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सिविल कानून

किसी कंपनी के विरुद्ध धन संबंधी डिक्री का प्रवर्तन

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 02-Aug-2024

धनुष वीर सिंह बनाम डॉ. इला शर्मा   

“निष्पादन न्यायालय, मात्र डिक्री के अनुसार कार्य नहीं कर सकता तथा उसे केवल प्रारूप के अनुसार ही निष्पादित कर सकता है।”

न्यायमूर्ति आशुतोष श्रीवास्तव

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति आशुतोष श्रीवास्तव की पीठ ने कहा कि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके अंतर्गत किसी कंपनी के विरुद्ध जारी आदेश को उस फर्म के कर्मचारी/प्रतिनिधि/निदेशक के विरुद्ध लागू किया जा सके।

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने धनुषवीर सिंह बनाम डॉ. इला शर्मा मामले में यह निर्णय दिया।

धनुषवीर सिंह बनाम डॉ. इला शर्मा मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • वर्तमान मामले में संशोधनवादी, बेनेट कोलमैन के उपाध्यक्ष थे।
  • उन्हें राम देव भगुना नामक व्यक्ति के साथ 9 वर्ष की अवधि के लिये किराये पर पट्टा समझौता करने के लिये विधिवत अधिकृत किया गया था।
  • मकान मालिक ने किरायेदारी समाप्त कर दी और कंपनी से परिसर खाली करने का अनुरोध किया। परिसर खाली नहीं किया गया और वाद बेदखली तथा अंतः कालीन लाभ की वसूली के लिये दायर किया गया।
  • दूसरी ओर कंपनी ने 10 सितंबर 2018 को एक आवेदन दायर किया जिसमें कहा गया कि वह कब्ज़ा सौंपने को तैयार है, परंतु पट्टाकर्त्ता कब्ज़ा नहीं ले रहा है।
  • तद्नुसार, परिसर की चाबियाँ न्यायालय में प्रस्तुत की गईं और यह स्वीकार किया गया कि परिसर का खाली कब्ज़ा विपक्षी पक्ष को सौंप दिया गया था।
  • मकान मालिक द्वारा पहले दायर किये गए वाद पर कार्यवाही की गई और एकपक्षीय डिक्री पारित की गई।
  • डिक्री धारक ने निर्णीत ऋणी के विरुद्ध निष्पादन मामला दायर किया। यह मामला मेसर्स बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड के तत्कालीन महाप्रबंधक श्री विजय साही के विरुद्ध दायर किया गया था।
  • निष्पादन न्यायालय ने माना कि कंपनी के प्रबंध निदेशक के विरुद्ध निष्पादन मामला आगे नहीं बढ़ सकता क्योंकि वह न तो कार्यवाही में पक्ष थे और न ही पक्षों के बीच हस्ताक्षरित पट्टा समझौते में पक्ष थे।
