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आपराधिक कानून

मान ली गई मंजूरी

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 27-Feb-2025

सुनीति टोटेजा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य 

द.प्र.सं. की धारा 197 में मान ली गई मंजूरी की अवधारणा नहीं है।” 

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने माना है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (द.प्र.सं.) की धारा 197 के अधीन मान ली गई मंजूरी की कोई अवधारणा नहीं है 

  • उच्चतम न्यायालय  ने सुनीति टोटेजा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2025) के मामले में यह धारित किया 

सुनीति टोटेजा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • सुश्री सुनीति टोटेजा (अपीलार्थी ) भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) की एक कर्मचारी हैं, जिन्हें 27 अप्रैल 2016 से 25 जुलाई 2019 तक भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) में प्रतिनियुक्ति पर नियुक्त किया गया था। 
  • यह मामला डॉ. मनीषा नारायण (प्रत्यर्थी संख्या 2) द्वारा भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण में प्रवर्तन निदेशक डॉ. एस.एस. घोनक्रोक्ता के विरुद्ध दायर लैंगिक उत्पीड़न के परिवाद से उद्भूत  हुआ था। 
  • डॉ. नारायण ने दावा किया कि भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण, नई दिल्ली में एसोसिएट डायरेक्टर के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कई मौकों पर उनका लैंगिक उत्पीड़न किया गया। 
  • इन अभिकथनों के बाद, डॉ. नारायण की मां ने महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक   उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 (POSH Act) के अधीन कार्रवाई के लिये भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण के समक्ष परिवाद दायर कराया 
  • अभिकथनों के अन्वेषण के लिये एक आंतरिक परिवाद समिति का गठन किया गया। जांच 4 दिसंबर 2014 को आंतरिक परिवाद समिति को निर्दिष्ट की गई। 

