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वाणिज्यिक विधि
माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 42 के अंतर्गत पूर्व आवेदन
«15-Apr-2025
हरिराम एवं अन्य बनाम भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण " यह कहना उचित है कि रिट याचिका को माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 42 के अधीन अधिकारिता तय करने के लिये "पूर्व आवेदन" के रूप में नहीं माना जा सकता है क्योंकि रिट याचिका की प्रकृति प्रशासनिक कार्रवाई या विधिक निर्णय को चुनौती देना है, न कि माध्यस्थम् कार्यवाही शुरू करना।" न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरी |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरी की पीठ यह अभिमत व्यक्त किया कि दायर की गई रिट याचिका को माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 42 के अधीन पूर्व में दायर आवेदन के रूप में नहीं माना जा सकता है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने हरिराम एवं अन्य बनाम भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
हरिराम एवं अन्य बनाम भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ताओं ने माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (A & C Act) की धारा 34 के अधीन एक याचिका दायर की, जिसमें जिला कलेक्टर, डिवीजन मेरठ, जिला बागपत, उत्तर प्रदेश द्वारा पारित 16 अक्टूबर 2020 के एक पंचाट को चुनौती दी गई ।
- केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम की धारा 3क (1) के अधीन उत्तर प्रदेश के बागपत मंडल से बागपत जिले तक भूमि अधिग्रहण के लिये 28 जुलाई 2006 को अधिसूचना जारी की थी।
- भूमि के कुछ भागों का अधिग्रहण अनिवार्य रूप से किया गया , जबकि अन्य भागों पर 8 फरवरी 2007 की अधिसूचना के माध्यम से अधिग्रहण के बिना ही कब्जा ले लिया गया ।
- याचिकाकर्त्ताओं ने प्रारंभ में दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका दायर कर अपनी अधिग्रहित भूमि के लिये प्रतिकर की मांग की।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने 27 नवंबर 2018 को रिट याचिका का निपटारा करते हुए सक्षम प्राधिकारी को छह मास के भीतर याचिकाकर्त्ताओं को प्रतिकर वितरित करने का निदेश दिया।
- याचिकाकर्त्ताओं को जिला कलेक्टर, बागपत, उत्तर प्रेदश द्वारा पारित 27 मई 2019 के आदेश के माध्यम से 2006 के बाजार मूल्य के अनुसार मूल भूमि का प्रतिकर प्राप्त हुआ।
- प्रतिकर की राशि से असंतुष्ट होकर याचिकाकर्त्ताओं ने राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम की धारा 3छ (5) और 3छ (7) के अधीन जिला कलेक्टर- मेरठ मंडल के समक्ष वाद दायर कर वर्धित प्रतिकर की मांग की।
- 16 अक्टूबर 2020 के विवादित निर्णय के माध्यम से वाद खारिज कर दिया गया ।
- प्रतिवादियों ने माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34 के अधीन याचिका पर विचार करने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय की अधिकारिता के संबंध में प्रारंभिक आपत्ति उठाई।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि उसे प्रादेशिक अधिकारिता का अभाव है, तथा यह याचिका उस सक्षम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिये जिसकी अधिकारिता में बागपत क्षेत्र आता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने यह परिभाषित किया कि माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, के संदर्भ में "न्यायालय (Court)" से अभिप्रेत वह प्रधान सिविल न्यायालय है, जिसे यह अधिकार प्राप्त होता यदि माध्यस्थम् विषयवस्तु पर कोई वाद दायर किया गया होता।
- न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि माध्यस्थम् से संबंधित प्रादेशिक अधिकारिता उस न्यायालय को प्राप्त होती है जिसकी अधिकारिता में वाद की विषयवस्तु स्थित हो, साथ ही जिस क्षेत्र में माध्यस्थम् कार्यवाही आयोजित की गई हो, उन न्यायालयों को भी यह अधिकारिता प्राप्त होती है।
