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आपराधिक कानून

परिहार की शर्तें

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 22-Oct-2024

मफाभाई मोतीभाई सागर बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य

“संज्ञेय अपराध का रजिस्ट्रीकरण स्वतः ही छूट रद्द करने का आधार नहीं होता है।”

न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने परिहार प्रदान करते समय लगाई गई शर्तों के संबंध में कानून निर्धारित किया।               

  • उच्चतम न्यायालय ने मफाभाई मोतीभाई सागर बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

मफाभाई मोतीभाई सागर बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 147 और धारा 148 के साथ पठित धारा 302 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था।
  • उसे आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई तथा अपीलकर्त्ता की दोषसिद्धि अंतिम हो गई।
  • गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा कारागार (बॉम्बे फर्लो एवं पैरोल) नियम, 1959 के नियम 19 के अंतर्गत पैरोल प्रदान करने का आदेश पारित किया गया। 
  • वर्तमान अपील उपरोक्त आदेश से उत्पन्न हुई है जिसमें न्यायालय ने प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया था।
  • अपील पर बहस करते समय अपीलकर्त्ता की ओर से दलील दी गई कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 432 (2) के तहत परिहार के आवेदन पर राज्य सरकार द्वारा विचार नहीं किया जा रहा है।
  • गुजरात सरकार के गृह विभाग ने अपीलकर्त्ता को परिहार देने का आदेश पारित किया।
  • 15 सितंबर, 2023 के आदेश द्वारा परिहार प्रदान करते समय चार शर्तें लगाई गईं।
  • विवादित दो शर्तें इस प्रकार हैं:
    • जेल से रिहाई के बाद कैदी को दो वर्ष तक शालीनता से व्यवहार करना होगा।
    • यदि कैदी जेल से रिहा होने के बाद कोई संज्ञेय अपराध करता है या किसी नागरिक या संपत्ति को कोई गंभीर क्षति पहुँचाता है तो उसे पुनः गिरफ्तार कर लिया जाएगा और उसे सज़ा की शेष अवधि जेल में काटनी होगी।
  • अपीलकर्त्ता उपरोक्त दोनों स्थितियों से व्यथित था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इसमें कोई संदेह नहीं है कि समुचित सरकारको शर्तों के अनुपालन के अधीन परिहार देने की शक्ति होती है।
  • कई निर्णयों द्वारा परिहार के संबंध में निर्धारित कानून यह है कि परिहार देने का निर्णय सभी संबंधितों के लिये अच्छी तरह से सूचित, उचित और निष्पक्ष होना चाहिये। (जैसा कि भारत संघ बनाम वी. श्रीहरन (2015) और मोहिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2013) में कहा गया था)।
  • यह सर्वविदित है कि परिहार करने की शक्ति विवेकाधीन होती है। इस शक्ति के प्रयोग के लिये निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिये:
    • जनहित
    • किये गए अपराध की गंभीरता और प्रकृति
    • दोषी का पूर्ववृत्त
  • इसके अलावा, यह भी माना गया कि कोई दोषी अधिकार के तौर पर परिहार की मांग नहीं कर सकता। CrPC की धारा 432 (1) के तहत इस शक्ति का प्रयोग करते समय लगाई गई शर्तों का प्रयोग निष्पक्ष और उचित तरीके से किया जाना चाहिये।
  • लगाई गई शर्तें भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 के अनुरूप होनी चाहिये।
  • शर्त 1 के संबंध में:
    • न्यायालय ने कहा कि ‘शिष्ट’ या ‘शिष्टतापूर्वक’ शब्दों को CrPC या किसी अन्य संबंधित कानून में परिभाषित नहीं किया गया है।
    • चूँकि इस शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, इसलिये हर व्यक्ति या अधिकारी इसकी अलग-अलग व्याख्या कर सकता है। इसलिये, परिहार देते समय ऐसी शर्त बहुत व्यक्तिपरक हो जाती है।
