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आपराधिक कानून

किशोरत्व की संरक्षा

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 06-May-2024

फोटो कंटेंट:  

राहुल कुमार यादव बनाम बिहार राज्य

“किसी मामले के खारिज होने के बावजूद, विचारण के किसी भी चरण में किशोरत्व का संरक्षण किया जा सकता है”।

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने राहुल कुमार यादव बनाम बिहार राज्य मामले में माना कि किसी मामले के खारिज होने के बावजूद, विचारण के किसी भी चरण में किशोरत्व का संरक्षण किया जा सकता है। उचित जाँच  किये बिना किशोरत्व के संरक्षण के तर्क को खारिज नहीं किया जा सकता।

राहुल कुमार यादव बनाम बिहार राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • रोहित यादव एवं सह-अभियुक्तों पर सत्र न्यायाधीश, दरभंगा द्वारा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 302 एवं 394 और शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 27 (2) के अधीन अभियोजन चलाया गया। न्यायालय ने दोनों आरोपियों को दोषी ठहराया तथा उन्हें मृत्यदंड की सज़ा दी गई।
  • उन्होंने मृत्यु की सज़ा की पुष्टि के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 366 के अधीन पटना उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की। पटना उच्च न्यायालय की खंड पीठ ने विभाजित राय दी।
  • फिर उक्त मामला, पटना उच्च न्यायालय में एक तीसरे विद्वान एकल न्यायाधीश के पास भेजा गया, जिन्होंने 29 जून 2017 के निर्णय के अधीन अपील को खारिज कर दिया, लेकिन अपीलकर्त्ता एवं सह-अभियुक्त को दी गई मृत्युदंड की सज़ा को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया।
  • मामला दर्ज होने से पहले, अपीलकर्त्ता ने किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2000 की धारा 7-A के अधीन एक आवेदन दायर किया था। यह दावा करते हुए कि घटना की तिथि, अर्थात् 27 जुलाई 2011 को वह किशोर था। हालाँकि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने उक्त आवेदन को अस्वीकार कर दिया था।
  • 28 नवंबर 2011 को, इसी आधार पर एक नई याचिका खारिज कर दी गई।
  • उच्चतम न्यायालय में एक अपील, जिसमें अभियुक्तों द्वारा अधीनस्थ न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के निर्णयों पर चोट करने को प्राथमिकता दी गई। न्यायालय ने निचली न्यायालयों को किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 (JJ अधिनियम) में उल्लिखित प्रक्रिया का पालन करते हुए अपीलकर्त्ता की उम्र या जन्म तिथि स्थापित करने के लिये एक व्यापक जाँच करने का निर्देश दिया।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता ने पाया कि JJ अधिनियम, 2000 या JJ अधिनियम, 2015 के प्रावधानों के अनुसार उचित जाँच नहीं की गई थी, इसलिये अपीलकर्त्ता द्वारा की गई प्रार्थना पर विचार करने के लिये उसे किशोर माना जाए। घटना भले ही जल्द-से-जल्द अभियोजित की गई थी। यह बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि अपीलकर्त्ता द्वारा रखी गई किशोरत्व के तर्क को उचित जाँच किये बिना खारिज नहीं किया जा सकता था।
  • इसके अतिरिक्त यह माना गया कि JJ अधिनियम, 2015 की धारा 9(2) के प्रावधानों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किशोर होने के तर्क को किसी भी न्यायालय के समक्ष रखी जा सकती है तथा इसे मामले के अंतिम निपटान के बाद भी किसी भी स्तर पर मान्यता दी जाएगी। हालाँकि, उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की ओर से की गई किशोरत्व की प्रार्थना पर विचार नहीं किया तथा न ही कोई निर्णय लिया।

JJ अधिनियम, 2015 की धारा 9(2) क्या है?

JJ  अधिनियम, 2015

  • किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 15 जनवरी 2016 को लागू हुआ।
  • इसने किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2000 को निरसित कर दिया।
  • यह अधिनियम 11 दिसंबर 1992 को भारत द्वारा अनुसमर्थित बच्चों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहता है।
  • यह अधिनियम विधि का उल्लंघन करने वाले 16-18 आयु वर्ग के बच्चों को संबोधित करने का प्रयास करता है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में उनके द्वारा किये गए अपराधों की घटनाओं में वृद्धि दर्ज की गई है।
  • किशोर न्याय (देखभाल एवं संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2021 के अनुसार, बच्चों के विरुद्ध अपराध जो JJ अधिनियम, 2015 के अध्याय "बच्चों के विरुद्ध अन्य अपराध" में उल्लिखित हैं तथा जो तीन से सात वर्ष के बीच कारावास की अनुमति देते हैं, उन्हें असंज्ञेय माना जाएगा।
  • किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2000 की धारा 7A में उल्लेखित प्रावधान, अब किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 की धारा 9 में सम्मिलित किया गया है।

JJ अधिनियम, 2015 की धारा 9(2)

परिचय:

  • इस धारा में कहा गया है कि यदि किसी व्यक्ति पर अपराध करने का आरोप है तो वह बोर्ड के अतिरिक्त किसी अन्य न्यायालय के समक्ष दावा करता है कि, वह व्यक्ति अप्राप्तवय है, या अपराध करने की तिथि पर अप्राप्तवय था, या यदि न्यायालय स्वयं यह राय रखे कि अपराध करने की तिथि पर वह आरोपी, अप्राप्तवय था, उक्त न्यायालय जाँच करेगी, मामले पर ऐसे व्यक्ति की उम्र निर्धारित करने के लिये व्यक्ति की उम्र यथासंभव बताते हुए ऐसे साक्ष्य लेगी, जो आवश्यक हो (लेकिन शपथ-पत्र नहीं) तथा एक निष्कर्ष निकालेगी।

निर्णयज विधि:

  • अबुजर हुसैन बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2012), इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किशोर होने के तर्क को किसी भी न्यायालय के समक्ष रखी जा सकती है तथा इसे मामले के अंतिम निपटान के बाद भी किसी भी स्तर पर मान्यता दी जाएगी। हालाँकि, उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की ओर से की गई किशोरत्व की प्रार्थना पर विचार नहीं किया तथा न ही कोई निर्णय लिया।