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आपराधिक कानून
सिविल लेन-देन से उत्पन्न आपराधिक मामले
« »04-Oct-2024
के. भारती देवी एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य "आपराधिक मामले जो मुख्यतः सिविल प्रकृति के मामले हों, उन्हें तब रद्द कर दिया जाना चाहिये, जब पक्षकार आपस में अपने सभी विवादों को सुलझा लें"। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, के. भारती देवी एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि सिविल प्रकृति के आपराधिक मामलों को तब रद्द कर दिया जाना चाहिये जब पक्षों के बीच विवाद का निपटान हो जाए।
के. भारती देवी एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध बैंक (प्रतिवादी संख्या 2) द्वारा मामला दायर किया गया था।
- बैंक ने तर्क दिया कि अपीलकर्त्ताओं ने एक समूह ऋण लिया तथा उस पर देय ब्याज का भुगतान करने में विफल रहे, जिसके कारण अपीलकर्त्ताओं का समूह खाता गैर-निष्पादित परिसंपत्ति बन गया।
- बैंक द्वारा ऋण राशि की वसूली के लिये ऋण वसूली अधिकरण (DRT) के समक्ष मामला दायर किया गया था।
- बाद में बैंक को पता चला कि DRT के समक्ष मामले के लंबित रहने के दौरान अपीलकर्त्ताओं द्वारा प्रस्तुत किये गए शीर्षक दस्तावेज सत्य नहीं थे।
- बैंक द्वारा केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) के समक्ष भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420, 467, 468, 471, 120-B एवं भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 13 (1) (d) एवं 13 (2) के अधीन अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध शिकायत दर्ज की गई थी।
- शिकायत के आधार पर CBI द्वारा आरोप पत्र दायर किया गया था।
- DRT के समक्ष मामले के लंबित रहने के दौरान अपीलकर्त्ताओं ने विवाद के निपटान के लिये बैंक से 3.8 करोड़ रुपये का प्रस्ताव रखा तथा बैंक ने इसे स्वीकार कर लिया।
- बैंक ने अपीलकर्त्ताओं द्वारा भुगतान की गई राशि के विरुद्ध नो ड्यूज सर्टिफिकेट भी जारी किया।
- इसके आधार पर अपीलकर्त्ताओं ने तेलंगाना उच्च न्यायालय के समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अधीन आवेदन दायर किया तथा CBI द्वारा ट्रायल कोर्ट के समक्ष दायर आरोप-पत्र को रद्द करने की मांग की।
- DRT के समक्ष लंबित मामले का निपटान किया गया क्योंकि पक्षों के बीच समझौता हो गया था।
- हालाँकि, उच्च न्यायालय ने आरोपपत्र को रद्द करने के लिये अपीलकर्त्ताओं के आवेदन को खारिज कर दिया तथा कहा कि धोखाधड़ी, नकली एवं जाली दस्तावेजों का उपयोग समाज के विरुद्ध अपराध है।
- उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ताओं ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान याचिका दायर की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी की कि:
- कुछ अपराध ऐसे होते हैं जो सिविल प्रकृति के होते हैं और सिविल विवाद से उत्पन्न होते हैं। ऐसे अपराधों को समझौता योग्य न होने पर भी समझौता किया जा सकता है।
- आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का निर्णय मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर विचार करते हुए केस-टू-केस आधार पर किया जाता है।
- ऐसे मामले जो आपराधिक प्रकृति के नहीं होते हैं तथा सिविल विवाद से उत्पन्न होते हैं और जहाँ अभियुक्त की दोषसिद्धि दूर की बात है, ऐसे मामलों को जारी रखना अभियुक्त के विरुद्ध दमनकारी होगा तथा न्याय की विफलता का कारण बन सकता है।
- जैसा कि वर्तमान मामले में पक्षों के बीच विवाद पहले ही सुलझ चुका है।
- यह उचित मामला था, जिसमें उच्च न्यायालय को CrPC की धारा 482 के अधीन अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना चाहिये था तथा आपराधिक कार्यवाही को रद्द करना चाहिये था।
- इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने वर्तमान अपील को स्वीकार कर लिया तथा अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया।
के. भारती देवी एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य मामले में संदर्भित ऐतिहासिक निर्णय क्या है?
- ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2012):
- इस मामले में यह देखा गया कि कुछ अपराध जो मुख्य रूप से सिविल प्रकृति के होते हैं, जैसे कि सिविल, व्यापारिक, वाणिज्यिक, वित्तीय, भागीदारी या ऐसे ही अन्य लेन-देन से उत्पन्न हुए हों या विवाह से उत्पन्न हुए अपराध, विशेष रूप से दहेज आदि से संबंधित हों या कोई पारिवारिक विवाद हो, जिसमें मूल रूप से पीड़ित को क्षति पहुँची हो तथा अपराधी एवं पीड़ित ने आपस में सभी विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया हो, उच्च न्यायालय द्वारा आपराधिक कार्यवाही को रद्द करना न्यायोचित होगा, भले ही अपराधों को समझौता योग्य न बनाया गया हो।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 क्या है?
परिचय:
- यह धारा पहले CrPC की धारा 482 के अंतर्गत आती थी।
- BNSS की धारा 528 उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों के संरक्षण से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि इस संहिता का कोई भी प्रावधान उच्च न्यायालय की इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये या अन्यथा न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक आदेश देने की अंतर्निहित शक्तियों को सीमित या प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी।
- यह धारा उच्च न्यायालयों को कोई अंतर्निहित शक्ति प्रदान नहीं करती है, तथा यह केवल इस तथ्य को मान्यता देती है कि उच्च न्यायालयों के पास अंतर्निहित शक्तियाँ हैं।
ऐसे मामले जहाँ उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग नहीं किया जा सकता:
- निम्नलिखित मामलों में उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता:
- किसी संज्ञेय मामले में पुलिस को दी गई FIR के परिणामस्वरूप पुलिस जाँच की कार्यवाही को रद्द करना; किसी संज्ञेय मामले की जाँच करने के पुलिस के सांविधिक अधिकारों में हस्तक्षेप करना।
- किसी जाँच को सिर्फ इसलिये रद्द करना क्योंकि FIR में किसी अपराध का प्रकटन नहीं हुआ है, जबकि जाँच अन्य सामग्रियों के आधार पर की जा सकती है।
- FIR/शिकायत में लगाए गए आरोपों की विश्वसनीयता या वास्तविकता के विषय में पूछताछ करना।
- अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र का प्रयोग केवल अंतिम आदेशों के विरुद्ध किया जा सकता है, अंतरिम आदेशों के विरुद्ध नहीं।
- जाँच के दौरान अभियुक्त की गिरफ्तारी पर रोक लगाने का आदेश देना।
कार्यवाही को रद्द करने की उच्च न्यायालय की शक्तियों पर आधारित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- आनंद कुमार मोहत्ता बनाम राज्य [NCT दिल्ली] (2018):
- इस मामले में न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय को कार्यवाही में हस्तक्षेप करने एवं आरोपपत्र दाखिल होने के बाद भी अभियुक्त के विरुद्ध प्राथमिकी रद्द करने का अधिकार है।
- जिता संजय एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2023):
- केरल उच्च न्यायालय ने वर्तमान मामले में इस बात पर प्रकाश डाला कि यदि कोई आपराधिक कार्यवाही परेशान करने वाली, तुच्छ या किसी गुप्त उद्देश्य से प्रेरित पाई जाती है, तो न्यायालय उसे रद्द कर सकते हैं, भले ही FIR में अपराध के मिथ्या आरोप शामिल हों। न्यायालय ने कहा कि बाहरी उद्देश्यों वाले शिकायतकर्त्ता आवश्यक तत्त्वों को शामिल करने के लिये FIR तैयार कर सकते हैं।
- श्री अनुपम गहोई बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) एवं अन्य (2024):
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक दांपत्य मामले को खारिज कर दिया, जिसमें एक पति ने 2018 में CrPC एवं BNSS के अधीन अपनी पत्नी द्वारा दर्ज की गई FIR को अमान्य करने की मांग की थी।
- मामा शैलेश चंद्र बनाम उत्तराखंड राज्य (2024):
- इस मामले में यह माना गया कि यदि आरोप पत्र दायर कर दिया गया है, तो भी न्यायालय यह जाँच कर सकता है कि क्या कथित अपराध प्रथम दृष्टया FIR, आरोप पत्र एवं अन्य दस्तावेजों के आधार पर सिद्ध होते हैं या नहीं।