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सांविधानिक विधि
वर्ष 2025 में CJI एवं अन्य सात न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति
« »02-Jan-2025
चर्चा में क्यों?
- वर्ष 2025 में, भारत के उच्चतम न्यायालय में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होंगे, जिसमें वर्ष के दौरान तीन मुख्य न्यायाधीश अध्यक्षता करेंगे तथा सात न्यायाधीश सेवानिवृत्त होंगे। न्यायमूर्ति संजीव खन्ना 13 मई 2026 को मुख्य न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त होंगे, उनके बाद न्यायमूर्ति बी.आर. गवई 23 नवंबर तक पद पर रहेंगे, उसके बाद न्यायमूर्ति सूर्यकांत मुख्य न्यायाधीश होंगे। सेवानिवृत्त होने वालों में न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार, न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय एवं न्यायमूर्ति बी.आर. गवई जैसे उल्लेखनीय नाम शामिल हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि न्यायिक नियुक्तियों एवं कार्यान्वयन के लिये एक महत्त्वपूर्ण वर्ष है।
न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार
- 6 जनवरी 1960 को केरल के पीरमाडु में जन्मे, वे कानूनी उत्तराधिकार वाले पृष्ठभूमि से आते हैं क्योंकि उनके पिता चंगनास्सेरी मजिस्ट्रेट कोर्ट में बेंच क्लर्क के रूप में कार्य करते थे।
- 1986 में केरल बार काउंसिल के साथ एक अधिवक्ता के रूप में नामांकन प्राप्त करने के बाद, उन्होंने मवेलिक्कारा न्यायालयों में सिविल, आपराधिक, सेवा एवं श्रम मामलों में स्वतंत्र रूप से विधिक व्यवसाय प्रारंभ किया।
- 2009 में केरल उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश तथा बाद में 2010 में स्थायी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने से पहले उन्होंने सरकारी अधिवक्ता (1996-2001) और वरिष्ठ सरकारी अधिवक्ता (2006) के रूप में कार्य किया।
- उन्हें केरल उच्च न्यायालय से सीधे उच्चतम न्यायालय में पदोन्नत होने वाले पाँचवे न्यायाधीश होने का गौरव प्राप्त है, जिनका कार्यकाल 2025 में समाप्त होने वाला है।
- उन्होंने केरल राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के कार्यकारी अध्यक्ष, केरल न्यायिक अकादमी के अध्यक्ष तथा केरल राज्य माध्यस्थम एवं सुलह केंद्र के अध्यक्ष सहित कई प्रमुख पदों पर कार्य किया है।
- उनके उल्लेखनीय निर्णयों में POCSO अधिनियम के अनुपालन, चुनावी मुफ्तखोरी का राज्य के वित्त पर प्रभाव और गुरमेल सिंह मामले में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के निर्वचन से संबंधित मामलों पर महत्त्वपूर्ण निर्णय शामिल हैं।
- हाल के निर्णयों (2024) में, उन्होंने किशोर न्याय समय-सीमा और बाल अभिरक्षा मामलों पर महत्त्वपूर्ण निर्णय दिये हैं, जिसमें पर्सनल लॉ के सिद्धांतों पर आधारित बाल कल्याण पर बल दिया गया है।
न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय
- 1 फरवरी, 1960 को जन्मे, उन्होंने 1982 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस लॉ सेंटर से LL.B. की डिग्री प्राप्त की तथा 2004 में गुवाहाटी उच्च न्यायालय द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता नामित किये गए।
- उनका न्यायिक करियर गुवाहाटी उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश (12 अक्टूबर, 2006) से स्थायी न्यायाधीश (15 जुलाई, 2008), फिर केरल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (8 अगस्त, 2018) तथा अंत में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश (23 सितंबर, 2019) के रूप में आगे बढ़ा।
- असम में मध्यस्थता निगरानी समिति के प्रमुख के रूप में, उन्होंने मध्यस्थता प्रशिक्षण के लिये प्रयोग में लायी जाने वाली फिल्म "शाको" (पुल) के निर्माण की देखरेख की, तथा अरुणाचल प्रदेश विधिक सेवाओं का नेतृत्त्व करते हुए, उन्होंने नस्लीय पूर्वाग्रह एवं विधिक सहायता को संदर्भित करने वाली एक लघु फिल्म "अपने अजनबी" का निर्माण किया।
- उन्होंने हाशिए के समुदायों के लिये न्याय तक पहुँच में सुधार के लिये असम राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के कार्यकारी प्रमुख के रूप में अभिनव "रीच आउट एंड रिस्पॉन्ड" कार्यक्रम को लागू किया।
