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आपराधिक कानून
प्रत्यक्षदर्शी के अभिसाक्ष्य को अभिलिखित करने में विलंब
« »26-Mar-2025
फ़िरोज़ खान अकबरखान बनाम महाराष्ट्र राज्य “जहाँ तक दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (जिसे आगे 'संहिता' कहा जाएगा) की धारा 161(5) के अधीन प्रत्यक्षदर्शियों के अभिसाक्ष्यों को अभिलिखित करने में 2/3 दिन के विलंब का प्रश्न है, अन्वेषण अधिकारी सहित साक्षियों द्वारा इस विलंब को इस आशय से पूरी तरह से समझाया गया है कि क्षेत्र में दंगे हुए थे।” जस्टिस अभय एस ओका, अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और एजी मसीह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
जस्टिस अभय एस ओका, अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और ए.जी. मसीह ने निर्णय दिया कि यदि विलंब को पर्याप्त रूप से समझाया जाए तो प्रत्यक्षदर्शी के अभिसाक्ष्य को अभिलिखित करने में विलंब से अभियोजन पक्ष के मामले के विरुद्ध कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकलेगा।
- उच्चतम न्यायालय ने फ़िरोज़ खान अकबरखान बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
फिरोज खान अकबरखान बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला 19 अप्रैल 2005 को एक गाँव में हुई हत्या से संबंधित है, जिसमें कई व्यक्ति सम्मिलित थे।
- यह घटना रामकला (पीड़िता की बहन) और रशीद काजी नामक एक व्यक्ति के बीच संबंधों से संबंधित तनाव से उपजी थी।
- इस रिश्ते कारण गाँव में विवाद की स्थिति बनी हुई थी।
- 19 अप्रैल 2005 की सुबह करीब 9:00 बजे, पीड़ित (सुखदेव महादेवराव धुर्वे) गुजरी बाजार में एक हेयर सैलून के पास था।
- तीन अभियुक्त व्यक्ति - फिरोज खान अकबरखान (अपीलकर्त्ता), मोहम्मद जकारिया और कलीमखान - पीड़ित के पास पहुँचे।
- कथित रिश्ते को लेकर विवाद शुरू हो गया।
- टकराव के दौरान:
- अभियुक्त नं. 2 (मो. जकारिया) ने पीड़ित का कॉलर पकड़ लिया।
- अपीलकर्त्ता (फिरोज खान) ने चाकू निकाला और पीड़ित की छाती पर वार किया।
- अभियुक्त नंबर 2 ने पीड़ित की छाती और गर्दन पर लात भी मारी।
- अभियुक्त नंबर 3 (कलीमखान) हमले के समय उपस्थित था।
- तत्काल परिणाम:
- पीड़ित को गंभीर चोटें आईं और घटनास्थल पर ही उसकी मृत्यु हो गई।
- पीड़ित के खून बहने पर आसपास बहुत से लोग जमा हो गए।
- अभियुक्त ने चाकू घटनास्थल पर फेंक दिया और भाग गया।
- पीड़ित की बहन (रामकला) ने मौखिक रिपोर्ट दी, जो प्रथम इत्तिला रिपोर्ट (FIR) बन गई।
- विचारण न्यायालय ने प्रारंभिक रूप से अपीलकर्त्ता और अभियुक्त नंबर 2 को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 (हत्या) के साथ धारा 34 (सामान्य आशय) के अधीन दोषसिद्ध ठहराया।
- उन्हें आजीवन कारावास और जुर्माने से दण्डित किया गया।
- अभियुक्त नंबर 3 को दोषमुक्त कर दिया गया।
- बाद में उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के दण्ड की पुष्टि की।
- उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
साक्षियों और साक्ष्यों के संबंध में:
- अपीलकर्त्ता की उपस्थिति और छुरा घोंपने के बारे में प्रत्यक्षदर्शियों का अभिसाक्ष्य सुसंगत है।
- साक्षियों के साक्ष्यों में मामूली विसंगतियाँ अभियोजन पक्ष के समग्र मामले को कमज़ोर नहीं करती हैं।