  • डिक्री धारक ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) की धारा 55 के तहत संशोधन कर्त्ता की गिरफ्तारी या अभिरक्षा में लेने के लिये प्रार्थना करते हुए एक आवेदन दायर किया।
  • अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश ने डिक्री धारक के आवेदन को स्वीकार कर लिया तथा पुनरीक्षण कर्त्ता के विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया।
  • इसके लिये, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण कार्यवाही आरंभ की गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय को इस प्रश्न का उत्तर देना था कि क्या किसी लिमिटेड कंपनी के निदेशकों/अधिकृत प्रतिनिधियों को कंपनी के विरुद्ध धन संबंधी डिक्री के निष्पादन के लिये गिरफ्तार किया जा सकता है या सिविल जेल में अभिरक्षा में रखा जा सकता है।
  • न्यायालय ने CPC के विभिन्न प्रावधानों पर विचार करने के बाद माना कि CPC में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो निर्णीत ऋणी के विरुद्ध उसके कर्मचारी, निदेशक या महाप्रबंधक को गिरफ्तार या अभ्रक्षा में लेकर धन संबंधी डिक्री के निष्पादन का प्रावधान करता हो।
  • CPC के आदेश XXI नियम 50 में किसी फर्म के विरुद्ध डिक्री के निष्पादन के लिये उक्त फर्म के भागीदारों की परिसंपत्तियों से संबंधित आदेश पारित करने का प्रावधान है, परंतु किसी कंपनी के निदेशक/कर्मचारी/प्रतिनिधि के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है।
  • न्यायालय ने माना कि निष्पादन न्यायालय मात्र डिक्री के अनुसार कार्य नहीं कर सकता। डिक्री निस्संदेह कंपनी के विरुद्ध है और निष्पादन न्यायालय निर्णीत ऋणी के अतिरिक्त किसी और के विरुद्ध या निर्णीत ऋणी के अतिरिक्त किसी और की संपत्ति/संपत्तियों के विरुद्ध डिक्री को निष्पादित नहीं कर सकता।
  • इस मामले में डिक्री धारक द्वारा प्रस्तुत आधारों में से एक आधार ‘कॉर्पोरेट परदे’ को हटाना था। हालाँकि न्यायालय ने माना कि इस मामले में उपरोक्त सिद्धांत को लागू करने का कोई आधार नहीं है।
  • इस प्रकार, इस मामले में उच्च न्यायालय ने माना कि कंपनी का उपाध्यक्ष होने के कारण पुनरीक्षण कर्त्ता के विरुद्ध धन संबंधी डिक्री निष्पादित नहीं की जा सकती।
  • न्यायालय ने कहा कि डिक्री धारक CPC के आदेश XXI नियम 41 के विशिष्ट प्रावधानों का सहारा ले सकता है और तद्नुसार निष्पादन आवेदन में संशोधन कर सकता है।