  • आंतरिक परिवाद समिति  ने 22 जून 2015 को  भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण के मुख्य कार्यकारी अधिकारी को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें डॉ. घोनक्रोक्ता को कथित अपराधों का दोषी पाया गया।  
  • डॉ. घोनक्रोक्ता ने बाद में मूल आवेदन दाखिल करके नई दिल्ली में केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट) के समक्ष आंतरिक परिवाद समिति  की रिपोर्ट को चुनौती दी। 
  •  अन्वेषण पूरा होने और प्रतिवेदन प्रस्तुत किये जाने के बाद, अपीलार्थी  को 12 मई 2016 को भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण में आंतरिक परिवाद समिति  का पीठासीन अधिकारी नियुक्त किया गया। 
  • आंतरिक परिवाद समिति  के पीठासीन अधिकारी के रूप में अपीलार्थी  ने 16 जनवरी 2017 को  केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण की कार्यवाही में भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण प्रतिनिधियों और कथित तौर पर परिवादी की ओर से एक प्रति-शपथ-पत्र दायर किया।  
  • डॉ. नारायण ने बाद में दावा किया कि उन्होंने अपीलार्थी को अपनी ओर से प्रति-शपथ-पत्र दायर करने के लिये कभी प्राधिकृत नहीं किया और यह उनकी जानकारी और सम्मति के बिना दायर किया गया था।  
  • तत्पश्चात, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने जवाबी हलफनामे में संशोधन की मांग करते हुए एक विविध आवेदन दायर किया, जिसमें स्वीकार किया गया कि डॉ. नारायण स्वतंत्र रूप से अपना प्रतिनिधित्व करना चाहती थीं। 
  • बाद में, डॉ. नारायण द्वारा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की विभिन्न धाराओं के अधीन  अपराधों के संबंध में एक और एफआईआर दर्ज की गई, जिसमें अपीलार्थी  का नाम इस एफआईआर में नहीं था। 
  • अपीलार्थी का नाम पहली बार प्रथम सूचना रिपोर्ट में दर्ज होने के लगभग दो वर्ष बाद द.प्र.सं. की धारा 164 के अधीन दिए गए डॉ. नारायण के कथन के दौरान सामने आया। 
  •  अपने कथन में डॉ. नारायण ने अभिकथित किया कि अपीलार्थी ने बिना अनुमति के न्यायाधिकरण के समक्ष उनका सदोष  प्रतिनिधित्व किया तथा दिल्ली से चेन्नई अंतरण के संबंध में उन्हें धमकी दी। 
  • इन अभिकथनों के आधार पर, अभियुक्त (अभियुक्त संख्या 4) के विरुद्ध भा.द.सं. की विभिन्न धाराओं के अधीन आरोप पत्र दाखिल किया गया। 
  • अन्वेषण प्राधिकारियों ने दावा किया कि उन्होंने द.प्र.सं. की धारा 197 के अधीन  अभियोजन के लिये मंजूरी मांगी थी, किंतु नियत समय अवधि के भीतर मंजूरी नहीं मिलने पर आरोप पत्र दाखिल किया गया। 
  • लखनऊ के विशेष मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने आरोप पत्र का संज्ञान लिया और अभियुक्तों के विरुद्ध समन जारी किया। 
  • अपीलार्थी ने दो सह-अभियुक्तों के साथ मिलकर उच्च न्यायालय में द.प्र.सं. की धारा 482 के अधीन  याचिका दायर कर आरोपपत्र और समन आदेश को रद्द करने की मांग की।  
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने 16 नवंबर 2022 को अपीलार्थी  की याचिका खारिज कर दी, परंतु अधीनस्थ न्यायालय को उसे जमानत पर रिहा करने का निदेश दिया।  
  • अपीलार्थी के मूल विभाग बीआईएस ने बाद में मामले की अंतर्वस्तु का पुनराविलोकन करने के पश्चात् उसके अभियोजन के लिये स्पष्ट रूप से मंजूरी देने से इंकार करते हुए एक पत्र जारी किया।  
  • उच्च न्यायालय के निर्णयों से व्यथित होकर वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि अपीलार्थी  ने जब प्रति-शपथ-पत्र दाखिल किया और परिवादी से बातचीत की, तब वह आंतरिक परिवाद समिति की पीठासीन अधिकारी के रूप में अपनी आधिकारिक क्षमता में काम कर रही थी। 
  • इसने धारित किया कि मजिस्ट्रेट द्वारा द.प्र.सं. की धारा 197 के अधीन  उसके विरुद्ध संज्ञान लेने से पहले सक्षम प्राधिकारी (बीआईएस) से पूर्व मंजूरी लेना आवश्यक था। 
  • न्यायालय ने कहा कि द.प्र.सं. की धारा 197 के अधीन  "मान्य मंजूरी" की अवधारणा पर विचार नहीं किया गया है, तथा अभियोजन पक्ष द्वारा विनीत नारायण और सुब्रमण्यम स्वामी के निर्णयों पर विश्वास करने को खारिज कर दिया। 
  • इसने पाया कि मंजूरी का अनुरोध करने वाला पत्र बीआईएस के बजाय गलत तरीके से भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण को भेजा गया था, जिससे सक्षम प्राधिकारी को अनुरोध प्राप्त करने में विलम्ब कारित हो 
  • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि बीआईएस ने मामले की अंतर्वस्तु का पुनरावलोकन करने के पश्चात् अभियोजन पक्ष के लिये मंजूरी देने से स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया था, तथा पाया कि अपीलार्थी  "किसी भी तरह से अभिकथनों से संबंधित नहीं है।" 
  • उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि मजिस्ट्रेट ने उचित मंजूरी के बिना संज्ञान लेने में गलती की, तथा उच्च न्यायालय ने इस घातक प्रक्रियात्मक त्रुटि पर विचार न करके गलती की। 
  • इसने निर्णय सुनाया कि आवश्यक मंजूरी की कमी ने अपीलार्थी  के विरुद्ध "आपराधिक कार्यवाही की शुरुआत को ही खराब कर दिया"। 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि मंजूरी की आवश्यकता के लिये किसी लोक सेवक के कार्यों का प्रत्यक्ष रूप से आधिकारिक कर्तव्यों से जुड़ा होना आवश्यक है, और यह संरक्षण उनके विरुद्ध मामलों के संज्ञान के लिये एक पूर्व शर्त है। 
  • इसने अंततः अपील को स्वीकार कर लिया और आरोपपत्र, समन आदेश और उसके विरुद्ध विचारण न्यायालय द्वारा उठाए गए किसी भी अनुवर्ती कदम को रद्द कर दिया। 

द.प्र.सं. की धारा 197 क्या है? 

  • इसके बारे में: 
    • न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों और लोक सेवकों के अभियोजन के लिये प्रावधान, अब इसे भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (भा.ना.सु.सं.) की धारा 218 के अंतर्गत शामिल किया गया है 
    • यह धारा निम्नलिखित में सहायता करती है: 
      • लोक सेवकों को तुच्छ अभियोजन से बचाती है। 
      • विधिक कार्यवाही में प्रशासनिक निगरानी सुनिश्चित करती है। 
      • आधिकारिक कर्तव्यों की सुरक्षा के साथ उत्तरदायित्त्व को संतुलित करती है। 
  • संरक्षण का विस्तार: 
    • न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों और लोक सेवकों पर लागू होती है। 
    • आधिकारिक क्षमता में कार्य करते समय किये गए अपराधों को अंतर्विष्ट करती है। 
  • सामान्य निषेध: 
    • कोई भी न्यायालय बिना पूर्व स्वीकृति के अपराधों का संज्ञान नहीं लेगा। 
    • लोक सेवकों को मनमाने अभियोजन से बचाता है। 

मंजूरी प्राधिकारी: 

