अब तक की सबसे बड़ी सेल! पाएँ एक्सक्लूसिव ऑनलाइन कोर्सेज़ पर 60% की भारी छूट। ऑफर केवल 5 से 12 मार्च तक वैध।










होम / करेंट अफेयर्स

आपराधिक कानून

न्यायालयी निर्णय का भूतलक्षी प्रभाव

    «
 03-Mar-2025

कनिष्क सिन्हा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य

"न्यायालय का निर्णय हमेशा भूतलक्षी प्रकृति का होगा जब तक कि निर्णय में स्पष्ट रूप से यह न कहा गया हो कि निर्णय भविष्य में लागू होगा।"

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने विधायी एवं न्यायिक विधि निर्माण के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा है कि उसके निर्णय आम तौर पर भूतलक्षी होते हैं, जब तक कि अन्यथा स्पष्ट रूप से न कहा गया हो।

  • उच्चतम न्यायालय ने कनिष्क सिन्हा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

कनिष्क सिन्हा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में अपीलकर्त्ता पति-पत्नी हैं, जिन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश द्वारा पारित 27 जून 2024 के आदेश के विरुद्ध अपील दायर की थी। 
  • अपीलकर्त्ता कोलकाता के भवानीपुर पुलिस स्टेशन में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के रूप में दर्ज दो अलग-अलग आपराधिक मामलों में आरोपी थे। 
  • पहली FIR (2010 की संख्या 179) 27 अप्रैल 2010 को भारतीय दण्ड संहिता, 1860, (IPC) की धाराओं 120B, 420, 467, 468, 469, 471 के साथ सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, (IT) 2000 की धारा 66A (a)(b)(c) के तहत दर्ज की गई थी। इस मामले में शिकायतकर्त्ता केयूर मजूमदार थे। 
  • दूसरी FIR (2011 की संख्या 298) 08 जून 2011 को मजिस्ट्रेट को की गई शिकायत के बाद दर्ज की गई थी, जिन्होंने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 190 के साथ 156 (3) के तहत इसे दर्ज करने का निर्देश दिया था। 
  • यह FIR, IPC की धारा 466, 469, 471 के साथ 120 बी के तहत दर्ज की गई थी। शिकायतकर्त्ता सुप्रीति बंदोपाध्याय थीं। 
  • दोनों FIR में कूटरचना, प्रवंचना, छल, प्रवंचना, प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने, अवैध रूप से धन निकालने, धमकी, मिथ्याव्यपदेशन और आपराधिक षड्यंत्र से संबंधित अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध समान आरोप थे। 
  • उच्चतम न्यायालय की सुनवाई के समय दोनों मामलों में आरोप पत्र दाखिल किये जा चुके थे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

उच्च न्यायालय 

  • उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं द्वारा दायर आपराधिक पुनरीक्षणों को खारिज कर दिया। 
  • उच्च न्यायालय ने माना कि प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) (धारा 156 (3) शिकायतों के साथ शपथपत्र की आवश्यकता) में उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी निर्देश भविष्यलक्षी होंगे और भूतलक्षी रूप से लागू नहीं होंगे। 
  • उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि ये निर्देश 2010-2011 में अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध दर्ज शिकायतों पर लागू नहीं होंगे, क्योंकि वे 2015 के प्रियंका श्रीवास्तव निर्णय से पहले के हैं।

उच्चतम न्यायालय 

  • उच्चतम न्यायालय ने भूतलक्षी प्रभाव से लागू होने के संबंध में विधायी और न्यायिक घोषणाओं के बीच अंतर को स्पष्ट किया:
    • विधायिका द्वारा बनाए गए विधान सदैव संभावित होते हैं जब तक कि विशेष रूप से अन्यथा न कहा जाए, जबकि संवैधानिक न्यायालयों के निर्णय भूतलक्षी होते हैं जब तक कि विशेष रूप से संभावित न कहा जाए।
  • न्यायालय ने कहा कि किसी निर्णय का भावी क्रियान्वयन सामान्यतः उन व्यक्तियों पर अनावश्यक भार या अनावश्यक कठिनाइयों से बचने के लिये किया जाता है, जिन्होंने प्रासंगिक समय पर लागू विधान के आधार पर सद्भावनापूर्वक कार्य किया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि भावी क्रियान्वयन लंबे समय से सुलझे मामलों को उलझने से भी रोकता है, जिससे व्यापक अन्याय हो सकता है। 
  • प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) के निर्णय के संबंध में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उस निर्णय में प्रयुक्त भाषा ("इस देश में एक चरण आ गया है") स्पष्ट रूप से भावी क्रियान्वयन का संकेत देती है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय का यह कहना सही था कि शिकायतों के साथ शपथपत्र प्रस्तुत करने की आवश्यकता वाला निर्देश भावी क्रियान्वयन पर लागू होगा। 
  • न्यायालय ने आगे कहा कि यदि आरोप अभी तक तय नहीं किये गए हैं, तो अपीलकर्त्ता अपने आरोपमुक्ति के लिये आवेदन करने के लिये स्वतंत्र होंगे, जिस पर विधि के अनुसार विचार किया जाएगा।

इसमें क्या विधिक प्रावधान किये गये हैं?

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156 (3) - यह प्रावधान मामले का मुख्य केंद्र था, जो मजिस्ट्रेट को पुलिस को FIR दर्ज करने और शिकायत की विवेचना करने का निर्देश देने की अनुमति देता है।
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 190 - इसका प्रावधान धारा 156 (3) के साथ किया गया था, क्योंकि मजिस्ट्रेट ने दूसरी FIR दर्ज करने का निर्देश देने के लिये इन धाराओं के अंतर्गत शक्तियों का प्रयोग किया था।
  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धाराएँ 120B, 420, 467, 468, 469, 471 - ये अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध पहली FIR में आरोपित अपराध थे, जो आपराधिक षड्यंत्र, प्रवंचना, कूटरचना और जाली दस्तावेजों का उपयोग करने से संबंधित थे।
  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66A (a)(b)(c)- इसे IPC के प्रावधानों के साथ पहली FIR में शामिल किया गया था।
  • IPC की धारा 466, 469, 471 को 120B के साथ पढ़ा जाए - ये कूटरचना एवं आपराधिक षड्यंत्र से संबंधित अपराध थे।
  • भारत के संविधान का अनुच्छेद 226 - इसका संदर्भ उच्चतम न्यायालय ने प्रियंका श्रीवास्तव के निर्णय से उद्धृत करते हुए दिया था, जिसमें यह प्रावधानित किया गया था कि इस अनुच्छेद के अंतर्गत सांविधिक प्रावधानों को चुनौती दी जा सकती है।
  • प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) पूर्व न्यायिक निर्णय का मामला ने यह आवश्यकता स्थापित की कि धारा 156(3) CrPC के अधीन आवेदन आवेदक द्वारा शपथ पत्र द्वारा समर्थित होना चाहिये।

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) क्या है?

  • परिचय:
    • यह धारा मजिस्ट्रेट को पुलिस को संज्ञेय अपराध की विवेचना करने का निर्देश देने का अधिकार देती है।
  • संज्ञेय अपराध:
    • संज्ञेय अपराधों को CrPC की धारा 2(c) के अधीन परिभाषित किया गया है। ये वे अपराध हैं जिनके लिये पुलिस अधिकारी बिना वारंट के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है। ये अपराध आमतौर पर अधिक गंभीर प्रकृति के होते हैं।
  • शिकायतकर्त्ता द्वारा आवेदन:
    • यदि कोई व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन करता है तथा मजिस्ट्रेट को संतुष्ट कर देता है कि कोई अपराध किया गया है, तो मजिस्ट्रेट पुलिस को मामले की विवेचना करने का आदेश दे सकता है।
  • न्यायिक विवेक:
    • मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर यह अभिनिर्धारित करने का विवेकाधिकार है कि कोई मामला पुलिस विवेचना के योग्य है या नहीं।
  • उद्देश्य:
    • आपराधिक कार्यवाही की शुरूआत आम तौर पर पुलिस के पास प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज होने से शुरू होती है। 
    • हालाँकि, ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जहाँ कोई व्यक्ति, किसी अपराध के होने से व्यथित होकर, उचित एवं निष्पक्ष विवेचना सुनिश्चित करने के लिये न्यायपालिका के हस्तक्षेप की माँग करता है। 
    • धारा 156 (3) तब लागू होती है जब मजिस्ट्रेट, जिसके पास धारा 190 के अधीन अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार है, से शिकायत या विवेचना शुरू करने का निवेदन हेतु आवेदन किया जाता है। 
    • यह प्रावधान मजिस्ट्रेट को पुलिस या किसी अन्य सक्षम प्राधिकारी को मामले की विवेचना करने का निर्देश देने का अधिकार देता है।

BNSS की धारा 175 में प्रावधानित सुरक्षा उपाय क्या हैं?

  • विधि की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये सुरक्षा उपायों के रूप में निम्नलिखित नए परिवर्तन किये गए हैं:
    • सबसे पहले, पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी द्वारा FIR दर्ज करने से मना करने पर पुलिस अधीक्षक को आवेदन करने की आवश्यकता को अनिवार्य बना दिया गया है, तथा धारा 175(3) के अधीन आवेदन करने वाले आवेदक को धारा 175(3) के अधीन मजिस्ट्रेट को आवेदन करते समय एक शपथपत्र द्वारा समर्थित धारा 173(4) के अधीन पुलिस अधीक्षक को किये गए आवेदन की एक प्रति प्रस्तुत करना आवश्यक है।
    • दूसरा, मजिस्ट्रेट को FIR दर्ज करने का निर्देश देने से पहले ऐसी विवेचना करने का अधिकार दिया गया है, जिसे वह आवश्यक समझता है।
    • तीसरा, मजिस्ट्रेट को धारा 175(3) के तहत कोई भी निर्देश जारी करने से पहले FIR दर्ज करने से मना करने के संबंध में पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी की दलीलों पर विचार करना आवश्यक है।
  • यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि BNSS की धारा 175 (3) पिछले कुछ वर्षों में न्यायिक निर्णयों द्वारा निर्धारित विधि का परिणाम है। 
  • प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) के मामले में न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 156 (3) के अधीन मजिस्ट्रेट को आवेदन करने से पहले आवेदक को धारा 154 (1) और 154 (3) के अधीन आवेदन करना होगा।
    • न्यायालय ने आगे कहा कि CrPC की धारा 156(3) के अधीन किये गए आवेदनों को आवेदक द्वारा शपथ पत्र द्वारा समर्थित किया जाना चाहिये। 
    • न्यायालय द्वारा ऐसी आवश्यकता शुरू करने का कारण यह दिया गया कि CrPC की धारा 156(3) के अधीन आवेदन नियमित रूप से किये जा रहे हैं तथा कई मामलों में केवल FIR दर्ज करके अभियुक्तों को परेशान करने के उद्देश्य से किये जा रहे हैं।