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पारिवारिक कानून
निर्वाहिका तय करने वाले कारक
« »16-Dec-2024
परवीन कुमार जैन बनाम अंजू जैन "स्थायी निर्वाहिका पति पर अनुचित भार डाले बिना पत्नी के लिये एक सभ्य जीवन सुनिश्चित करने के बीच संतुलन होना चाहिये, जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने रेखांकित किया है।" जस्टिस विक्रम नाथ और प्रसन्ना बी. वराले |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
परवीन कुमार जैन बनाम अंजू जैन के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक पति को निर्देश दिया कि वह अपनी पत्नी को एकमुश्त समझौते के तहत 5 करोड़ रुपए स्थायी निर्वाहिका के रूप में दे, क्योंकि उसने अपने विवाह को "पूरी तरह से टूटा हुआ" घोषित कर दिया था।
- न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने उनके बेटे के भरण-पोषण के लिये 1 करोड़ रुपए देने का भी आदेश दिया। पति की वित्तीय क्षमता और पत्नी की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए इस निर्णय में पति को दंडित किये बिना निष्पक्षता पर ज़ोर दिया गया।
परवीन कुमार जैन बनाम अंजू जैन मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- परवीन कुमार जैन और अंजू जैन का विवाह 13 दिसंबर, 1998 को पारंपरिक हिंदू रीति-रिवाजों के साथ हुआ और मई 2001 में उनके एक पुत्र का जन्म हुआ।
- इस युगल का वैवाहिक संबंध शीघ्र ही खराब हो गया तथा लगभग पाँच वर्ष तक साथ रहने के बाद जनवरी 2004 में दोनों अलग हो गए।
- मई 2004 में पति ने क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिये अर्ज़ी दायर की, जिसमें आरोप लगाया गया कि उसकी पत्नी गुस्सैल है तथा उसके और उसके परिवार के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार रखती है।
- पत्नी ने इन आरोपों का खंडन करते हुए दावा किया कि उसके पति और उसके परिवार ने उसके साथ बुरा व्यवहार किया, वह पत्नी की बजाय घरेलू सहायिका जैसा महसूस करती थी, और अंततः अपनी सुरक्षा के डर से उसने वैवाहिक घर छोड़ दिया।
- उनके अलगाव के दौरान, कई कानूनी कार्यवाहियाँ शुरू की गईं, जो मुख्य रूप से पत्नी और बेटे के भरण-पोषण के संबंध में थीं, तथा दोनों पक्षों ने वर्षों से विभिन्न न्यायालयी आदेशों को चुनौती दी थी।
- अलगाव के दौरान पत्नी बेरोज़गार रही तथा अपनी माँ के स्वामित्व वाले मकान में अपने बेटे के साथ रहती रही, जबकि पति ने बैंकिंग में सफल करियर बनाया, वरिष्ठ पदों पर काम किया तथा अंततः दुबई में CEO बन गया।
- सुलह के प्रयासों के बावजूद, दम्पति के संबंध में गिरावट जारी रही, मुकदमेबाज़ी लंबी चली और पुनर्मिलन की कोई संभावना नहीं रही।
- लगभग दो दशकों के अलगाव और कई न्यायालयी लड़ाइयों के बाद, दोनों पक्ष आपसी सहमति से इस बात पर सहमत हुए कि उनका विवाह पूरी तरह से टूट चुका है और उन्होंने इसे समाप्त करने पर सहमति दे दी।
- उच्चतम न्यायालय ने अंततः उनके विवाह को विघटित करने तथा एक व्यापक वित्तीय समझौता प्रदान करने का निर्णय लिया, जिससे पत्नी और बेटे का भविष्य सुरक्षित हो सके।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने विवाह के अपूरणीय रूप से टूट जाने की घटना की सावधानीपूर्वक जाँच की, तथा दो दशकों से अधिक समय तक अलग रहने, अनेक गंभीर आरोपों तथा वर्ष 2004 से सहवास के पूर्ण अभाव जैसे कारकों पर विचार किया।
- न्यायालय ने कहा कि लगभग पाँच से छह वर्षों तक एक साथ रहने के बावजूद, पक्षों के बीच संबंध लगातार तनावपूर्ण रहे तथा दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के विरुद्ध दुराचार के गंभीर आरोप लगाए।
- न्यायिक उदाहरणों, विशेषकर शिल्पा शैलेश और किरण ज्योत मैनी के मामलों का संदर्भ, विवाह के पूर्णतः और अपरिवर्तनीय रूप से टूट जाने पर उसे विघटित करने की न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति को प्रमाणित करने के लिये दिया गया।
