Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है










होम / करेंट अफेयर्स

आपराधिक कानून

निर्वहन आवेदन

    «    »
 03-Dec-2024

रजनीश कुमार विश्वकर्मा बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य एवं अन्य

“उच्च न्यायालय ने आरोप तय करते समय ट्रायल कोर्ट को दूसरे प्रतिवादी द्वारा दायर अपील और अकृतता की डिक्री पर विचार करने का निर्देश देकर घोर गलती की है।”

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, रजनीश कुमार विश्वकर्मा बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि निर्वहन आवेदन पर विचार करते समय केवल आरोप-पत्र के हिस्से वाले दस्तावेजों पर ही विचार किया जाना चाहिये।

रजनीश कुमार विश्वकर्मा बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला रजनीश कुमार विश्वकर्मा (अपीलकर्त्ता) और उसकी पत्नी (प्रतिवादी) के बीच वैवाहिक विवाद से संबंधित है।
  • 8 मई, 2019 से पहले अपीलकर्त्ता ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 12 के तहत याचिका दायर की थी।
  • इस याचिका में उसने अपने विवाह को अकृत घोषित करने की मांग की।
  • 8 मई, 2019 को अपीलकर्त्ता के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
  • FIR में उन पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के साथ पठित धारा 498A और 406 के तहत अपराध का आरोप लगाया गया है।
  • अपीलकर्त्ता ने शुरू में FIR रद्द करने के लिये एक रिट याचिका दायर की थी। हालाँकि, नवंबर 2020 में उसने यह याचिका वापस ले ली।
  • 23 जून, 2021 को एक कुटुंब न्यायालय ने विवाह को अकृत घोषित करने का एकपक्षीय निर्णय पारित किया।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता ने FIR रद्द करने की मांग करते हुए एक और रिट याचिका दायर की। इस याचिका को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।
  • पत्नी (द्वितीय प्रतिवादी) ने एकपक्षीय आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट को वर्तमान रिट याचिका पर विचार करने का निर्देश दिया।
  • अपीलकर्त्ता ने रिट याचिका दायर करने के बाद इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:

  • उच्च न्यायालय की प्रक्रियात्मक त्रुटि:
    • उच्च न्यायालय ने आरोप तय करते समय आरोप-पत्र के हिस्से न होने वाले दस्तावेजों पर विचार करने का निर्देश देकर ट्रायल कोर्ट को "घोर गलती" की।
    • यह निर्देश उड़ीसा राज्य बनाम देबेन्द्र नाथ पाढ़ी (2005) मामले में स्थापित कानूनी सिद्धांत के विपरीत था, जिसमें कहा गया है कि निर्वहन पर विचार करते समय, ट्रायल कोर्ट आरोप-पत्र के बाहर के दस्तावेजों पर विचार नहीं कर सकता है।
  • रिट याचिका की अधूरी सुनवाई:
    • उच्च न्यायालय ने FIR को रद्द करने की मांग करने वाली रिट याचिका के गुणागुण पर विचार नहीं किया।
    • न्यायालय ने कहा कि रिट याचिका में विभिन्न आधारों पर ज़ोर दिया गया था, जिसमें यह तर्क भी शामिल था कि विवाह अकृतता के लिये अपीलकर्त्ता की याचिका के बाद FIR दर्ज करना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग था।
  • FIR को चुनौती देने का समय:
    • न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि FIR को चुनौती उसके आरंभ में ही दी जानी चाहिये।
    • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कोई अभियुक्त कार्यवाही के किसी भी चरण में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 या भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 226 के तहत FIR को चुनौती दे सकता है।
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि ऐसी चुनौती पर विचार करना या न करना उच्च न्यायालय के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है।
  • उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को "पूरी तरह से अवैध" पाया।
    • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को खारिज कर दिया और अपीलकर्त्ता की मूल रिट याचिका को फिर से सुनवाई के लिये बहाल कर दिया।
    • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि निर्वहन आवेदन पर विचार करते समय केवल आरोप-पत्र का हिस्सा बनने वाले दस्तावेजों पर ही विचार किया जाना चाहिये।

निर्वहन आवेदन क्या है?

परिचय:

  • इससे पहले CrPC की धारा 227 सत्र मामलों में अभियुक्तों के निर्वहन से संबंधित थी।
  • इसे अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 250 के तहत कवर किया गया है।
  • इसमें कहा गया है कि मामले के रिकार्ड और उसके साथ प्रस्तुत दस्तावेजों पर विचार करने तथा इस ओर से अभियुक्त और अभियोजन पक्ष की दलीलें सुनने के बाद न्यायाधीश का मानना ​​है कि अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं है, इसलिये वह अभियुक्त को आरोपमुक्त कर देंगे और ऐसा करने के उसके कारणों को दर्ज करेंगे।
  • संहिता के अंतर्गत नई उपधारा (1) जोड़ी गई है, जिसमें कहा गया है कि अभियुक्त BNSS की धारा 232 के अंतर्गत मामले की प्रतिबद्धता की तिथि से साठ दिनों की अवधि के भीतर निर्वहन के लिये आवेदन कर सकता है।
  • यह धारा अभियुक्तों को अनावश्यक उत्पीड़न से बचाने के उद्देश्य से लागू की गई थी।

निर्णयज विधि:

  • कर्नाटक राज्य बनाम एल. मुनिस्वामी (1977)
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 227 के तहत निर्वहन याचिका पर विचार करते समय सत्र न्यायाधीश को अपने कारणों को दर्ज करने की आवश्यकता वाले प्रावधानों का उद्देश्य उच्च न्यायालय को विवादित आदेश की अवैधता की जाँच करने में सक्षम बनाना है।
    • उस मामले में ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्त को आरोपमुक्त करने से इनकार करते हुए अपने आदेश में कोई कारण नहीं बताया था, जिससे वह गंभीर रूप से दोषपूर्ण हो गया था।
  • असीम शरीफ बनाम NIA (2019)
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 227 CrPC के तहत दाखिल निर्वहन आवेदन की जाँच करते समय, यह उम्मीद की जाती है कि ट्रायल न्यायाधीश अपने न्यायिक मस्तिष्क का उपयोग करके यह निर्धारित करेंगे कि ट्रायल के लिये मामला बनाया गया है या नहीं।
    • न्यायालय को रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों को एकत्र करके मिनी ट्रायल नहीं करना चाहिये।