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आपराधिक कानून

साक्ष्य का पता लगना

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 13-Sep-2024

दिलीप सारीवान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य

“उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अधीन, सह-अभियुक्त के विषय में प्राप्त साक्ष्य का उपयोग षड्यंत्र के मामले में आरोप स्थापित करने के लिये किया जा सकता है।”

न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा एवं न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल

स्रोत: चंडीगढ़ उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने विवाहेत्तर संबंध से जुड़े परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर हत्या के मामले में दोषसिद्धि को यथावत् रखा तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के महत्त्व पर प्रकाश डाला। न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में अभियोजन पक्ष को परिस्थितियों की शृंखला में हर कड़ी को उचित संदेह से परे सिद्ध करना चाहिये, ताकि निर्दोषता के लिये कोई संभावना न रहे।

  • न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा एवं न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल ने दिलीप सारीवान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

दिलीप सारीवान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • मामला दुर्गेश पनिका की हत्या से संबंधित है, जो 15 अगस्त, 2020 एवं 16 अगस्त, 2020 की रात के बीच हुआ था।
  • 16 अगस्त, 2020 को सुबह करीब 7:00 बजे दुर्गेश पनिका का शव हर्राटोला में गुलाब राज के मोटर पंप के पास एक लावारिस मोटरसाइकिल के साथ मिला था।
  • पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला है कि मौत का कारण हत्या है, जो सिर पर लगी चोटों के कारण हुई है।
  • अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि यह हत्या कई व्यक्तियों की संलिप्तता से रचा गया षड़यंत्र का परिणाम था, जिसमें दुर्गेश की पत्नी कामता पनिका एवं उसके कथित प्रेमी तीरथ लाल काशीपुरी भी सम्मिलित थे।
  • हत्या का मकसद कथित तौर पर कामता पनिका और तीरथ लाल काशीपुरी के बीच विवाहेतर संबंध से जुड़ा था, जिसके कारण दुर्गेश के साथ कामता के वैवाहिक जीवन में तनाव पैदा हो गया था।
  • कई व्यक्तियों पर षड्यंत्र एवं हत्या में शामिल होने का आरोप लगाया गया था, जिनमें तीरथ लाल काशीपुरी, दिलीप सरिवान, पवन मार्को, जय प्रकाश यादव, रितेश वर्मा, महेंद्र पनिका एवं कामता पनिका शामिल थे।
  • अभियोजन पक्ष का मामला मुख्य रूप से परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित था, क्योंकि हत्या का कोई प्रत्यक्ष प्रत्यक्षदर्शी साक्षी नहीं था।
  • मुख्य साक्ष्यों में कॉल डिटेल रिकॉर्ड (CDRs), टावर लोकेशन रिपोर्ट, ज़ब्त की गई वस्तुएँ जैसे कपड़े एवं जैक रॉड, और फोरेंसिक रिपोर्ट शामिल थीं, जो विभिन्न वस्तुओं पर खून की मौजूदगी का संकेत देती हैं।
  • अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि आरोपियों ने दुर्गेश की हत्या का षड्यंत्र रची, उसे शराब पीने के बहाने एक स्थान पर कपटपूर्वक बुलाया तथा फिर जैक रॉड का प्रयोग करके उसकी हत्या कर दी।
  • हत्या के बाद, आरोपियों ने कथित तौर पर शव को हर्राटोला रोड पर रखकर मौत को दुर्घटना का रूप देने का प्रयास किया।
  • मामले की जाँच पुलिस द्वारा की गई तथा आरोपियों के ज्ञापन बयानों के आधार पर विभिन्न वस्तुओं को ज़ब्त किया गया।
  • अभियोजन पक्ष ने आरोपियों पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 (हत्या), 201 (साक्ष्यों को गायब करना), 34 (एकसमान आशय) एवं 120 B (आपराधिक षड्यंत्र) के अधीन आरोप लगाए।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मामलों में, अभियोजन पक्ष परिस्थितियों की शृंखला को पूरा करने के लिये हर परिस्थिति को उचित संदेह से परे सिद्ध करने के लिये बाध्य है, जिससे निर्दोषता की किसी भी परिकल्पना के लिये कोई जगह नहीं बचती।
  • न्यायालय ने महबूब अली एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य, 2016 में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर विश्वास करते हुए कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अधीन अन्य आरोपी व्यक्तियों से संबंधित तथ्यों की खोज एकसमान आशय को आगे बढ़ाने में षड्यंत्र के आरोपों को स्थापित करने के लिये स्वीकार्य है।
  • न्यायालय ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 तथ्यों का पता लगाने के लिये सूचना की ग्राह्यता की अनुमति देती है, भले ही ऐसी सूचना संस्वीकृति के बराबर हो, बशर्ते कि वह खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो।
  • न्यायालय ने परिस्थितिजन्य साक्ष्य के "पांच स्वर्णिम सिद्धांतों" को लागू किया, जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने शरद बिरधीचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984) में स्थापित किया था, यह मानते हुए कि मामले में प्रत्यक्ष साक्ष्य का अभाव था।
  • कॉल डिटेल रिकॉर्ड (सीडीआर) की जाँच करने पर, न्यायालय ने निर्धारित किया कि मृतक दुर्गेश पनिका को आरोपी कामता एवं आरोपी तीरथ के बीच अवैध संबंध के विषय में पता था, जिसने हत्या का दुराशय उत्पन्न किया।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि आरोपी कामता, हत्या स्थल पर अनुपस्थित होने के बावजूद, तीरथ को "दुर्गेश को उसके रास्ते से हटाने" का निर्देश देने के लिये आपराधिक षड्यंत्र का दोषी था।
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि अभियोजन पक्ष ने 11 परिस्थितियों को जोड़कर सफलतापूर्वक अपना मामला स्थापित किया, जिससे यह सिद्ध हो गया कि अभियुक्तों ने 15.08.2020 एवं 16.08.2020 की रात के बीच दुर्गेश पनिका की हत्या करने का एक एकसमान आशय बनाया था।
  • न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय में कोई अवैधानिकता या त्रुटि नहीं पाते हुए आपराधिक अपीलों को खारिज कर दिया तथा अपीलकर्त्ताओं की आजीवन कारावास की सज़ा को यथावत् रखा।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 23 क्या है?

