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आपराधिक कानून
अग्रिम जमानत का अधिकार
« »10-Apr-2025
गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय बनाम आदित्य सारदा "यदि वह वारंट के निष्पादन में बाधा उत्पन्न कर रहा है या स्वयं को छिपा रहा है तथा विधि के प्राधिकार के अधीन नहीं है, तो उसे अग्रिम जमानत का विशेषाधिकार नहीं दिया जाना चाहिये, विशेषकर तब जब संज्ञान लेने वाली न्यायालय ने उसे प्रथम दृष्टया गंभीर आर्थिक अपराधों या जघन्य अपराधों में संलिप्त पाया हो।" न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी एवं पी.बी. वराले |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी एवं न्यायमूर्ति पी.बी. वराले की पीठ ने कहा कि विधि से बचने या वारंट के निष्पादन में बाधा डालने वाले अभियुक्त को अग्रिम जमानत का अधिकार नहीं है, विशेष रूप से गंभीर आर्थिक या जघन्य अपराधों से जुड़े मामलों में।
- उच्चतम न्यायालय ने गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय बनाम आदित्य सारदा (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय बनाम आदित्य सारदा मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 211 के अंतर्गत गठित एक सांविधिक निकाय, गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (SFIO) को आदर्श समूह की 125 कंपनियों के मामलों की जाँच करने के लिये कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय द्वारा निर्देशित किया गया था।
- मुकेश मोदी द्वारा स्थापित एक बहु-राज्य क्रेडिट कोऑपरेटिव सोसाइटी, आदर्श क्रेडिट कोऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड (ACCSL) की मई 2018 तक 800 से अधिक शाखाएँ, 20 लाख सदस्य, 3.7 लाख सलाहकार एवं 9253 करोड़ रुपये की बकाया जमा राशि थी।
- जाँच करने पर, SFIO ने पाया कि ACCSL द्वारा मुकेश मोदी, राहुल मोदी एवं उनके सहयोगियों द्वारा नियंत्रित 70 आदर्श समूह कंपनियों को अवैध रूप से 1700 करोड़ रुपये का धन उधार दिया गया था।
- ये अवैध ऋण इस स्थापित स्थिति के विपरीत थे कि कंपनियाँ बहु-राज्यीय ऋण सहकारी समिति की सदस्य नहीं हो सकती हैं तथा इसलिये ऐसी समितियों से ऋण प्राप्त नहीं कर सकती हैं।
- जाँच में पता चला कि मार्च 2018 तक ऐसे अवैध ऋणों का कुल बकाया शेष 4120 करोड़ रुपये था।
- ये ऋण कथित तौर पर आदर्श समूह से संबंधित कंपनियों के निदेशकों द्वारा प्रस्तुत जाली वित्तीय दस्तावेजों के आधार पर प्राप्त किये गए थे।
- SFIO ने कंपनी अधिनियम और भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत विभिन्न अपराधों के लिये गुरुग्राम की विशेष न्यायालय में 181 आरोपियों के विरुद्ध आपराधिक शिकायत (COMA/5/2019) दर्ज की।
- विशेष न्यायालय ने सभी कथित अपराधों का संज्ञान लिया तथा प्रतिवादियों सहित सभी आरोपियों के विरुद्ध जमानती वारंट जारी किये।
- प्रतिवादी-आरोपी कथित तौर पर स्वयं को छिपाकर तथा अपने दिये गए पते पर स्वयं को उपस्थित न कराकर वारंट के निष्पादन से बचते रहे, जिसके कारण विशेष न्यायालय ने उनके विरुद्ध गैर-जमानती वारंट जारी किये तथा उद्घोषणा कार्यवाही शुरू की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब कोई व्यक्ति वारंट के निष्पादन में बाधा उत्पन्न करता है या स्वयं को छिपाता है, तो उसे अग्रिम जमानत का विशेषाधिकार नहीं मिलता, विशेषकर तब जब न्यायालय ने पाया हो कि वह प्रथम दृष्टया गंभीर आर्थिक अपराधों में संलिप्त है।
