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सांविधानिक विधि
समरूप समूहों के बीच भेदभाव
« »12-Sep-2024
मणिलाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य "न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रवेश तिथि के आधार पर एक ही समूह के अभ्यर्थियों के बीच भेदभाव करना अनुचित है।" न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं के.वी. विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नौकरी की नियुक्ति के लिये पात्रता निर्धारित करते समय एक ही शैक्षणिक समूह के अभ्यर्थियों के साथ उनकी प्रवेश तिथि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। इस निर्णय ने यह मुद्दा उठाया कि राजस्थान सरकार की वर्ष 2017 शिक्षक ग्रेड III लेवल II भर्ती अधिसूचना ने अभ्यर्थियों के बी.एड कोर्स में प्रवेश के समय के आधार पर अलग-अलग स्नातक अंक मानदण्ड निर्धारित किये।
- न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं केवी विश्वनाथन ने मणिलाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य मामले में निर्णय दिया।
मणिलाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 11 सितंबर 2017 को, राजस्थान के अधिकारियों ने अनुसूचित क्षेत्र (TSP) में शिक्षक ग्रेड III लेवल II पदों के लिये एक विज्ञापन जारी किया।
- विज्ञापन में अभ्यर्थियों के लिये बी.एड. पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने के समय के आधार पर अलग-अलग शैक्षणिक योग्यताएँ प्रदान की गई हैं:
- 31 अगस्त 2009 से पहले प्रवेश पाने वालों को स्नातक में न्यूनतम 45% अंक की आवश्यकता थी।
- 31 अगस्त 2009 के बाद प्रवेश पाने वालों को स्नातक में न्यूनतम 50% अंक की आवश्यकता थी।
- अपीलकर्त्ता के स्नातक में 44.58% अंक थे तथा उसने 23 अक्टूबर 2009 को बी.एड. पाठ्यक्रम में प्रवेश प्राप्त किया था।
- आरक्षित श्रेणी से आने वाले अपीलकर्त्ता ने अपने प्रवेश के समय बी.एड. पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिये आवश्यक योग्यता प्रतिशत (40% अंक) प्राप्त किये थे।
- भर्ती परीक्षा में कट-ऑफ अंकों से अधिक अंक प्राप्त करने के बावजूद, अपीलकर्त्ता का नाम चयनित अभ्यर्थियों की अनंतिम सूची में नहीं आया।
- अपीलकर्त्ता को बताया गया कि उसकी उम्मीदवारी इसलिये खारिज कर दी गई क्योंकि उसने स्नातक में 45% से कम अंक प्राप्त किये थे।
- इस निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने राजस्थान उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की।
- उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने 27 नवंबर 2018 को अपीलकर्त्ता की रिट याचिका खारिज कर दी।
- इसके बाद अपीलकर्त्ता ने राजस्थान उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष अपील दायर की।
- 13 नवंबर 2019 को, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (NCTE) ने एक स्पष्टीकरण जारी किया जिसमें कहा गया कि स्नातक में न्यूनतम प्रतिशत की आवश्यकता उन अभ्यर्थियों पर लागू नहीं होगी जिन्होंने 29 जुलाई 2011 से पहले बी.एड. पाठ्यक्रमों में प्रवेश लिया था।
- उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने 27 अप्रैल, 2022 को अपीलकर्त्ता की अपील खारिज कर दी।
- अपीलकर्त्ता को शुरू में 23 अक्टूबर 2021 के उच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश के अनुसरण में पद पर नियुक्त किया गया था।
- अपील खारिज होने के बाद 7 जून 2022 को अपीलकर्त्ता की नियुक्ति रद्द कर दी गई।