CPC के अंतर्गत धन डिक्री के निष्पादन के संबंध में क्या विधान हैं?

CPC की धारा 51:

  • CPC की धारा 51 में डिक्री को निष्पादित करने के तरीके बताए गए हैं।
  • धारा 51 में प्रावधान है कि न्यायालय डिक्री धारक के आवेदन पर निम्नलिखित तरीकों से डिक्री के निष्पादन का आदेश दे सकता है:
    • किसी संपत्ति की विशेष रूप से डिक्री करके उसे सौंपना;
    • कुर्की और बिक्री द्वारा या बिना कुर्की के किसी संपत्ति की बिक्री द्वारा;
    • गिरफ्तारी और जेल में नज़रबंदी द्वारा;
    • रिसीवर नियुक्त करके; या
    • ऐसे अन्य तरीके से जैसा कि दी गई राहत की प्रकृति के लिये आवश्यक हो।
  • धारा 51 के परंतुक में यह प्रावधान है कि जहाँ डिक्री धन के भुगतान के  लिये है, वहाँ कारागार में नज़रबंदी द्वारा निष्पादन का आदेश तब तक नहीं दिया जाएगा, जब तक कि निर्णीत ऋणी को यह कारण बताने का अवसर न दे दिया जाए कि उसे कारागार क्यों न भेजा जाए, तथा न्यायालय, लिखित में दर्ज कारणों से संतुष्ट न हो जाए-
    • यह कि निर्णय-ऋणी, डिक्री के निष्पादन में बाधा डालने या विलंब करने के उद्देश्य या प्रभाव के साथ- 
      • न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं से फरार होने या बाहर जाने की संभावना है, या
      • उस वाद के संस्थित होने के पश्चात् जिसमें डिक्री पारित की गई थी, अपनी संपत्ति का कोई भाग बेईमानी से हस्तांतरित किया, छिपाया या हटाया है, या अपनी संपत्ति के संबंध में कोई अन्य दुर्भावनापूर्ण कार्य किया है, या
    • यह कि निर्णीत ऋणी के पास डिक्री की राशि या उसके किसी पर्याप्त भाग का भुगतान करने का साधन है या डिक्री की तिथि से उसके पास था और वह उसे भुगतान करने से इंकार करता है या उपेक्षा करता है या कर चुका है या नहीं, या
    • यह कि डिक्री उस राशि के लिये है जिसका लेखा देने के  लिये निर्णीत ऋणी, प्रत्ययी की हैसियत में आबद्ध था।

