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आपराधिक कानून

आपराधिक पुनरीक्षण अधिकारिता

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 06-Sep-2024

सी.एन. शांता कुमार बनाम एम.एस. श्रीनिवास

“CrPC की धारा 401 के अधीन, उच्च न्यायालय पुनरीक्षण अधिकारिता के द्वारा किसी दोषमुक्त किये गए निर्णय को दोषसिद्धि में नहीं परिवर्तित कर सकते।”

न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय एवं न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि उच्च न्यायालय, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 401 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 442) के अधीन अपने पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग करते हुए, दोषमुक्त किये गए निर्णय को दोषसिद्धि में परिवर्तित नहीं कर सकता है। इसके बजाय, यदि उच्च न्यायालय दोषमुक्त किये जाने को दोषपूर्ण पाता है, तो उसे मामले को पुनः मूल्यांकन के लिये अपीलीय न्यायालय में वापस भेजना चाहिये। यह निर्णय एक ऐसे मामले के बाद आया जहाँ उच्च न्यायालय ने चेक अनादर के एक मामले में दोषमुक्त किये जाने के निर्णय को आगे की समीक्षा के लिये वापस भेजे बिना ही पलट दिया था।

  • न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय एवं न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी ने सी.एन. शांता कुमार बनाम एम.एस. श्रीनिवास मामले में यह निर्णय दिया।

सी.एन. शांता कुमार बनाम एम.एस. श्रीनिवास मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • चेक अनादर का आरोप लगाते हुए परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अधीन शिकायत दर्ज की गई।
  • शिकायत के आधार पर ट्रायल कोर्ट ने आरोपी (अपीलकर्त्ता) को दोषी ठहराया।
  • अपील पर, अपीलीय न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को पलट दिया तथा आरोपी को दोषमुक्त कर दिया।
  • शिकायतकर्त्ता (प्रतिवादी) ने दोषमुक्त किये जाने को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने CrPC की धारा 401 (अब BNSS की धारा 442) के अधीन अपने पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग करते हुए अपीलीय न्यायालय के दोषमुक्त करने के निर्णय को पलट दिया तथा आरोपी को दोषी करार दिया।
  • इसके बाद आरोपी ने उच्च न्यायालय के अधिकार को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील की, जिसमें अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करते हुए दोषमुक्त करने के निर्णय को दोषसिद्धि में परिवर्तित किया जा सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय के समक्ष मामला धारा 401(3) CrPC (अब BNSS की धारा 442(3)) की व्याख्या एवं आवेदन पर केंद्रित था, जो आपराधिक मामलों में उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण शक्तियों की परिधि को परिभाषित करता है।
  • न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
  • उच्च न्यायालय, CrPC की धारा 401 (अब BNSS की धारा 442) के अधीन आपराधिक पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग करते हुए, दोषसिद्धि के निर्णय को दोषसिद्धि में नहीं परिवर्तित कर सकता है।
  • BNSS की धारा 442(3) [CrPC की धारा 401(3) के अनुरूप] स्पष्ट रूप से उच्च न्यायालय को अपनी पुनरीक्षण शक्ति का प्रयोग करते हुए दोषसिद्धि के निर्णय को दोषसिद्धि में बदलने से रोकती है।
  • दोषसिद्धि को पलटने एवं दोषसिद्धि का आदेश देने में उच्च न्यायालय द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण अनुचित व असंतुलित माना गया।
  • यदि उच्च न्यायालय को दोषपूर्ण तरीके से दोषमुक्त किये जाने का विश्वास हो जाता, तो उचित कार्यवाही यह होती कि मामले को पुनः मूल्यांकन के लिये अपीलीय न्यायालय को वापस भेज दिया जाता, न कि सीधे दोषसिद्धि का आदेश दिया जाता।
  • उच्च न्यायालय द्वारा सही प्रक्रियागत रास्ता अपनाने में विफलता के कारण उसका निर्णय कानून की दृष्टि से अपुष्ट हो गया।
  • उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि दोषसिद्धि या दोषमुक्त किये जाने के गुण-दोष उसके समक्ष मुद्दा नहीं थे; बल्कि, उसका ध्यान उच्च न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण शक्तियों के उचित प्रयोग पर था।
  • न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय का पुनरीक्षण अधिकारिता सीमित है तथा इसका प्रयोग दण्ड प्रक्रिया संहिता द्वारा प्रदत्त वैधानिक ढाँचे के अंतर्गत ही किया जाना चाहिये।