- उन्होंने न्यायिक शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, गुवाहाटी उच्च न्यायालय के अंतर्गत न्यायिक अधिकारियों के लिये प्रशिक्षण कार्यक्रमों का नेतृत्त्व किया तथा भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय न्यायिक शैक्षणिक परिषद के सदस्य के रूप में कार्य किया।
- लगभग एक दशक तक, उन्होंने गुवाहाटी उच्च न्यायालय के समाचार पत्र "आत्मान" के संपादक के रूप में कार्य किया, जिससे विधिक संचार एवं दस्तावेज़ीकरण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का भान हुआ।
CJI संजीव खन्ना
- 14 मई, 1960 को जन्मे, वे एक प्रतिष्ठित विधिक उत्तराधिकार धारण करने वाले वंशावली से आते हैं - उनके पिता न्यायमूर्ति देव राज खन्ना (दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश) थे, तथा वे न्यायमूर्ति हंस राज खन्ना के भतीजे हैं, जिन्हें ऐतिहासिक ADM जबलपुर मामले में उनकी असहमतिपूर्ण राय के लिये जाना जाता है।
- 1983 में दिल्ली बार काउंसिल में नामांकन के बाद, उन्होंने दिल्ली के जिला न्यायालयों एवं उच्च न्यायालय में मध्यस्थता, पर्यावरण विधि तथा प्रत्यक्ष कर अपील में विशेषज्ञता प्राप्त की।
- वह 20 फरवरी, 2006 को दिल्ली उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश बने तथा 18 जनवरी, 2019 को किसी भी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य किये बिना, सीधे उच्चतम न्यायालय में पदोन्नत हुए।
- वरिष्ठता नियम के अनुसार, उनका भारत के 51वें मुख्य न्यायाधीश बनना तय है, जिनका कार्यकाल 13 मई, 2024 को उनकी सेवानिवृत्ति तक लगभग 6 महीने तक रहेगा।
- वह हाल ही में 5 न्यायाधीशों की पीठ के ऐतिहासिक निर्णय (2024) का अंश थे, जिसने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन करने के कारण गुमनाम चुनावी बॉन्ड योजना को सर्वसम्मति से खारिज कर दिया था।
- उन्होंने सूचना के अधिकार से जुड़े महत्त्वपूर्ण मामले (2019) में बहुमत की राय लिखी, जिसने भारत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को RTI के दायरे में ला दिया, जिसमें इस बात पर बल दिया गया कि न्यायिक स्वतंत्रता एवं जवाबदेही एक साथ चलते हैं।
- उन्होंने 7 न्यायाधीशों की पीठ के ऐतिहासिक निर्णय (2023) में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने बिना मुहर वाले मध्यस्थता करार पर विधि को स्पष्ट किया, पूर्व न्यायिक निर्णयों को खारिज कर दिया तथा अवधारित किया कि बिना मुहर लगाए करार गए एक सुधार योग्य दोष है।
- उन्होंने शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन (2023) में महत्त्वपूर्ण संवैधानिक पीठ के निर्णय में योगदान दिया, जिसने अनुच्छेद 142 के अंतर्गत विवाह-विच्छेद के लिये एक वैध आधार के रूप में "अपूरणीय विघटन" की आधारशिला रखी।
- अन्ना मैथ्यूज बनाम भारत के उच्चतम न्यायालय (2023) में, उन्होंने न्यायिक नियुक्तियों में पात्रता एवं उपयुक्तता के मध्य महत्त्वपूर्ण अंतर स्थापित करने में सहायता की, तथा निर्णय दिया कि पात्रता न्यायिक समीक्षा के अधीन है, जबकि उपयुक्तता इसके दायरे से बाहर है।
न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका
- 25 मई, 1960 को जन्मे, वे वर्तमान में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्यरत हैं तथा इससे पहले कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं बॉम्बे उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में पद संभाल चुके हैं।
- बॉम्बे विश्वविद्यालय से B.Sc. एवं LL.M. पूरा करने के बाद, उन्होंने 28 जून, 1983 को एक अधिवक्ता के रूप में नामांकन करके अपना विधिक करियर शुरू किया, आरंभ में ठाणे जिला न्यायालय में अपने पिता के मार्गदर्शन में विधिक व्यवसाय आरंभ किया।
- उनका न्यायिक करियर बॉम्बे उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश (29 अगस्त, 2003) से लेकर स्थायी न्यायाधीश (12 नवंबर, 2005), फिर कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (10 मई, 2019) तथा अंत में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश (31 अगस्त, 2021) के रूप में आगे बढ़ा।