- इसके बाद अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का में अपील की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- न्यायालय ने कहा कि शैक्षणिक सत्र 2009-10 के लिये प्रवेश पाने वाले छात्रों के समरूप समूह के बीच आपसी भेदभाव करना अनुचित होगा।
- न्यायालय ने कहा कि यदि काउंसलिंग के पहले चरण में प्रवेश पाने वाले छात्र स्नातक में 50% से कम अंक लेकर पात्र हैं, जबकि बाद के चरणों में प्रवेश पाने वाले अन्य छात्र पात्र नहीं हैं, तो यह भेदभावपूर्ण होगा।
- न्यायालय ने समानता के सिद्धांत पर ज़ोर दिया।
- न्यायालय ने 13 नवंबर 2019 की NCTE अधिसूचना पर ध्यान किया, जिसमें कहा गया था कि स्नातक में अंकों का न्यूनतम प्रतिशत उन लोगों पर लागू नहीं होगा जिन्होंने 29 जुलाई 2011 से पहले बी.एड. पाठ्यक्रमों में प्रवेश लिया था।
- न्यायालय ने पाया कि केवल प्रवेश की तिथि के आधार पर अभ्यर्थियों के साथ अलग-अलग व्यवहार करना, जब वे एक ही शैक्षणिक सत्र और प्रवेश प्रक्रिया का हिस्सा थे, तर्कसंगत एवं सतत् नहीं था।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि उच्च न्यायालय का निर्णय भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 14 में निहित समता एवं भेदभाव विहीन के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था।
- न्यायालय ने माना कि केवल प्रवेश के दौर के आधार पर एक ही शैक्षणिक समूह के अभ्यर्थियों पर अलग-अलग योग्यता मानदण्ड लागू करना मनमाना एवं अनुचित भेदभाव होगा।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्त्ता को केवल इसलिये वंचित नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि उसका प्रवेश काउंसलिंग के बाद के दौर में पूरा हुआ था।
COI के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत उचित वर्गीकरण क्या है?
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष संता और विधियों के समान संरक्षण की गारंटी देता है।
- इससे तात्पर्य यह नहीं है कि सभी विधियाँ सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होने चाहिये।
- सिद्धांत यह मानता है कि अलग-अलग आवश्यकताओं, परिस्थितियों एवं सामाजिक कारकों के कारण अलग-अलग वर्गों के लोगों को अलग-अलग व्यवहार की आवाह्यक हो सकती है।
- उचित वर्गीकरण भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का अपवाद है। उचित वर्गीकरण का सिद्धांत राज्य को ऐसे विधि निर्माण की अनुमति देता है जो अलग-अलग वर्गों के लोगों के साथ अलग-अलग व्यवहार करते हैं, बशर्ते कि ऐसे वर्गीकरण के लिये तर्कसंगत आधार हो।
- किसी वर्गीकरण को उचित माना जाने के लिये एवं अनुच्छेद 14 का उल्लंघन न करने के लिये, उसे पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (1952) के अनुसार दो आवश्यक परीक्षणों को पूरा करना होगा:
- वर्गीकरण एक सुबोध विभेद पर आधारित होना चाहिये जो समूह में शामिल व्यक्तियों या वस्तुओं को समूह से बाहर रखे गए अन्य व्यक्तियों या वस्तुओं से अलग करता है।
- विभेद का संबंधित विधि द्वारा प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध होना चाहिये।
- यदि वर्गीकरण प्रस्तावों में निर्धारित परीक्षण को संतुष्ट करता है, तो विधि को संवैधानिक घोषित किया जाएगा।
- वर्गीकरण मनमाना, कृत्रिम या कपटपूर्ण नहीं होना चाहिये।
- यह पर्याप्त अंतरों एवं वास्तविक मतभेदों पर आधारित होना चाहिये।
- न्यायालयों ने लगातार माना है कि वर्गीकरण करने में विधायी विवेक को माना जाना चाहिये तथा वर्गीकरण को चुनौती देने वाले व्यक्ति पर अनुचितता सिद्ध करने का भार है।