    • न्यायालय ने कहा कि लगाई गई शर्त संदिग्धार्थ या लागू करने में कठिन नहीं होनी चाहिये।
    • इसलिये, इस शर्त को मनमाना माना गया तथा COI के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत माना गया।
  • शर्त 2 के संबंध में:  
    • इस मामले में न्यायालय ने CrPC की धारा 432 (3) का हवाला दिया, जो परिहार रद्द करने की बात करती है।
    • शेख अब्दुल अज़ीज़ बनाम कर्नाटक राज्य (1977) के मामले में न्यायालय ने माना कि धारा 432 (2) के तहत परिहार की किसी भी शर्त के उल्लंघन के प्रावधान के मद्देनज़र सज़ा का स्वत: पुनरुद्धार नहीं होता है।
    • यदि क्षमा प्रदान करने वाला आदेश रद्द या निरस्त कर दिया जाता है तो इससे दोषी की स्वतंत्रता प्रभावित होगी और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किये बिना इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता।
    • न्यायालय ने कहा कि शर्त संख्या 2 की व्याख्या इस तरह नहीं की जा सकती कि इसके उल्लंघन का हर आरोप स्वतः ही परिहार के आदेश को रद्द कर देगा। दोषी के विरुद्ध संज्ञेय अपराध का पंजीकरण, परिहार आदेश को रद्द करने का आधार नहीं है।
    • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि प्रत्येक उल्लंघन के लिये परिहार के आदेश को रद्द नहीं किया जा सकता है और समुचित सरकारको दोषी के विरुद्ध कथित उल्लंघन की प्रकृति पर विचार करना होगा।
    • मामूली उल्लंघन परिहार रद्द करने का आधार नहीं हो सकता और उल्लंघन के आरोपों को साबित करने के लिये कुछ विषय-वस्तु होनी चाहिये। इसलिये, न्यायालय ने माना कि गंभीरता के आधार पर परिहार के आदेश को रद्द करने के संबंध में कार्रवाई की जा सकती है।
  • न्यायालय ने उपरोक्त निष्कर्ष इस प्रकार निकाला:
    • CrPC की धारा 432 (1) या भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 473 (1) के तहत परिहार बिना शर्त या कुछ शर्तों के अधीन दी जा सकती है।
    • परिहार देने या न देने का निर्णय सभी संबंधित पक्षकारों  के लिये सुविचारित, उचित और निष्पक्ष होना चाहिये।
    • एक दोषी व्यक्ति अधिकार के तौर पर परिहार की मांग नहीं कर सकता। हालाँकि, उसे यह दावा करने का अधिकार होता है कि परिहार के लिये उसके मामले पर उचित सरकार द्वारा अपनाए गए कानून और/या लागू नीति के अनुसार विचार किया जाना चाहिये।
    • BNSS की धारा 432 की उपधारा (1) या धारा 473 की उपधारा (1) के तहत शक्ति का प्रयोग करते समय लगाई गई शर्तें उचित होनी चाहिये। यदि लगाई गई शर्तें मनमानी हैं, तो वे शर्तें अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के कारण दोषपूर्ण मानी जाएंगी। ऐसी मनमानी शर्तें संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दोषी के अधिकारों का उल्लंघन कर सकती हैं।
    • परिहार के प्रभाव से दोषी की स्वतंत्रता बहाल होती है और यदि परिहार रद्द कर दी जाती है तो इससे दोषी की स्वतंत्रता प्रभावित होगी और इसलिये प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किये बिना इस कठोर शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये। इसलिये, परिहार रद्द करने/वापस लेने की कार्रवाई करने से पहले दोषी को कारण बताओ नोटिस दिया जाना चाहिये। संबंधित प्राधिकारी को दोषी को जवाब दाखिल करने और सुनवाई का अवसर देना चाहिये।
    • संज्ञेय अपराध का पंजीकरण स्वतः ही परिहार आदेश को रद्द करने का आधार नहीं होता है। उल्लंघन का हर मामला परिहार आदेश को रद्द करने का आधार नहीं बनता। गंभीरता के आधार पर धारा 432 (3) CrPC या BNSS की धारा 473 (3) के तहत कार्रवाई की जा सकती है।