CPC की धारा 55: 

  • CPC की धारा 55 में गिरफ्तारी या नज़रबंदी द्वारा डिक्री के निष्पादन का प्रावधान है।
  • धारा 55 (1) में यह प्रावधान है कि डिक्री के निष्पादन में, निर्णीत ऋणी को किसी भी समय और किसी भी दिन गिरफ्तार किया जा सकता है तथा उसे यथाशीघ्र न्यायालय के समक्ष लाया जाएगा एवं उसकी नज़रबंदी उस जिले के सिविल कारागार में की जा सकती है जिसमें नज़रबंदी का आदेश देने वाला न्यायालय स्थित है या जहाँ ऐसी सिविल कारागार में उपयुक्त स्थान नहीं है वहाँ किसी अन्य स्थान में जिसे राज्य सरकार ऐसे जिले के न्यायालयों द्वारा निरुद्ध किये जाने के आदेश दिये गए व्यक्तियों के निरुद्ध किए जाने के लिये नियुक्त करे।
  • धारा 55(1) से चार प्रावधान जुड़े हुए हैं:
  • सबसे पहले, इस धारा के अंतर्गत गिरफ्तारी करने के प्रयोजन के लिये सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पूर्व किसी आवास में प्रवेश नहीं किया जाएगा;
    • दूसरे, किसी आवास-गृह का कोई बाहरी दरवाज़ा तब तक नहीं तोड़ा जाएगा जब तक कि ऐसा आवास-गृह निर्णीत ऋणी के कब्ज़े में न हो और वह उसमें प्रवेश करने से इंकार कर दे या किसी भी तरह से रोके, परंतु जब गिरफ्तारी करने के लिये अधिकृत अधिकारी किसी आवास-गृह में सम्यक् रूप से प्रवेश कर लेता है, तो वह किसी भी कमरे का दरवाज़ा तोड़ सकता है जिसके बारे में उसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि निर्णीत ऋणी उसमें पाया जा सकता है;
    • तीसरा, यदि वह वास्तव में किसी महिला के कब्ज़े में है, जो निर्णीत ऋणी नहीं है और जो देश की प्रथाओं के अनुसार सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं होती है, तो गिरफ्तारी करने के लिये अधिकृत अधिकारी उसे नोटिस देगा कि वह हटने के लिये स्वतंत्र है, और उसे हटने के लिये उचित समय देने तथा उसे हटने के लिये उचित सुविधा देने के बाद, गिरफ्तारी करने के उद्देश्य से कमरे में प्रवेश कर सकता है;
    • चौथा, जहाँ वह डिक्री, जिसके निष्पादन में निर्णीत ऋणी को गिरफ्तार किया गया है, धन के भुगतान के लिये डिक्री है और निर्णीत ऋणी डिक्री की रकम तथा गिरफ्तारी का खर्च, उसे गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को दे देता है, वहाँ ऐसा अधिकारी उसे तुरंत छोड़ देगा।
  • धारा 55 (2) में यह प्रावधान है कि राज्य सरकार, आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना द्वारा यह घोषित कर सकती है कि कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का वर्ग जिसकी गिरफ्तारी से जनता को खतरा या असुविधा हो सकती है, उसे राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही गिरफ्तार किया जा सकेगा, अन्यथा नहीं।
  • धारा 55 (3) में यह प्रावधान है कि जहाँ किसी निर्णीत ऋणी को धन के भुगतान के  लिये किसी डिक्री के निष्पादन में गिरफ्तार किया जाता है और न्यायालय के समक्ष लाया जाता है, तो न्यायालय उसे सूचित करेगा कि वह दिवालिया घोषित किये जाने के लिये आवेदन कर सकता है, और यदि उसने आवेदन के विषय के संबंध में कोई दुर्भावनापूर्ण कार्य नहीं किया है तथा यदि वह वर्तमान में लागू दिवालियापन विधि के प्रावधानों का अनुपालन करता है, तो उसे उन्मोचित किया जा सकता है।
  • धारा 55(4) में यह प्रावधान है कि जहाँ कोई निर्णीत-ऋणी दिवालिया घोषित किये जाने के लिये आवेदन करने का अपना इरादा व्यक्त करता है और न्यायालय की संतुष्टि के लिये सुरक्षा प्रदान करता है कि वह एक महीने के भीतर ऐसा आवेदन करेगा तथा जब बुलाया जाएगा तो वह आवेदन पर या उस डिक्री पर किसी कार्यवाही में उपस्थित होगा जिसके निष्पादन में उसे गिरफ्तार किया गया था, तो न्यायालय उसे गिरफ्तारी से रिहा कर सकता है एवं यदि वह ऐसा आवेदन करने और उपस्थित होने में विफल रहता है तो न्यायालय या तो सुरक्षा प्राप्त करने का निर्देश दे सकता है या डिक्री के निष्पादन में उसे सिविल कारागार में सौंप सकता है।

