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सिनेमैटोग्राफ विधेयक राज्यसभा में पारित
« »28-Jul-2023
चर्चा में क्यों हैं?
- हाल ही में, राज्यसभा ने सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952 में संशोधन के उद्देश्य से सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) विधेयक, 2023 पारित किया है।
- इसे राज्यसभा में 20 जुलाई, 2023 को पेश किया गया था और अब इसे लोकसभा में भेजा जाएगा।
पृष्ठभूमि
- सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) विधेयक, 2019 को 12 फरवरी, 2019 को राज्यसभा में पेश किया गया था, जिसमें केवल फिल्म पाइरेसी से संबंधित बदलावों का प्रस्ताव किया गया था।
- इस विधेयक को सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी स्थायी समिति को भेजा गया, जिसने मार्च, 2020 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
- संशोधित सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) विधेयक, 2021 को 18 जून 2021 को जारी किया गया था ।
- वर्ष 2022 में संबंधित उद्योग के हितधारकों के साथ परामर्श के बाद, इस विधेयक को वर्ष 2023 में पेश किया गया था।
कानूनी प्रावधान
विधेयक की विशेषताएँ:
- U/A श्रेणी को आयु के आधार पर निम्नलिखित तीन श्रेणियों से प्रतिस्थापित किया गया है:
- U/A 7+
- U/A 13+
- U/A 16+
- केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) को टेलीविजन और अन्य मीडिया पर फिल्म के प्रदर्शन के लिये एक अलग प्रमाणपत्र के माध्यम से मंज़ूरी देने का अधिकार दिया गया है।
- विधेयक यह भी स्पष्ट करता है कि केंद्र सरकार के पास सीबीएफसी प्रमाणपत्रों के संबंध में कोई पुनरीक्षण शक्ति नहीं होगी।
- "अनधिकृत रिकॉर्डिंग पर प्रतिबंध" और "फिल्मों के अनधिकृत प्रदर्शन पर प्रतिबंध" के संबंध में दो नई धाराएं 6AAऔर 6AB जोड़ी गई हैं ।
- इसमें अनधिकृत रिकॉर्डिंग का "प्रयास करने" और "इस हेतु उकसाने" को भी दंडनीय बनाया गया है।
- उपरोक्त अपराध 3 महीने से लेकर 3 साल तक की कैद और 3 लाख रुपये से लेकर लेखा परीक्षित सकल उत्पादन लागत का 5 प्रतिशत तक जुर्माने से दंडनीय होंगे।
- इसमें फिल्म प्रमाणन की मौजूदा 10 साल की वैधता अवधि को स्थायी वैधता से प्रतिस्थापित किये जाने का प्रस्ताव है ।
- इस विधेयक में भारत संघ बनाम के.एम. शंकरप्पा (2001) मामले में उच्चतम न्यायलय के फैसले के आलोक में केंद्र सरकार की पुनरीक्षण शक्ति को समाप्त कर दिया गया है।
के.एम शंकरप्पा बनाम भारत संघ (1990) मामले में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) द्वारा अनुमोदन के बाद किसी भी फिल्म की समीक्षा किये जाने की शक्ति को रद्द कर दिया था और भारत संघ बनाम के.एम. शंकरप्पा (2001) के मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस फैसले को बरकरार रखा था।