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सिविल कानून

स्वामी सेवक संबंध

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 25-Mar-2025

संयुक्त सचिव, केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड बनाम राज कुमार मिश्रा

"किसी भी संगठन के अंतर्गत रोजगार का दावा करने के लिये, कागज पर प्रत्यक्ष स्वामी-सेवक संबंध स्थापित होना आवश्यक है।"

न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह एवं प्रशांत कुमार मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह एवं न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने कहा है कि रोजगार के दावे के लिये प्रत्यक्ष स्वामी-सेवक संबंध का दस्तावेजीकरण किया जाना चाहिये।

  • उच्चतम न्यायालय ने संयुक्त सचिव, केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड बनाम राज कुमार मिश्रा (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

संयुक्त सचिव, केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड बनाम राज कुमार मिश्रा (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • राज कुमार मिश्रा मेसर्स मैनपावर सिक्योरिटी सर्विसेज नामक एक ठेकेदार के माध्यम से CBSE में जूनियर असिस्टेंट के रूप में कार्य कर रहा था। 
  • 1999 में, मिश्रा की सेवाओं को एक मौखिक आदेश के माध्यम से समाप्त कर दिया गया था, जिसके विषय में उन्होंने दावा किया था कि यह अवैध एवं अनुचित था। 
  • मिश्रा और CBSE के बीच सुलह की कार्यवाही उनके रोजगार की स्थिति के विषय में विवाद को हल करने में विफल रही। 
  • बाद में मामले को विस्तृत जाँच के लिये कानपुर में केंद्रीय औद्योगिक अधिकरण को भेज दिया गया। 
  • अधिकरण ने शुरू में पाया कि मिश्रा CBSE में कार्यरत था तथा एक कर्मचारी के रूप में कार्य कर चुका था उसे 1 लाख रुपये का क्षतिपूर्ति दिया गया।
  • क्षतिपूर्ति दिये जाने के बावजूद, अधिकरण ने मिश्रा को उनके पूर्व पद पर बहाल करने का आदेश नहीं दिया। 
  • मिश्रा ने इस निर्णय को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 25 (f) के अंतर्गत बहाली अनिवार्य होनी चाहिये थी। 
  • CBSE ने लगातार कहा कि मिश्रा एक संविदात्मक कर्मचारी था तथा स्थायी कर्मचारी नहीं था, उसने अपने रोजगार प्रकृति के साक्ष्य के तौर पर ठेकेदार के बिल प्रस्तुत किये। 
  • मुख्य विवाद इस बिंदु पर केंद्रित था कि क्या मिश्रा का CBSE के साथ सीधा स्वामी-सेवक का रिश्ता था या वह सिर्फ़ एक मैनपावर एजेंसी द्वारा आपूर्ति किया गया संविदात्मक कर्मचारी था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने स्वामी-सेवक संबंध स्थापित करने के मौलिक विधिक सिद्धांत की सावधानीपूर्वक जाँच की, तथा इस तथ्य पर बल दिया कि इस तरह के संबंध को स्पष्ट कागजी कार्यवाही के माध्यम से निर्णायक रूप से प्रलेखित किया जाना चाहिये। 
  • न्यायालय ने प्रतिवादियों की प्राथमिक दलील की आलोचनात्मक जाँच की कि पर्यवेक्षी एवं न्यायिक नियंत्रण स्वचालित रूप से रोजगार संबंध का गठन करते हैं, तथा इस सरल विधिक निर्वचन को प्राथमिक दृष्टया खारिज कर दिया। 
  • व्यापक विश्लेषण के बाद, न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि केवल विभिन्न स्थानों पर तैनात होना तथा विभिन्न कार्य कर्त्तव्यों का पालन करना स्वाभाविक रूप से प्रत्यक्ष रोजगार अपराध या स्वामी-सेवक संबंध स्थापित नहीं करता है।
  • न्यायिक पीठ ने प्रस्तुत दस्तावेजी साक्ष्य का व्यापक मूल्यांकन किया तथा पाया कि प्रतिवादियों के अपीलकर्त्ताओं के प्रत्यक्ष कर्मचारी होने के दावे को मान्य करने के लिये पर्याप्त ठोस साक्ष्य नहीं हैं।
  • दस्तावेजी साक्ष्य की अनुपस्थिति को स्वीकार करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि मामले को श्रम न्यायालय में वापस भेजना एक निरर्थक प्रक्रिया होगी, जिससे अधिकारिता संबंधी विवाद को हल करने के लिये सीधे हस्तक्षेप करना पड़ेगा।
  • न्यायालय ने अंततः अपीलों को अनुमति दे दी, रिमांड के लिये उच्च न्यायालय के आदेशों को खारिज कर दिया तथा प्रतिवादियों को दिये गए पिछले पंचाटों को प्रभावी ढंग से रद्द कर दिया।

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 25(F) क्या है?

  • औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 25F, कर्मकारों की छंटनी के लिये पूर्व शर्तों से संबंधित है। 
  • धारा 25F विशिष्ट प्रक्रियात्मक एवं प्रतिपूरक आवश्यकताओं को अनिवार्य बनाती है, जिनका नियोक्ता को ऐसे कर्मकार की छंटनी करने से पहले सख्ती से पालन करना चाहिये, जिसने कम से कम एक वर्ष की निरंतर सेवा पूरी कर ली हो। 
  • यह प्रावधान वैध छंटनी के लिये तीन महत्वपूर्ण शर्तें स्थापित करता है:
    • कर्मचारी को एक महीने का लिखित नोटिस देना, जिसमें छंटनी के कारणों को स्पष्ट रूप से बताना शामिल है। 
    • वैकल्पिक रूप से, नोटिस अवधि के बदले में पूर्ण वेतन का भुगतान करना। 
    • निरंतर सेवा के प्रत्येक पूर्ण वर्ष के लिये पंद्रह दिनों के औसत वेतन के बराबर पूर्ण वेतन क्षतिपूर्ति सुनिश्चित करना।
  • क्षतिपूर्ति की गणना विशेष रूप से श्रमिकों के वित्तीय हितों की रक्षा के लिये की गई है, जिसमें निम्नलिखित प्रावधान हैं:
    • सेवा के प्रत्येक पूर्ण वर्ष के लिये पन्द्रह दिनों का औसत वेतन।
    • छह महीने से अधिक की सेवा अवधि के लिये आनुपातिक क्षतिपूर्ति।
  • नियोक्ता विधिक रूप से अभिनिर्धारित आधिकारिक चैनल के माध्यम से उपयुक्त सरकारी प्राधिकरण या निर्दिष्ट सरकारी-नामित प्राधिकरण को औपचारिक नोटिस देने के लिये बाध्य है। 
  • ये शर्तें अनिवार्य एवं अपरक्राम्य हैं, जो मनमाने ढंग से पदच्युति के विरुद्ध श्रमिकों के लिये एक सांविधिक सुरक्षा तंत्र बनाती हैं। 
  • इन निर्दिष्ट शर्तों का पालन किये बिना की गई किसी भी छंटनी को औद्योगिक विधि के अंतर्गत अवैध एवं संभावित रूप से कार्यवाही योग्य माना जाएगा। 
  • प्रावधान का मूल उद्देश्य कार्यबल में कमी प्रक्रियाओं में निष्पक्ष उपचार, वित्तीय सुरक्षा और प्रक्रियात्मक पारदर्शिता सुनिश्चित करना है।