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 इस बात से संबंधित है कि अभियुक्त से प्राप्त सूचना में से कितनी सूचना सिद्ध की जा सकती है।
    • अब यह BSA, 2023 की धारा 23 के अंतर्गत आता है।
  • BSA, 2023 की धारा 23 पुलिस अधिकारी के समक्ष संस्वीकृति से संबंधित है।
  • यह प्रावधानित करता है कि:
    • किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई कोई भी संस्वीकृति, किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति के विरुद्ध साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य नहीं है।
    • पुलिस अभिरक्षा में किसी व्यक्ति द्वारा की गई संस्वीकृति, उस व्यक्ति के विरुद्ध साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य नहीं है, जब तक कि वह मजिस्ट्रेट की तत्काल मौजूदगी में न किया गया हो।
    • दस्तावेज़ों की विषय-वस्तु के विषय में मौखिक संस्वीकृति कुछ परिस्थितियों में प्रासंगिक एवं स्वीकार्य हो सकती है, जो साक्ष्य के नियमों के अधीन है।
    • सिविल मामलों में, पक्षों द्वारा की गई संस्वीकृति साक्ष्य के रूप में प्रासंगिक एवं स्वीकार्य हो सकती है, जो विशिष्ट नियमों एवं अपवादों के अधीन है।
    • प्रेरणा, धमकी, बलात या वचन के माध्यम से प्राप्त संस्वीकृति को आपराधिक कार्यवाही में अप्रासंगिक एवं अस्वीकार्य माना जाता है।
    • पुलिस अधिकारियों के समक्ष किये गए संस्वीकृति की अस्वीकार्यता के बावजूद, BSA की धारा 23, 2023 के अधीन एक अपवाद मौजूद है।
    • धारा 23 में प्रावधान है कि जब पुलिस अभिरक्षा में किसी आरोपी व्यक्ति से प्राप्त सूचना के परिणामस्वरूप कोई तथ्य पता चलता है, तो ऐसी सूचना में से उतनी सूचना सिद्ध की जा सकती है जो उस तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो।
    • धारा 23 के अधीन स्वीकार्यता इस बात की परवाह किये बिना लागू होती है कि सूचना संस्वीकृति के बराबर है या नहीं।
    • धारा 23 के पीछे तर्क यह है कि ऐसी सूचना को स्वीकार करने की अनुमति दी जाए जो किसी प्रासंगिक तथ्य की खोज की ओर ले जाए, भले ही वह सूचना किसी अन्यथा अस्वीकार्य संस्वीकृति का हिस्सा क्यों न हो।
    • धारा 23 के अधीन सूचना को स्वीकार्य होने के लिये, अभियुक्त द्वारा दी गई सूचना एवं खोजे गए तथ्य के बीच स्पष्ट संबंध होना चाहिये।
    • सूचना का केवल वह भाग ही स्वीकार्य है जो खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से एवं सीधे संबंधित है, संपूर्ण कथन या संस्वीकृति नहीं।
    • तथ्य की खोज पुलिस अभिरक्षा में अभियुक्त से प्राप्त सूचना का परिणाम होनी चाहिये। अभियुक्त से जानकारी प्राप्त होने से पहले पुलिस को पता चला तथ्य अज्ञात होना चाहिये।
    • धारा 23 के अधीन स्वीकार्यता केवल उस सूचना तक सीमित है जो खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित है तथा कथन या संस्वीकृति के अन्य भागों तक विस्तारित नहीं होती है।
    • धारा 23 के अधीन स्वीकार्यता केवल उस सूचना तक सीमित है जो खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित है तथा बयान या संस्वीकृति के अन्य भागों तक विस्तारित नहीं होती है।
    • न्यायालय को सूचना एवं खोजे गए तथ्य की सावधानीपूर्वक जाँच करनी चाहिये ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि केवल प्रासंगिक भाग को ही साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाए।
    • यह सिद्ध करने का भार कि धारा 27 की प्रावधानों की शर्तों को पूरा किया गया है, अभियोजन पक्ष पर होता है।
    • धारा 23 के आवेदन को अभियुक्त के मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत आत्म-दोषी ठहराए जाने के विरुद्ध अधिकार के साथ संतुलित किया जाना चाहिये।

निर्णयज विधियाँ:

  • दिल्ली NCT राज्य बनाम नवजोत संधू उर्फ ​​अफसान गुरु (2005) में, उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि IEA की धारा 27 के आशय में खोजा गया तथ्य कुछ ठोस तथ्य होना चाहिये, जिससे सूचना सीधे संबंधित हो।
  • राजेश एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि IEA की धारा 27 के अधीन औपचारिक आरोप एवं औपचारिक पुलिस अभिरक्षा आवश्यक पूर्वापेक्षाएँ हैं।