CPC का आदेश XXI: 

  • आदेश XXI नियम 10 में निष्पादन का आवेदन डिक्री धारक द्वारा किये जाने का प्रावधान है।
    • इसमें यह प्रावधान है कि जहाँ डिक्री का धारक उसे निष्पादित करना चाहता है, वहाँ वह उस न्यायालय को आवेदन करेगा जिसने डिक्री पारित की है या इस निमित्त नियुक्त अधिकारी को (यदि कोई हो) आवेदन करेगा, या यदि डिक्री इसमें पूर्व में अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन किसी अन्य न्यायालय को भेजी गई है तो वह ऐसे न्यायालय को या उसके समुचित अधिकारी को आवेदन करेगा।
  • आदेश XXI नियम 11 A में प्रावधान है कि जहाँ निर्णीत ऋणी की गिरफ्तारी या अभिरक्षा के लिये आवेदन किया जाता है, वहाँ उन आधारों का उल्लेख किया जाना चाहिये जिन पर गिरफ्तारी के लिये आवेदन किया गया है।
  • आदेश XXI नियम 30 में यह प्रावधान है कि धन के भुगतान के लिये प्रत्येक डिक्री, जिसमें किसी अन्य अनुतोष के विकल्प के रूप में धन के भुगतान के लिये डिक्री भी शामिल है, निर्णीत ऋणी को सिविल कारागार में निरुद्ध करके, या उसकी संपत्ति की कुर्की और बिक्री करके, या दोनों तरीकों से निष्पादित की जा सकेगी।
  • आदेश XXI नियम 37 में प्रावधान है कि जहाँ गिरफ्तारी वारंट जारी करने के बजाय गिरफ्तारी द्वारा डिक्री के भुगतान के निष्पादन के लिये आवेदन किया जाता है, वहाँ न्यायालय उसे न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने और कारण बताने के लिये नोटिस जारी कर सकता है कि उसे गिरफ्तार क्यों न किया जाए। जहाँ नोटिस के पालन में कोई उपस्थिति नहीं हुई है, वहाँ न्यायालय निर्णीत ऋणी की गिरफ्तारी के लिये वारंट जारी कर सकता है।
  • आदेश XXI नियम 38 में यह प्रावधान है कि गिरफ्तारी के लिये प्रत्येक वारंट में अधिकारी को निर्देश दिया जाएगा कि वह उत्तरदायी व्यक्ति को शीघ्रता से न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करे।
  • आदेश XXI नियम 40 में नोटिस के अनुपालन में या गिरफ्तारी के बाद निर्णीत ऋणी की उपस्थिति पर कार्यवाही का प्रावधान है।
    • खंड (1) में यह प्रावधान है कि जब किसी व्यक्ति को नोटिस या गिरफ्तारी पर न्यायालय के समक्ष लाया जाता है या वह उपस्थित होता है, तो न्यायालय उसकी सुनवाई करेगा और निष्पादन के  लिये आवेदन के समर्थन में सभी साक्ष्य लेगा तथा निर्णीत ऋणी को यह कारण बताने का अवसर देगा कि उसे सिविल कारागार में क्यों न भेजा जाए।
    • खंड (2) में यह प्रावधान है कि उपनियम (1) के अंतर्गत जाँच पूरी होने तक न्यायालय अपने विवेकानुसार निर्णीत ऋणी को न्यायालय के किसी अधिकारी की अभिरक्षा में निरुद्ध रखने का आदेश दे सकता है अथवा आवश्यकता पड़ने पर उसकी उपस्थिति के  लिये न्यायालय की संतुष्टि के अनुरूप प्रतिभूति प्रस्तुत करने पर उसे रिहा कर सकता है।
    • खंड (3) में यह प्रावधान है कि उपनियम (1) के अधीन जाँच के समापन पर न्यायालय धारा 51 के उपबंधों और संहिता के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, निर्णीत ऋणी को सिविल कारागार में निरुद्ध करने का आदेश दे सकेगा तथा उस स्थिति में उसे गिरफ्तार करवा सकेगा, यदि वह पहले से ही गिरफ्तार न हो:
    • परंतु निर्णीत-ऋणी को डिक्री की तुष्टि करने का अवसर देने के लिये न्यायालय, निरुद्धि का आदेश देने से पूर्व निर्णीत ऋणी को न्यायालय के किसी अधिकारी की अभिरक्षा में पन्द्रह दिन तक की विनिर्दिष्ट अवधि के  लिये छोड़ सकेगा या यदि डिक्री की तुष्टि पहले नहीं की जाती है तो विनिर्दिष्ट अवधि की समाप्ति पर उसके उपस्थित होने के  लिये न्यायालय के समाधानप्रद रूप में प्रतिभूति देने पर उसे छोड़ सकेगा।
    • खंड (4) में प्रावधान है कि इस नियम के अंतर्गत रिहा किये गए निर्णीत ऋणी को पुनः गिरफ्तार किया जा सकता है।
    • खंड (5) में यह प्रावधान है कि जब न्यायालय उपनियम (3) के अंतर्गत निरुद्धि का आदेश नहीं देता है तो वह आवेदन को अस्वीकार कर देगा और यदि निर्णीत ऋणी गिरफ्तार है तो उसकी रिहाई का निर्देश देगा।

किसी कंपनी के विरुद्ध डिक्री का निष्पादन कैसे किया जाता है?

CPC के आदेश XXI का नियम 50:

  • CPC के आदेश XXI नियम 50 में फर्म के विरुद्ध डिक्री के निष्पादन का प्रावधान है।
    • खंड (1) में यह प्रावधान है कि जहाँ किसी फर्म के विरुद्ध डिक्री पारित की गई है, वहाँ निष्पादन प्रदान किया जा सकता है- 
      • भागीदारी की किसी भी संपत्ति के विरुद्ध;
      • किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध, जो आदेश XXX के नियम 6 या नियम 7 के अधीन अपने नाम से उपस्थित हुआ है या जिसने अभिवचनों में स्वीकार किया है कि वह भागीदार है या भागीदार न्यायनिर्णीत किया गया है;
      • किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध जिसे भागीदार के रूप में व्यक्तिगत रूप से समन भेजा गया हो और जो उपस्थित होने में विफल रहा हो:
    • परंतु इस उपनियम की कोई बात भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 (1932 का 9) की धारा 30 के उपबंधों को सीमित करने वाली या अन्यथा प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी।
    • खंड (2) में यह प्रावधान है कि जहाँ डिक्रीदार यह दावा करता है कि वह फर्म में भागीदार होने के नाते उपनियम (1) के खंड (b) और (c) में निर्दिष्ट व्यक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध डिक्री निष्पादित कराने का अधिकारी है, वहाँ वह डिक्री पारित करने वाले न्यायालय से अनुमति के  लिये आवेदन कर सकता है और जहाँ दायित्व विवादित नहीं है, वहाँ ऐसा न्यायालय ऐसी अनुमति प्रदान कर सकता है या जहाँ ऐसा दायित्व विवादित है, वहाँ यह आदेश दे सकता है कि ऐसे व्यक्ति के दायित्व का परीक्षण तथा निर्धारण किसी ऐसे तरीके से किया जाए, जिस तरह से किसी वाद में किसी मुद्दे का परीक्षण और निर्धारण किया जा सकता है।
    • खंड (3) में यह प्रावधान है कि जहाँ किसी व्यक्ति के दायित्व का उपनियम (2) के अधीन परीक्षण और निर्धारण किया गया है, वहाँ उस पर पारित आदेश का वही बल होगा एवं वह अपील या अन्यथा के संबंध में उन्हीं शर्तों के अधीन होगा, जैसे कि वह डिक्री हो।
    • खंड (4) में यह प्रावधान है कि साझेदारी की किसी संपत्ति के विरुद्ध को छोड़कर, किसी फर्म के विरुद्ध डिक्री उसमें किसी भागीदार को पट्टे पर नहीं देगी, उत्तरदायी नहीं बनाएगी या अन्यथा प्रभावित नहीं करेगी, जब तक कि उसे उपस्थित होने और उत्तर देने के  लिये समन न दे दिया गया हो।
    • खंड (5) में यह प्रावधान है कि इस नियम की कोई बात आदेश XXX के नियम 10 के प्रावधान के आधार पर हिंदू अविभाजित परिवार के विरुद्ध पारित डिक्री पर लागू नहीं होगी।

वी.के. उप्पल बनाम अक्षय इंटरनेशनल प्राइवेट लिमिटेड (2010):

  • इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने किसी कंपनी के विरुद्ध डिक्री के निष्पादन के संबंध में विधान बनाया। न्यायालय ने विधान इस प्रकार बनाया:
    • यद्यपि CPC के आदेश XXI नियम 50 में भागीदारों की परिसंपत्तियों से फर्म के विरुद्ध डिक्री के निष्पादन का प्रावधान है, परंतु कंपनी के निदेशकों के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है।
    • निष्पादन न्यायालय मात्र डिक्री के अनुसार कार्य नहीं कर सकता।
    • यदि डिक्री कंपनी के विरुद्ध है, तो निष्पादन न्यायालय निर्णीत ऋणी कंपनी के अतिरिक्त किसी अन्य के विरुद्ध या निर्णीत ऋणी कंपनी के अतिरिक्त किसी अन्य की परिसंपत्तियों के विरुद्ध डिक्री का निष्पादन नहीं कर सकता है।
    • किसी कंपनी के निदेशक या शेयरधारक की पहचान कंपनी से अलग होती है (सोलोमन बनाम सोलोमन (1897))
      • समय के साथ सोलोमन बनाम सोलोमन (1897) में निर्धारित सिद्धांत को कमज़ोर कर दिया गया है क्योंकि कॉर्पोरेट पर्दे को हटाने की अवधारणा विकसित हुई है। धोखाधड़ी और अनुचित आचरण के मामलों में कॉर्पोरेट पर्दे को हटाया जा सकता है (सिंगर इंडिया लिमिटेड बनाम चंद्र मोहन चड्ढा (2004)) परंतु इसके विषय में मामला बनाया जाना चाहिये।