बीएनएसएस की धारा 473 के तहत परिहार क्या है?

  • परिचय: 
    • BNSS की धारा 473, CrPC की धारा 432 के तहत प्रदान की गई व्यवस्था को ही पुनः प्रस्तुत करती है।
    • BNSS की धारा 473 में सज़ा को निलंबित करने या परिहार करने की शक्ति प्रदान की गई है।
  • परिहार किसके द्वारा और कैसे दिया गया (धारा 473 (1)) :
    • समुचित सरकार किसी भी समय परिहार दे सकती है।
    • यह बिना किसी शर्त के या किसी भी शर्त पर दी जा सकती है जिसे सज़ा पाने वाला व्यक्ति स्वीकार करता है।
    • परिहार के माध्यम से समुचित सरकार निम्न कार्य कर सकती है:
      • सज़ा के निष्पादन को निलंबित करना, या 
      • जिस दंड की सजा उसे दी गई है, उसका पूरा या उसका कोई भाग परिहार करना।
  • पीठासीन न्यायाधीश की राय आवश्यक (धारा 473 (2)):
    • परिहार के लिये आवेदन पर विचार करते समय समुचित सरकारउस न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश से अपनी राय देने के लिये कह सकती है जिसने व्यक्ति को दोषी ठहराया है। 
    • राय इस बात पर आधारित होगी कि परिहार के लिये आवेदन स्वीकार किया जाना चाहिये या नहीं। उपरोक्त के साथ निम्नलिखित बातें भी होनी चाहिये:
      • राय के कारण
      • सुनवाई के रिकॉर्ड की प्रमाणित प्रति
  • परिहार के आदेश को रद्द करना (धारा 473 (3)):
    • यदि कोई शर्त जिसके आधार पर सज़ा परिहार या निलंबित की गई है, पूरी नहीं होती है।
    • समुचित सरकार निलंबन या परिहार को रद्द कर सकती है।
    • यदि कोई व्यक्ति फरार है तो उसे बिना वारंट के किसी भी पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तार किया जा सकता है और सज़ा के शेष भाग को भुगतने के लिये रिमांड पर लिया जा सकता है।
  • याचिका प्रस्तुत करने की शर्तें (धारा 473 (5)):
    • समुचित सरकार दंड के निलंबन तथा उन शर्तों के संबंध में निर्देश दे सकती है जिन पर याचिकाएँ प्रस्तुत की जानी चाहिये तथा उन पर कार्रवाई की जानी चाहिये।
    • यदि 18 वर्ष से अधिक आयु के किसी व्यक्ति को कोई सज़ा सुनाई जाती है, तो ऐसी किसी भी याचिका पर सज़ा प्राप्त व्यक्ति या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा तब तक विचार नहीं किया जाएगा, जब तक कि सज़ा प्राप्त व्यक्ति जेल में न हो और
      • जहाँ ऐसी याचिका दण्डित व्यक्ति द्वारा की जाती है, वहाँ इसे जेल के प्रभारी अधिकारी के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है; या 
      • जहाँ ऐसी याचिका किसी अन्य व्यक्ति द्वारा की जाती है, वहाँ इसमें यह घोषणा होती है कि दण्डित व्यक्ति जेल में है।
  • “समुचित सरकार” शब्द का अर्थ (धारा 473 (7)):
    • उन मामलों में जहाँ दंडादेश किसी ऐसे अपराध के लिये है, या उपधारा (6) में निर्दिष्ट आदेश किसी ऐसे विषय से संबंधित किसी कानून के तहत पारित किया गया है, जिस पर संघ की कार्यपालिका शक्ति लागू होती है, केंद्रीय सरकार। 
    • अन्य मामलों में, उस राज्य की सरकार जिसके अंतर्गत अपराधी को दंडादेश दिया गया है या उक्त आदेश पारित किया गया है।

परिहार पर ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

लक्ष्मण नस्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2000)

  • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने परिहार प्रदान करने को नियंत्रित करने वाले कारकों को निर्धारित किया, अर्थात्:
    • क्या अपराध समाज को प्रभावित किये बिना एक व्यक्तिगत अपराध है?
    • क्या भविष्य में अपराध करने की कोई संभावना है?
    • क्या अपराधी ने अपराध करने की अपनी क्षमता खो दी है?
    • क्या इस अपराधी को और अधिक कारावास में रखने का कोई सार्थक उद्देश्य है?
    • दोषी के परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति।

ईपुरु सुधाकर बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2006)

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि परिहार के आदेश की न्यायिक समीक्षा निम्नलिखित आधारों पर उपलब्ध है:
    • विचार न करना;
    • आदेश दुर्भावनापूर्ण है;
    • आदेश बाहरी या पूर्णतः अप्रासंगिक विचारों पर पारित किया गया है;
    • प्रासंगिक विषय-वस्तु को विचार से बाहर रखा गया है;
    • आदेश मनमानी से ग्रस्त है।