- न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने कंपनी अधिनियम की धारा 212(6) में निहित अनिवार्य शर्तों की पूरी तरह अवहेलना करते हुए तथा प्रतिवादी-आरोपी के आचरण की अनदेखी करते हुए प्रतिवादियों को अग्रिम जमानत प्रदान की थी।
- उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि प्रत्येक व्यक्ति को विधि का पालन करना चाहिये, विधि का सम्मान करना चाहिये तथा उचित प्रक्रिया का पालन करना चाहिये, तथा कहा कि "विधि केवल पालन करने वालों की सहायता करता है, निश्चित रूप से इसका विरोध करने वालों की नहीं।"
- न्यायालय ने कहा कि मजिस्ट्रेट न्यायालयों सहित प्रत्येक न्यायालय का न्यायिक समय उतना ही मूल्यवान एवं महत्त्वपूर्ण है जितना कि उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय का।
- न्यायालय ने कहा कि समन या वारंट के निष्पादन से बचना, न्यायालय के आदेशों की अवहेलना करना और कार्यवाही में विलंब करना न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करने एवं बाधा उत्पन्न करने के समान है।
- न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी-अभियुक्तों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिये विशेष न्यायालय द्वारा की गई कार्यवाही और पारित विस्तृत आदेशों पर विचार करने में विफल रहा।
- उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय के आदेश विधि की दृष्टि से विकृत एवं अस्थिर थे, क्योंकि उन्होंने गंभीर आर्थिक अपराधों के मामलों में अग्रिम जमानत के संबंध में सुस्थापित विधिक स्थितियों की अनदेखी की।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023. (BNSS) की धारा 482 क्या है?
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 482 में अग्रिम जमानत का प्रावधान है, जिसके अंतर्गत गैर-जमानती अपराध के लिये गिरफ्तारी के डर से व्यक्ति उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में अग्रिम जमानत के लिये आवेदन कर सकता है।
- 1 जुलाई, 2024 को BNSS के प्रभावी होने पर इस प्रावधान ने दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 438 को प्रतिस्थापित कर दिया।
- धारा 482 (2) के अंतर्गत, न्यायालयें पुलिस पूछताछ के लिये अनिवार्य उपलब्धता, साक्षियों को प्रभावित करने पर रोक और न्यायालय की अनुमति के बिना भारत छोड़ने पर प्रतिबंध सहित शर्तें लगा सकती हैं।
- अग्रिम जमानत की अवधारणा 41वीं विधि आयोग की रिपोर्ट से विकसित हुई, जिसमें अभिरक्षा के माध्यम से व्यक्तियों को मिथ्या आरोप एवं अपमान से बचाने की आवश्यकता को मान्यता दी गई थी।
- जबकि BNSS की धारा 482 अग्रिम जमानत के लिये आवश्यक ढाँचे को यथावत बनाए रखती है, यह उन कारकों को छोड़ देती है जिन्हें न्यायालयों को पहले CrPC की धारा 438 के अंतर्गत विचार करने की आवश्यकता होती थी।
- पूर्व धारा 438 के खंड (1A) और (1B), जिनमें यौन अपराधों के संबंध में विशेष प्रावधान थे, को BNSS से निरसित कर दिया गया है।
- CrPC में मूल प्रावधान से खंड (2), (3) एवं (4) को BNSS की धारा 482 में उसी रूप में बनाए रखा गया है।
- धारा 482(3) के अंतर्गत, यदि अग्रिम जमानत प्राप्त व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार किया जाता है, तो उसे जमानत पर रिहा किया जाएगा; तथा यदि मजिस्ट्रेट वारंट जारी करने का निर्णय लेता करता है, तो यह न्यायालय के निर्देश के अनुरूप जमानती वारंट होना चाहिये।