  •  केन्द्र सरकार का क्षेत्राधिकार: 
    • संघ/केंद्र सरकार के मामलों में कार्यरत व्यक्तियों के लिये 
    • केंद्र सरकार के कर्मचारियों से संबंधित अपराधों पर लागू होता है। 
  • राज्य सरकार का क्षेत्राधिकार: 
    • राज्य सरकार के मामलों में कार्यरत व्यक्तियों के लिये 
    • राज्य सरकार के कर्मचारियों से संबंधित अपराधों को अंतर्विष्ट करती है। 

सशस्त्र बलों के लिये विशेष प्रावधान: 

  • सशस्त्र बल अभियोजन: 
    • कोई भी न्यायालय सशस्त्र बलों के सदस्यों द्वारा किये गए अपराधों का संज्ञान नहीं लेगा। 
    • केंद्र सरकार से पूर्व मंजूरी की आवश्यकता है। 
  • राज्य स्तरीय बल प्रावधान: 
    • राज्य सरकार विशिष्ट लोक व्यवस्था रखरखाव बलों को अधिसूचित कर सकती है। 
    • निदेश दे सकती है कि केंद्र सरकार की मंजूरी के प्रावधान राज्य बलों पर लागू हों। 

आपातकालीन प्रावधान: 

  • राज्य आपातकालीन संज्ञान: 
    • राष्ट्रपति शासन के दौरान (भारत के संविधान का अनुच्छेद 356, 1950) 
    • लोक व्यवस्था बनाए रखने वाले बलों पर अभियोजन चलाने पर विशेष प्रतिबंध। 
    • केंद्र सरकार की मंजूरी की आवश्यकता है। 
  • ऐतिहासिक मंजूरी विधिमान्यकरण : 
    • विशिष्ट ऐतिहासिक अवधियों के दौरान दिए गए प्रतिबंधों को अमान्य करता है। 
    • केंद्र सरकार को नए प्रतिबंध लगाने का अधिकार देता है। 

अभियोजन प्रबंधन: 

  • अभियोजन अवधारण: 
    • केंद्र या राज्य सरकार: 
      • अभियोजन करने वाले व्यक्ति का निर्धारण कर सकती है। 
      • अभियोजन के तरीके को निर्दिष्ट कर सकती है। 
      • अभियोजन के लिये विशिष्ट अपराधों को परिभाषित कर सकती है। 
      • विचारण न्यायालय का चयन कर सकती है। 

ऐतिहासिक निर्णय 

  • विनीत नारायण बनाम भारत संघ (1998): 
    • यह ऐतिहासिक मामला, जिसे "हवाला केस" के नाम से भी जाना जाता है, ने  केंद्रीय जांच ब्यूरो  जैसी जांच एजेंसियों की स्वतंत्रता को इंगित किया और कार्यप्रणाली के लिये दिशानिर्देश स्थापित किये। 
    • उच्चतम न्यायालय  ने आपराधिक कार्यवाही के विभिन्न चरणों के लिये समय सीमा निर्धारित की, जिसमें अभियोजन के लिये मंजूरी देने के लिये तीन महीने की सीमा (विशेष कारणों से तीन महीने और बढ़ाई जा सकती है) शामिल है। 
    • निर्णय में इस बात पर जोर दिया गया कि अभियोजन में विलम्ब को रोकने के लिये इन समय सीमाओं का सख्ती से पालन किया जाना चाहिये , खासकर उच्च पदस्थ अधिकारियों से जुड़े मामलों में। 
    • न्यायालय ने अन्वेषण और अभियोजन के संबंध में अपने निदेशों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिये एक निगरानी तंत्र स्थापित किया। 
  • सुब्रमण्यम स्वामी बनाम मनमोहन सिंह (2012) 
    • यह मामला 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले के संबंध में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (PCA) के अधीन अभियोजन के लिये मंजूरी के मुद्दे से संबंधित था। 
    • न्यायमूर्ति जी.एस. सिंघवी ने अपनी अलग लेकिन सहमति वाली राय में संसद को विचार करने के लिये दिशा-निर्देश व्यक्त किये, जिसमें यह प्रावधान भी शामिल है कि यदि विस्तारित समय सीमा के भीतर मंजूरी पर कोई निर्णय नहीं लिया जाता है, तो मंजूरी प्रदान की गई मानी जाएगी। 
    • निर्णय में इस बात पर जोर दिया गया कि भ्रष्ट लोक अधिकारियों के अभियोजन में अनावश्यक विलम्ब को रोकने के लिये युक्तियुक्त समय सीमा के भीतर मंजूरी प्रदान की जानी चाहिये  या अस्वीकार की जानी चाहिये  
    • न्यायालय ने सिफारिश की कि सक्षम प्राधिकारी को अनुरोध किये जाने के तीन महीने के भीतर मंजूरी पर निर्णय लेना चाहिये