- विनोद कुमार बनाम अमृत पाल मामले (2021) में, उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें स्पष्ट किया गया कि हत्या के मामलों में धारा 300 IPC के "तीसरे" खंड का निर्वचन करने के लिये मृत्यु का कारण बनने का आशय आवश्यक नहीं है।
- वसुधा सेठी बनाम किरण भास्कर (2021) में, उन्होंने बाल अभिरक्षा मामलों के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण न्यायिक निर्णय दिया , जिसमें उन्होंने निर्णय दिया कि एक रिट कोर्ट माता-पिता को अपने बच्चे के साथ भारत छोड़ने के लिये विवश नहीं कर सकता क्योंकि यह उनकी निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा।
- उन्होंने मणिबेन मगनभाई भारिया मामले (2022) में एक ऐतिहासिक निर्णय दिया, जिसमें आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ताओं एवं सहायकों को ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम, 1972 के अंतर्गत ग्रेच्युटी के अधिकारी कर्मचारियों के रूप में मान्यता दी गई।
- नीरज दत्ता बनाम दिल्ली राज्य NCT (2022) में, संविधान पीठ के भाग के रूप में, उन्होंने इस निर्णय में योगदान दिया कि भ्रष्टाचार के मामलों को सिद्ध करने के लिये प्रत्यक्ष साक्ष्य अनिवार्य नहीं है, तथा परिस्थितिजन्य साक्ष्य दोषसिद्धि सिद्ध कर सकते हैं।
- उनकी विशेषज्ञता सिविल, संवैधानिक एवं सेवा मामलों में है, पूरे करियर में उनका जनहित याचिकाओं में महत्त्वपूर्ण भागीदारी है।
- राज कुमार बनाम दिल्ली राज्य NCT (2023) में, उन्होंने साक्षियों की गवाही में विसंगतियों एवं अनुचित परीक्षण प्रक्रियाओं के आधार पर अपीलकर्त्ता को दोषमुक्त करके, अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए निष्पक्ष परीक्षण प्रक्रियाओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया।
न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी
- 10 जून, 1960 को उत्तर गुजरात के पाटन में जन्मी, उन्होंने अपने पिता की स्थानांतरणीय न्यायिक सेवा के कारण विभिन्न स्थानों पर स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद, एमएस विश्वविद्यालय, वडोदरा से बीकॉम-LLB की शिक्षा पूरी की।
- लगभग दस वर्षों तक गुजरात उच्च न्यायालय में सिविल एवं संवैधानिक मामलों में अधिवक्ता के रूप में कार्य करने के बाद, उन्हें 1995 में अहमदाबाद के सिटी सिविल एवं सत्र न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया।
- उनकी नियुक्ति ने एक अनूठा रिकॉर्ड बनाया, जिसे 1996 के लिम्का बुक ऑफ इंडियन रिकॉर्ड्स में दर्ज किया गया, क्योंकि उन्होंने अपने पिता के साथ कार्य किया था, जो उसी न्यायालय में न्यायाधीश थे।
- उन्होंने उच्च न्यायालय में रजिस्ट्रार-सतर्कता, गुजरात सरकार में विधिक सचिव, CBI न्यायालय के न्यायाधीश एवं सीरियल बम विस्फोट मामलों के लिये विशेष न्यायाधीश सहित विभिन्न न्यायिक एवं प्रशासनिक पदों पर कार्य किया है।
- उनका उच्च न्यायालय का कैरियर फरवरी 2011 में गुजरात उच्च न्यायालय में पदोन्नति के साथ आरंभ हुआ, उसके बाद गुजरात उच्च न्यायालय में लौटने से पहले राजस्थान उच्च न्यायालय (जून 2011-फरवरी 2016) में स्थानांतरण हुआ।
- उन्हें 31 अगस्त, 2021 को भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया।
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उनका कार्यकाल 9 जून 2025 तक जारी रहेगा, जब वह सेवानिवृत्त होने वाली हैं।
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया
- दूसरी पीढ़ी की विधिक पृष्ठभूमि से आने के कारण, उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1981 में स्नातक) में अपनी शिक्षा पूरी की, उसके बाद आधुनिक इतिहास में स्नातकोत्तर (1983) एवं विधि की डिग्री (1986) प्राप्त की।
- उनका विधिक व्यवसाय का करियर 1986 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय से आरंभ हुआ तथा वे 2004 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता बने, विशेष रूप से नव निर्मित राज्य उत्तराखंड के प्रथम मुख्य स्थायी अधिवक्ता के रूप में कार्य किया।
- उनका न्यायिक करियर उत्तराखंड उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश (2008) से लेकर गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (2021) तथा अंत में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश (7 मई, 2022) तक आगे बढ़ा।
- उन्होंने हिजाब प्रतिबंध के संबंध में ऐशत शिफा मामले (2023) में एक महत्त्वपूर्ण खंडित निर्णय दिया, जिसमें निर्णय दिया गया कि हिजाब पहनना पसंद एवं अभिव्यक्ति का मामला होना चाहिये, इसे कई रूढ़िवादी परिवारों के लिये शिक्षा के टिकट के रूप में देखा जाना चाहिये।
- राकेश रमन बनाम कविता (2023) में, उन्होंने अवधारित किया कि एक अपूरणीय रूप से विघटित हुआ विवाह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(ia) के अंतर्गत आपसी क्रूरता एवं विवाह-विच्छेद का आधार बनता है।
- वर्ष 2024 के चंदर भान मामले में उनके हालिया निर्णय ने अवधारित किया कि संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 52 न्याय एवं समानता के सिद्धांतों के आधार पर सार्वभौमिक रूप से लागू होती है, यहाँ तक कि उन राज्यों में भी जहाँ अधिनियम लागू नहीं है।
- उन्होंने राज रेड्डी कल्लम (2024) मामले में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया कि न्यायालय शिकायतकर्त्ताओं को केवल आरोपी द्वारा क्षतिपूर्ति दिये जाने के कारण चेक के अनादर के मामलों के निपटान के लिये विवश नहीं कर सकतीं।
- गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य करते हुए, उन्होंने कोविड-19 के दौरान चिकित्सकों की सुरक्षा के लिये अस्पतालों में लगे CCTV कैमरों को पुलिस स्टेशनों से जोड़ने का आदेश दिया (आसिफ इकबाल बनाम असम राज्य, 2021)।
- वीणा वादिनी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान (2023) में, उन्होंने अत्यधिक आवासीय आरक्षण के विरुद्ध निर्णय दिया, जिसमें कहा गया कि निवासियों के लिये 75% आरक्षण संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
न्यायमूर्ति बी.आर. गवई
- 24 नवंबर, 1960 को अमरावती, महाराष्ट्र में जन्मे, वे भारत के 52वें मुख्य न्यायाधीश बनने वाले हैं तथा विशेष रूप से न्यायमूर्ति के.जी. बालाकृष्णन के बाद उच्चतम न्यायालय में नियुक्त होने वाले अनुसूचित जाति समुदाय के पहले न्यायाधीश हैं।
- नागपुर विश्वविद्यालय से बी.ए.एल.एल.बी. पूरा करने के बाद, उन्होंने 1985 में अपना विधिक व्यवसाय आरंभ किया, बॉम्बे उच्च न्यायालय में स्वतंत्र रूप से तथा बाद में मुख्य रूप से इसकी नागपुर पीठ में विधिक व्यवसाय आरंभ की।
- उनका करियर विभिन्न संस्थानों के लिये वर्ष 2003 में बॉम्बे उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत होने और वर्ष 2005 में स्थायी न्यायाधीश बनने से पहले स्थायी अधिवक्ता से लेकर सरकारी अधिवक्ता एवं लोक अभियोजक तक आगे बढ़ा।
- उन्हें 24 मई, 2019 को उच्चतम न्यायालय में पदोन्नत किया गया, जिसका कार्यकाल 23 नवंबर, 2025 तक है।
- उन्होंने महत्त्वपूर्ण विमुद्रीकरण मामले (विवेक नारायण शर्मा बनाम भारत संघ, 2023) में बहुमत में निर्णय दिया, जिसमें 4:1 बहुमत से निर्णय को यथावत रखा तथा विभिन्न आर्थिक कुरीतियों को दूर करने में इसकी भूमिका पर ध्यान दिया।
- ऐतिहासिक अमेज़न. कॉम NV इंवेस्टमेंट होल्डिंग LLC मामले (2022) में, उन्होंने निर्णय दिया कि सिंगापुर अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र द्वारा पारित आपातकालीन पंचाट माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम की धारा 17 के अंतर्गत लागू करने योग्य हैं।
- वह अधिवक्ता प्रशांत भूषण (2020) के विरुद्ध उल्लेखनीय अवमानना मामले को देखने वाली पीठ का भाग थे, जिसमें न्यायिक गरिमा बनाए रखने के महत्त्व पर बल देते हुए प्रतीकात्मक 1 रुपये का अर्थदण्ड लगाया गया था।
- पट्टाली मक्कल काची मामले (2022) में, उन्होंने आरक्षण नीति पर एक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया, पुराने आंकड़ों पर निर्भरता के कारण वन्नियार समुदाय के लिये तमिलनाडु सरकार के 10.5% आरक्षण के विरुद्ध निर्णय दिया।
- उनका न्यायिक दर्शन उनके प्रसिद्ध कथन में प्रतिबिंबित होता है, जिसमें उन्होंने विधिक व्यवसाय में निरंतर सीखने पर बल दिया है: "विधिक व्यवसाय सीखने की एक शाश्वत प्रक्रिया है तथा किसी व्यक्ति को अपने करियर के अंत तक सीखना जारी रखना चाहिये। जिस दिन कोई सीखना बंद करने का निर्णय ले लेता है, वह उसका आखिरी दिन होगा।"