- साक्षियों के साक्ष्य को अभिलिखित करने में विलंब का कारण क्षेत्र में हुए दंगे थे।
आशय के संबंध में:
- अपीलकर्त्ता चाकू लेकर आया था, जिससे पूर्ववर्ती आशय स्पष्ट होता है कि वह शारीरिक क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से आया था।
- यह अचानक प्रकोपन का मामला नहीं है, क्योंकि चाकू पहले से ही अपीलकर्त्ता के पास था।
- धारा 302 (हत्या) से धारा 304-I (आपराधिक मानववध) तक आरोप को कम करने के तर्क को खारिज कर दिया।
छूट के संबंध में:
- अपीलकर्त्ता को समयपूर्व रिहाई (Premature Release) के लिये पुनः आवेदन करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई।
- राज्य को निदेश दिया कि वह अपीलकर्त्ता के दया याचिका (Remission) के मामले पर उस नीति के आधार पर विचार करे, जो उसके दोषसिद्धि के समय प्रभावी थी।
- राज्य को निदेश दिया कि वह अपीलकर्त्ता के अभ्यावेदन प्राप्त होने के तीन माह के भीतर एक कारणयुक्त आदेश (Reasoned Order) पारित करे।
- दया याचिका के लिये प्रक्रियात्मक दिशा-निदेश:
- राज्य को विवेक का प्रयोग उचित और निष्पक्ष रूप से करना चाहिये।
- दोषसिद्ध व्यक्ति दया याचिका को एक अधिकार के रूप में दावा नहीं कर सकता।
- किंतु उसे यह अधिकार है कि उसका मामला लागू नीतियों के अनुसार विचाराधीन हो।
- दया याचिका हेतु निर्धारित शर्तें तर्कसंगत एवं गैर-मनमानी होनी चाहिये।
- संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के अधीन सांविधानिक अधिकारों का सम्मान करते हुए विचार किया जाना चाहिये।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 181 क्या है?
धारा 181: अन्वेषण के दौरान पुलिस से किये गए कथनों के उपयोग पर प्रतिबंध
- अन्वेषण के दौरान पुलिस से किये गए कथनों को प्रत्यक्ष साक्ष्य के रूप में उपयोग करने पर प्रतिबंध।
- पुलिस से किया गया कोई भी कथन:
- इसे करने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित नहीं होना चाहिये।
- जांच या विचारण में प्रत्यक्ष रूप से प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिये।
- साक्ष्यात्मक उद्देश्य (Evidentiary Purposes) हेतु दर्ज नहीं किया जाना चाहिये।
साक्षी के अभिसाक्ष्य का खण्डन
- उपयोग की शर्तें:
- तब लागू होता है जब साक्षी को अभियोजन के लिये बुलाया जाता है।
- कथन को विधिवत साबित किया जाना चाहिये।
- इसका उपयोग निम्न द्वारा किया जा सकता है:
- अभियुक्त (अधिकार के रूप में)।
- अभियोजन पक्ष (न्यायालय की अनुमति से)।
कथन के उपयोग का दायरा
- खण्डन के उद्देश्य से:
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 148 द्वारा विहित रीती से उपयोग किया जाएगा।
- पुन: परीक्षा की परिसीमाएँ:
- केवल जिरह में उठाए गए विषयों को स्पष्ट करने के लिए उपयोग किया जा सकता है।
प्रतिबंधों के अपवाद
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 26(क) के अंतर्गत आने वाले कथन।
- धारा 23(2) के प्रावधान अप्रभावित रहते हैं।
स्पष्टीकरण: कथनों में लोप
लोप का महत्त्व:
- लोप को खण्डन के रूप में मानने के मापदण्ड
- महत्त्वपूर्ण होना चाहिये।
- संदर्भ के लिये सुसंगत होना चाहिये।
- निर्धारण तथ्य का प्रश्न है।
मूल्यांकन के सिद्धांत
- प्रासंगिक मूल्यांकन:
- लोप का महत्त्व विशिष्ट परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
- खण्डन निर्धारित करने के लिये कोई व्यापक नियम नहीं है।