पुनरीक्षण अधिकारिता (CrPC के अनुसार) क्या है?

  • पुनरीक्षण अधिकारिता एक पर्यवेक्षी शक्ति है जिसका प्रयोग उच्च न्यायालय एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा CrPC की धारा 399 व 401 के अधीन किया जाता है।
  • पुनरीक्षण अधिकारिता का दायरा व्यापक है, जो न्यायालय को किसी भी निष्कर्ष, सज़ा या आदेश की शुद्धता, वैधता या औचित्य तथा अधीनस्थ न्यायालयों में कार्यवाही की नियमितता की जाँच करने की अनुमति देता है।
  • उच्च न्यायालयों एवं सत्र न्यायाधीशों के पास अपने-अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के अंदर अधीनस्थ आपराधिक न्यायालयों पर समवर्ती एवं सह-व्यापक पुनरीक्षण अधिकारिता होता है।
  • धारा 397(3) स्पष्ट रूप से एक न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण अधिकारिता के प्रयोग पर रोक लगाती है, यदि दूसरे न्यायालय ने उसी विषय-वस्तु पर पहले ही इसका प्रयोग कर लिया है।
  • पुनरीक्षण शक्तियाँ सांविधिक सीमाओं के अधीन हैं, जिनमें शामिल हैं:
    a) अंतरिम आदेशों को संशोधित करने पर प्रतिबंध (धारा 397(2))।
    b) एक ही व्यक्ति द्वारा एक से अधिक पुनरीक्षण आवेदन दाखिल करने पर प्रतिबंध (धारा 397(3))।
    c) प्रतिकूल आदेश पारित करने से पहले अभियुक्त या प्रभावित व्यक्ति की अनिवार्य सुनवाई (धारा 401(2))।
    d) दोषमुक्ति को दोषसिद्धि में बदलने पर प्रतिबंध (धारा 401(3))।
    e) पुनरीक्षण कार्यवाही पर रोक जब अपील उपलब्ध थी लेकिन उसका अनुसरण नहीं किया गया (धारा 401(4))।
  • पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग विवेकाधीन है तथा आम तौर पर विधि के प्रश्नों या दोषपूर्ण निष्कर्षों से जुड़े मामलों तक सीमित है।
  • पुनरीक्षण न्यायालयों को आम तौर पर साक्ष्य का पुनर्मूल्यांकन करने का अधिकार नहीं है, सिवाय उन मामलों के जहाँ प्रक्रिया में स्पष्ट दोष या विधि की स्पष्ट त्रुटियाँ हैं जिसके परिणामस्वरूप न्याय का घोर हनन होता है।
  • धारा 401(1) पुनरीक्षण न्यायालयों को अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों की शुद्धता, वैधता या औचित्य सुनिश्चित करने के सीमित उद्देश्य के लिये अपीलीय न्यायालयों (धारा 386 के अधीन) की शक्तियों का प्रयोग करने की अनुमति देती है।
  • धारा 377 के अधीन अपर्याप्त सज़ा के विरुद्ध राज्य अपील के प्रावधान के बावजूद, उच्च न्यायालय अपने पुनरीक्षण अधिकारिता के प्रयोग में सज़ा बढ़ाने की शक्ति रखते हैं।
  • पुनरीक्षण में दोषमुक्त होने के मामले में हस्तक्षेप विशेष परिस्थितियों में स्वीकार्य है, जैसे कि अधिकार क्षेत्र की कमी, साक्ष्य का दोषपूर्ण बहिष्कार, भौतिक साक्ष्य की अनदेखी, या अपराधों का अवैध संयोजन।
  • धारा 397(2) में "अंतरिम आदेश" शब्द की व्याख्या अभियुक्त के पक्ष में उदारतापूर्वक की जानी चाहिये तथा अधिकारों को प्रभावित करने वाले या महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय लेने वाले आदेशों को विशुद्ध रूप से अंतरिम नहीं माना जाता है।
  • पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग न्यायालय द्वारा स्वप्रेरणा से या तीसरे पक्ष के कहने पर किया जा सकता है, क्योंकि सांविधिक शक्ति न्यायालय के पास निहित होती है, चाहे मामले को उसके ध्यान में कोई भी लाए।
  • आपराधिक अपीलों की तरह आपराधिक पुनरीक्षण को भी चूक या अभियोजन की कमी के कारण खारिज नहीं किया जा सकता, जैसा कि निर्णयज विधियों में स्थापित है।
  • इस बात को लेकर न्यायिक राय में विभाजन है कि क्या सत्र न्यायाधीश अपने पुनरीक्षण अधिकारिता के प्रयोग में सज़ा बढ़ा सकते हैं, कुछ उच्च न्यायालय इसकी अनुमति देते हैं तथा अन्य इस प्रथा का विरोध करते हैं।