- वर्गीकरण का आधार जो अंतर है और अधिनियम का उद्देश्य दो अलग-अलग चीज़ें हैं। जो आवश्यक है वह यह है कि वर्गीकरण के आधार एवं वर्गीकरण करने वाले अधिनियम के उद्देश्य के बीच एक संबंध होना चाहिये।
- यदि कोई विधि भेदभाव करता भी है, तो उसे यथावत् रखा जा सकता है, बशर्ते भेदभाव के लिये उचित आधार हो।
- उचित वर्गीकरण का सिद्धांत वर्गीकरण के सिद्धांत का विकल्प नहीं है।
- यह अनुच्छेद 14 में निहित विधियों के समान संरक्षण की गारंटी के अंतर्निहित सिद्धांतों में से एक है।
- वर्ग विधान का निषेध: वर्ग विधान, जो एक बड़े समरूप समूह से मनमाने ढंग से चयनित समूह को विशेषाधिकार प्रदान करता है, निषिद्ध है।
- किसी विधि के लाभों या बोझ से कुछ लोगों को शामिल करने तथा अन्य को बाहर रखने के लिये उचित औचित्य होना चाहिये।
- पर्याप्त अंतर: किसी वर्गीकरण को वैध होने के लिये, किसी विशेष विधि या विशेषाधिकार में शामिल एवं बहिष्कृत लोगों के बीच पर्याप्त अंतर होना चाहिये। इस अंतर को विभेदकारी व्यवहार को उचित ठहराना चाहिये।
- कानून के उद्देश्य से संबंध: वर्गीकरण का विधि द्वारा प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध होना चाहिये।
- असमान परिस्थितियों में समान व्यवहार: असमान परिस्थितियों में समान व्यवहार असमानता के बराबर होगा। इसलिये, कभी-कभी सच्ची समानता प्राप्त करने के लिये विभेदकारी व्यवहार आवश्यक हो सकता है।
- विधायी विवेक: विधायिका के पास ऐसे व्यक्तियों एवं वस्तुओं को वर्गीकृत करने की व्यापक शक्तियाँ हैं जिन पर विधि लागू होते हैं, क्योंकि विभिन्न मानवीय संबंधों से उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याएँ हैं।
- मनमाना चयन: ऐसा वर्गीकरण जो मनमाने ढंग से किसी समूह को विशेष उपचार के लिये चुनता है, बिना किसी उचित आधार के, जो समान स्थिति वाले अन्य लोगों से अलग हो, अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा।
उचित वर्गीकरण के आधार क्या हैं?
- उचित वर्गीकरण के लिये कुछ महत्त्वपूर्ण आधार हैं।
- आयु
- लिंग
- भौगोलिक या प्रादेशिक आधार
- व्यवसाय या पेशे की प्रकृति
- प्राधिकरण के स्रोत की प्रकृति
- अपराधों एवं अपराधियों की प्रकृति
- कर विधियों के अंतर्गत आधार
- सरकार का राज्य
- एकल व्यक्ति या निकाय एक वर्ग के रूप में
राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (NCTE )
- राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (NCTE) राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद अधिनियम, 1993 के अंतर्गत भारत की केंद्र सरकार द्वारा स्थापित एक सांविधिक निकाय है।
- NCTE की औपचारिक स्थापना वर्ष 1995 में इसके शासी विधि के अधिनियमन के बाद की गई थी।
- NCTE की स्थापना भारतीय शिक्षा प्रणाली के अन्दर मानकों, प्रक्रियाओं एवं प्रक्रियाओं की औपचारिक रूप से देखरेख करने के प्राथमिक उद्देश्य से की गई थी, विशेष रूप से शिक्षक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करते हुए।
- शिक्षक शिक्षा से संबंधित मामलों में NCTE का अधिकार क्षेत्र केंद्र एवं राज्य दोनों सरकारों पर है।
- प्राथमिक कार्य:
- NCTE पूरे भारत में शिक्षक शिक्षा प्रणाली के विकास की योजना बनाने एवं समन्वय के लिये उत्तरदायी है।
- इसका कार्य शिक्षक शिक्षा प्रणाली में मानदण्डों और मानकों के भरण-पोषण को सुनिश्चित करना है।
- NCTE का मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है।