- न्यायालय ने यह भी प्रतिपादित किया कि यदि माध्यस्थम् की सीट को नामित किया गया है, तो वह नामांकन अनन्य अधिकारिता उपबंध के समकक्ष माना जाएगा, जैसा कि BALCO बनाम कैसर एल्युमिनियम टेक्निकल सर्विसेज इंक एवं अन्य वादों में पूर्ववर्ती दृष्टांतों द्वारा स्थापित किया गया है।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिकारिता निर्धारित करने के उद्देश्य से रिट याचिका को माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 42 के अधीन "पूर्ववर्ती आवेदन" के रूप में नहीं समझा जा सकता।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 42 केवल अधिनियम के भाग I के अंतर्गत किये गए आवेदनों पर ही लागू होती है, यदि वे अधिनियम में परिभाषित न्यायालय में किये जाते है।
- न्यायालय ने पुष्टि की कि माध्यस्थम् की विषय-वस्तु को वाद की विषय-वस्तु के समतुल्य नहीं माना जाना चाहिये, क्योंकि पूर्व माध्यस्थम् अधिनियम के भाग-I के अंतर्गत कार्यवाही से संबंधित है।
- न्यायालय ने कहा कि धारा 2(1)( ङ) का उद्देश्य माध्यस्थम् कार्यवाही पर पर्यवेक्षी नियंत्रण रखने वाले न्यायालयों की पहचान करना है, जो माध्यस्थम् की सीट के न्यायालय को संदर्भित करता है।
- न्यायालय ने पाया कि विधायिका ने साशय से दो न्यायालयों को अधिकारिता प्रदान की है: वह न्यायालय जहाँ वाद-हेतुक उत्पन्न हुआ और वह न्यायालय जहाँ माध्यस्थम् होती है।
- न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि चूंकि बागपत माध्यस्थम् के लिये स्वीकृत स्थान है, विचाराधीन भूमि दिल्ली के बाहर स्थित है, तथा विवादित निर्णय बागपत, उत्तर प्रदेश में पारित किया गया था, इसलिये इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के पास प्रादेशिक अधिकारिता नहीं है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि सक्षम न्यायालय, जिसकी अधिकारिता में बागपत आता है, को माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अधीन याचिका पर विचार करने का अधिकार है।
माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 42 क्या है?
बारे में:
- यह धारा एक ऐसी स्थिति की परिकल्पना करती है, जहाँ यदि माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम के भाग I के अधीन किसी न्यायालय में पहले ही आवेदन किया जा चुका है, तो उसी न्यायालय को उस करार और माध्यस्थम् कार्यवाही से उत्पन्न होने वाले सभी बाद के आवेदनों से निपटने का अधिकार दिया जाता है और अन्य न्यायालयों को ऐसे आवेदनों पर विचार करने से रोक दिया जाता है।
- धारा 42 का उद्देश्य माध्यस्थम् से संबंधित सभी कार्यवाहियों पर पर्यवेक्षी अधिकारिता को विशेष रूप से एक ही न्यायालय को सौंपकर न्यायालयों की अधिकारिता में टकराव से बचना है।
घटक:
- माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 42 एक गैर-बाधित खण्ड ("इस भाग में अन्यत्र या वर्तमान में लागू किसी अन्य विधि में निहित किसी भी बात के होते हुए भी") से प्रारंभ होती है, जो इसे प्रभावी रूप से अध्यारोही बनाती है और इसे किसी भी अन्य विरोधाभासी प्रावधानों पर प्राथमिकता देती है।
- यह प्रावधान उस न्यायालय में अनन्य अधिकारिता संबंधी क्षमता स्थापित करता है, जहाँ माध्यस्थम् करार के संबंध में अधिनियम के भाग 1 के अंतर्गत पहला आवेदन दायर किया गया है।
- प्रथम दृष्टया ऐसा न्यायालय उसी माध्यस्थम् करार और उससे संबंधित कार्यवाहियों से उत्पन्न होने वाले सभी अनुवर्ती आवेदनों पर अनन्य अधिकारिता बनाए रखेगा।
- यह प्रावधान अन्य सभी न्यायालयों की अधिकारिता को पूरी तरह से समाप्त कर देता है, जब एक बार इस धारा के अनुसार अधिकारिता का समुचित रूप से उपयोग कर लिया जाता है।
- धारा 42 के आवेदन के लिये, प्रारंभिक आवेदन को "इस भाग के अधीन" (अधिनियम के भाग I) के रूप में योग्य होना चाहिये और इसे अधिनियम की धारा 2(1)(ङ) के अधीन परिभाषित "न्यायालय" के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये।