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आपराधिक कानून

लड़की को लैंगिक संबंधों में प्रवंचित करना

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 25-Feb-2025

रूपचंद शेंडे बनाम महाराष्ट्र राज्य 

अभियुक्त ने पीड़िता को विवाह का मिथ्या वचन देकर गुमराह किया, उसे शुरू से ही लगा कि उसका आशय सद्भावपूर्ण नहीं था।” 

न्यायमूर्ति उर्मिला जोशी-फाल्के 

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति उर्मिला जोशी-फाल्के ने माना है कि प्रवंचनापूर्ण आशय से किया गया विवाह का मिथ्या वचन, 'तथ्य की मिथ्या उपधारणा' के बराबर है जो सम्मति को प्रभावित करता है, और अभियुक्त के बलात्संग के दण्ड को बरकरार रखा है। 

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने रूपचंद शेंडे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) के मामले में यह धारित किया 

रूपचंद शेंडे बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी 

  • इस मामले में 16 वर्षीय लड़की शामिल है जिसने 11 मई 2019 को भंडारा पुलिस स्टेशन में अभियुक्त रूपचंद शेंडे के विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज कराई थी।  
  • पीड़िता "कोमल फ्रूट सेंटर" में काम करती थी, जबकि अभियुक्त एक फल की दुकान चलाता था और स्टॉक खरीदने के लिये सेंटर पर जाता था, जिससे उनकी जान-पहचान हुई। 
  • जून 2017 में, अभियुक्त ने बार-बार पीड़िता का मोबाइल नंबर मांगा, जो उसने आखिरकार दे दिया, जिससे वे दोनों एक-दूसरे से संवाद करने लगे, किंतु फिर उसकी माँ ने उसका फोन छीन लिया।  
  • 7 अक्टूबर 2018 को, जब पीड़िता घर लौट रही थी, तो अभियुक्त ने कथित तौर पर उसे रोका, लैंगिक संबंध बनाने की माँग की और उसे एक घर में ले गया, जहाँ उसने विवाह का वचन देकर कथित रूप से उसका लैंगिक उत्पीड़न किया।  
  • पीड़िता ने अभिकथित किया  कि उसके बाद कई बार लैंगिक हमले की घटनाएँ हुईं, जिसके परिणामस्वरूप वह गर्भवती हो गई, जिसका पता उसे तब चला जब उसका मासिक धर्म नहीं हुआ।  
  •  गर्भावस्था के बारे में जानकारी मिलने पर, अभियुक्त ने कथित तौर पर पीड़िता को गोलियां दीं, लेकिन वे अप्रभावी थीं, और उसने अंततः 21 अगस्त 2019 को एक बच्चे को जन्म दिया। 
  •  अभियुक्त ने अपने वचनों के बावजूद पीड़िता से विवाह करने से इंकार कर दिया, जिसके कारण उसने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई।  
  •  चिकित्सा परीक्षण में पीड़िता के गर्भवती होने की पुष्टि हुई और डीएनए जांच से पता चला कि अभियुक्त ही बच्चे का जैविक पिता है।  
  • अभियुक्त पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (भा.द.सं.) की धारा 376(2)(ज) और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की धारा 6 के अधीन अपराध का आरोप लगाया गया था। 

न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं? 

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने बलात्संग के आरोपों और लैंगिक अपराधों से बच्चों के संरक्षण (POCSO) अधिनियम के प्रावधानों के अधीन अभियुक्त की दोषसिद्धि को बरकरार रखा, तथा विशेष POCSO न्यायालय द्वारा लगाए गए दस वर्ष के दण्ड की पुष्टि की। 
  • न्यायालय ने धारित किया कि जब विवाह का वचन उसे निभाने के आशय के बिना, प्रवंचना से लड़की के साथ लैंगिक संबंध बनाने के लिये किया जाता है तो इससे 'तथ्य की मिथ्या उपधारणा' सृजित होती है, जो लड़की की सम्मति को प्रभावित करती है, 
  • न्यायमूर्ति उर्मिला जोशी-फाल्के ने अवधारित किया कि विवाह का वचन करके पीड़िता के साथ अभियुक्त का जुड़ाव शुरू से ही दुर्भावनापूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि उसने पूरी तरह से मिथ्या उपधारणा के अधीन लैंगिक संबंध बनाने के लिये उसे पूरी तरह से गुमराह किया। 
  • न्यायालय ने पाया कि घटना के समय पीड़िता की आयु सोलह वर्ष से कम थी, इसलिये वह विधिक रूप से वैध सम्मति नहीं दे सकी, जिससे सम्मति का प्रश्न विसंगत हो गया। 
  •  डीएनए साक्ष्य से यह निश्चायक रूप से स्थापित हो गया कि अभियुक्त ही पीड़िता से जन्मे बच्चे का जैविक पिता था, जो यौन संबंध के संबंध में पीड़िता के साक्ष्य की पुष्टि करता है। 
  • न्यायालय ने मात्र वादाखिलाफी और केवल प्रलोभन देने के आशय से किए गए वचन भंग के बीच अंतर करते हुए वर्तमान मामले को बाद वाले मामले की श्रेणी में रखा, जहाँ बलात्संग का अपराध सिद्ध हो चुका था। 
  • न्यायालय ने विख्यात किया कि अभियुक्त सदोष मानसिक दशा के बारे में POCSO अधिनियम, 2012 की धारा 29 और 30 के अधीन सांविधिक उपधारणा का खण्डन करने में विफल रहा, जिसमें उद्देश्य, आशय, तथ्य का ज्ञान और विश्वास शामिल है। 
  • अपीलीय न्यायालय ने विचारण न्यायालय के निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं मिला तथा उसने अपील को आधारहीन मानते हुए खारिज कर दिया। 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 (भा.न्या.सं.) के अधीन विवाह का मिथ्या वचन करने से संबंधित प्रावधान क्या है? 

  • भा.न्या.सं. में विवाह के मिथ्या वचन देने के कृत्य को दण्डित करने के लिये एक अलग प्रावधान है। 
    • भा.न्या.सं. की धारा 69 में प्रवंचनापूर्ण साधनों, आदि का प्रयोग करके मैथुन आदि के लिये दण्ड का प्रावधान है। 
    •  जो कोई प्रवंचनापूर्ण साधनों द्वारा या किसी महिला को विवाह करने का वचन देकर, उसे पूरा करने के किसी आशय के बिना, उसके साथ मैथुन करता है, ऐसा मैथुन बलात्संग के अपराध की कोटि में नहीं आता है, तो वह दोनों में से किसी भांति के ऐसी अवधि के कारावास से दण्डनीय होगा, जो दस वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने के लिये भी दायी होगा। 
    • स्पष्टीकरण- "प्रवंचनापूर्ण साधनों में, नियोजन या प्रोन्नति, या पहचान छिपाकर विवाह करने के लिये, उत्प्रेरण या उनका मिथ्या वचन, सम्मिलितहै। 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 (भा.न्या.सं.) की धारा 64 क्या है? 

  • भा.न्या.सं. में धारा 64 बलात्संग के लिये दण्ड का प्रावधान करती है। 
  • इससे पहले इसे भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 376 के अधीन निपटाया जाता था 
  • धारा 64(1) बलात्संग के लिये सामान्य दण्ड दोनों में से किसी भांति के कठिन कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष से कम की नहीं होगी, किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी, दण्डित  किया जाएगा और जुर्माने का भी दायी होगा। 
  • धारा 64(2) अधिक कठोर दण्ड के साथ बलात्संग के वर्धित या गंभीर रूपों का प्रावधान करती है। 
  • धारा 64(2)(ज) विशेष रूप से ऐसी स्थिति से निपटती है जहाँ कोई व्यक्ति किसी महिला से यह जानते हुए कि वह गर्भवती है, बलात्संग करता है। 
  • धारा 64(2)(ज) के अधीन अपराधों के लिये विहित दण्ड कठोर कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष से कम की नहीं होगी, किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी, जिससे उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिये कारावास अभिप्रेत होगा, दण्डित  किया जाएगा और जुर्माने का भी दायी होगा। 
  • यह प्रावधान गर्भवती महिला के साथ बलात्संग को लैंगिक उत्पीड़न का गंभीर रूप मानता है, गर्भवती पीड़ितों की अतिरिक्त भेद्यता और महिला और उसके अजन्मे बच्चे दोनों को संभावित अपहानि को मान्यता देता है। 
  • धारा 64(2)(ज) धारा 64(2) में सूचीबद्ध कई परिस्थितियों में से एक है, जहाँ विधि अपराध के विशेष रूप से गंभीर प्रकृति के कारण अधिक कठोर दण्ड लगाता है। 
  • यह धारा मानती है कि यह जानते हुए कि पीड़िता गर्भवती है, बलात्संग  करना अधिक दोषी होने का संकेत देता है, जिसके लिये वर्धित दण्ड की आवश्यकता होती है। 
  •  इस अपराध को धारा 64(1) के बजाय धारा 64(2) के अधीन वर्गीकृत करना, ऐसे मामलों को अधिक गंभीरता से लेने का विधायिका के आशय को दर्शाता है। 

 लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 के सुसंगत प्रावधान क्या हैं?  

  • धारा 6(1) में गुरुतर प्रवेशन लैंगिक हमले के लिये कठोर कारावास से, जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम की नहीं होगी, किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी, जिससे उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिये कारावास अभिप्रेत होगा, दण्डित  किया जाएगा और जुर्माने का भी दायी होगा या मृत्युदण्ड भी हो सकता है।  
  • धारा 6(2) में यह अनिवार्य किया गया है कि धारा 6(1) के अधीन अधिरोपित जुर्माना न्यायोचित और युक्तियुक्त होगा और उसका संदाय, पीड़ित के चिकित्सा व्ययों की पूर्ति और पुनर्वास के लिये ऐसे पीड़ित को किया जाएगा।  
  • धारा 29 एक सांविधिक उपधारणा को सृजित करती है जिसके अधीन जहाँ किसी व्यक्ति को इस अधिनियम की धारा 3, धारा 5, धारा 7 और धारा 9 के अधीन किसी अपराध को करने या दुष्प्रेरण करने या उसको करने का प्रयत्न करने के लिये अभियोजित किया गया है वहाँ विशेष न्यायालय तब तक यह उपधारणा करेगा कि ऐसे व्यक्ति ने, यथास्थिति, वह अपराध किया है, दुष्प्रेरण किया है या उसको करने का प्रयत्न किया है जब तक कि इसके विरुद्ध साबित नहीं कर दिया जाता है। 
  •  धारा 29 के अधीन उपधारणा के अनुसार, अपनी बेगुनाही साबित करने के लिये साक्ष्यों का भार अभियुक्त पर डाला जाता है, जो कि निर्दिष्ट POCSO अपराधों के लिये "दोषी साबित होने तक निर्दोष" के पारंपरिक आपराधिक विधि सिद्धांत को प्रभावी रूप से उलट देता है।  
  • धारा 30(1) POCSO अभियोजन में दोषी मानसिक दशा की विद्यमानता की उपधारणा स्थापित करती है, जिसके अधीन अभियुक्त को बचाव के रूप में ऐसी मानसिक दशा की अनुपस्थिति को साबित करना होता है।  
  • धारा 30(2) इस धारा के प्रयोजनों के लिये किसी तथ्य का साबित किया जाना केवल तभी कहा जाएगा जब विशेष न्यायालय उसके युक्तियुक्त संदेह से परे विद्यमान होने पर विश्वास करता है और केवल तब नहीं जब इसकी विद्यमानता संभाव्यता की प्रबलता द्वारा स्थापित होती है। 
  • धारा 30 के स्पष्टीकरण में "आपराधिक मानसिक दशा" के अंतर्गत आशय, हेतुक, किसी तथ्य का ज्ञान और किसी तथ्य में विश्वास या विश्वास किए जाने का कारण भी है। 
  •  ये प्रावधान सयुंक्त रूप से एक कठोर विधिक ढाँचा तैयार करते हैं, जो POCSO मामलों में अभियोजन पक्ष की स्थिति को काफी मजबूत करता है, तथा बाल पीड़ितों की भेद्यता और ऐसे संवेदनशील मामलों में साक्ष्य प्रस्तुत करने में आने वाली कठिनाई को पहचानता है।