BNSS की धारा 442 क्या है?

  • BNSS की धारा 442 उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण मामलों को वापस लेने या स्थानांतरित करने की शक्ति से संबंधित है (CrPC की धारा 401 के अधीन।)
  • उच्च न्यायालय के पास कार्यवाही पर विवेकाधीन पुनरीक्षण शक्तियाँ हैं, चाहे वह स्वयं द्वारा आमंत्रित की गई हो या अन्यथा उसके ज्ञान में आई हो।
  • अपने पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग करते हुए, उच्च न्यायालय धारा 427, 430, 431 एवं 432 द्वारा अपील न्यायालय को या धारा 344 द्वारा सत्र न्यायालय को प्रदत्त शक्तियों का उपयोग कर सकता है।
  • जब पुनरीक्षण न्यायालय के न्यायाधीशों की राय समान रूप से विभाजित हो, तो मामले का निपटान धारा 433 में उल्लिखित प्रक्रिया के अनुसार किया जाएगा।
  • इस धारा के अधीन कोई भी आदेश अभियुक्त या अन्य व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से या किसी वकील के माध्यम से सुनवाई का अवसर दिये बिना उसके प्रतिकूल नहीं बनाया जा सकता।
  • उच्च न्यायालय को अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करते समय दोषमुक्ति के निष्कर्ष को दोषसिद्धि में बदलने से स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किया गया है।
  • पुनरीक्षण कार्यवाही उस पक्ष के कहने पर नहीं की जा सकती, जिसके पास अपील करने का अधिकार था, लेकिन उसने इसका प्रयोग नहीं किया।
  • उच्च न्यायालय के पास पुनरीक्षण के लिये आवेदन को अपील की याचिका के रूप में मानने का विवेकाधिकार है, यदि वह संतुष्ट है कि आवेदन इस दोषपूर्ण धारणा के अधीन किया गया था कि कोई अपील नहीं हो सकती है तथा न्याय के हित में ऐसा व्यवहार आवश्यक है।
  • यह प्रावधान उच्च न्यायालय को पक्षकारों द्वारा सद्भावपूर्वक की गई प्रक्रियात्मक चूक को सुधारने की अनुमति देता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि तकनीकी त्रुटियों के कारण मूल न्याय पराजित न हो।
  • धारा पुनरीक्षण अधिकारिता को अपीलीय प्रक्रिया को प्रभावित करने से रोककर आपराधिक न्याय प्रणाली की पदानुक्रमिक संरचना को बनाए रखती है।