्यक्तिगत धार्मिक अधिकारों को व्यापक सामाजिक सद्भाव और लोकहित के साथ संतुलित करते हैं।