- न्यायालय ने माना कि विवाह-विच्छेद की कार्यवाही के दौरान सुलह के प्रयास विफल हो गए थे, तथा लंबे समय तक चले भरण-पोषण के मुकदमे से वैवाहिक संबंध में अपूरणीय क्षति का संकेत मिलता है।
- संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत विवाह-विच्छेद करते हुए उच्चतम न्यायालय ने आश्रित जीवनसाथी के लिये वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर बल दिया, विशेष रूप से पत्नी की बेरोज़गारी और बेटे के हाल ही में स्नातक होने को ध्यान में रखते हुए।
- न्यायालय ने पति की वित्तीय क्षमता का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन किया, तथा उसकी वरिष्ठ बैंकिंग भूमिकाओं, पर्याप्त निवेशों, अनेक संपत्तियों तथा दुबई में CEO के रूप में वर्तमान पद को ध्यान में रखते हुए, एक न्यायसंगत एकमुश्त समझौता निर्धारित किया।
- अंततः उच्चतम न्यायालय ने विवाह-विच्छेद को एक दंडात्मक उपाय के रूप में नहीं, बल्कि एक न्यायोचित और उचित वित्तीय व्यवस्था प्रदान करने के साधन के रूप में देखा, जो पत्नी और बेटे दोनों के भविष्य को सुरक्षित करेगा।
निर्वाहिका के लिये उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देश क्या हैं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि निम्नलिखित दिशानिर्देश कोई कठोर फार्मूला नहीं हैं, बल्कि निष्पक्ष एवं न्यायोचित निर्वाहिका निपटान सुनिश्चित करने के लिये लचीले सिद्धांत हैं।
- पति और पत्नी की सामाजिक और आर्थिक स्थिति।
- पत्नी और बच्चों की भविष्य की बुनियादी ज़रूरतें।
- दोनों पक्षों की योग्यता और रोज़गार की स्थिति।
- आय के साधन और स्वामित्व वाली संपत्ति।
- विवाह के दौरान पत्नी का जीवन स्तर।
- पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के लिये किये गए रोज़गार के त्याग।
- गैर-कामकाजी पत्नियों के लिये उचित मुकदमेबाज़ी की लागत।
- पति की वित्तीय क्षमता, आय और भरण-पोषण की ज़िम्मेदारियाँ।
बेंगलुरू तकनीकी विशेषज्ञ की घटना:
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हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25
- परिचय:
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 25, विवाह-विच्छेद या अलगाव के बाद पति-पत्नी के बीच स्थायी निर्वाहिका और भरण-पोषण से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण प्रावधान है।
- धारा 25 का प्राथमिक उद्देश्य विवाह-विच्छेद के बाद दोनों पक्षों की आर्थिक परिस्थितियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए जीवनसाथी के लिये वित्तीय सुरक्षा और सहायता सुनिश्चित करना है।
- धारा 25 विवाह-विच्छेद के बाद वित्तीय व्यवस्था के लिये एक प्रगतिशील दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती है, जो विवाह-विच्छेद के बाद पति-पत्नी की संभावित आर्थिक कमज़ोरियों को पहचानती है तथा उनकी सुरक्षा और सहायता के लिये एक कानूनी तंत्र प्रदान करती है।
- भरण-पोषण आदेश का दायरा:
- विवाह-विच्छेद का आदेश पारित करते समय या किसी भी बाद के समय में भरण-पोषण देने के लिये न्यायालय के पास व्यापक विवेकाधीन शक्तियाँ होती हैं।
- पति या पत्नी में से कोई भी भरण-पोषण के लिये आवेदन कर सकता है।
- भरण-पोषण इस प्रकार प्रदान किया जा सकता है:
- सकल राशि (एकमुश्त भुगतान)।
- मासिक या आवधिक भुगतान।
- आवेदक के जीवन काल से अधिक अवधि के लिये नहीं।
- न्यायालय द्वारा विचारित कारक भरण-पोषण का निर्धारण करते समय न्यायालय निम्नलिखित बातों पर विचार करता है:
- प्रतिवादी की आय।
- प्रतिवादी की अन्य संपत्ति।
- आवेदक की आय और संपत्ति।
- दोनों पक्षों का आचरण।
- मामले की अन्य परिस्थितियाँ।
- भरण-पोषण के लिये सुरक्षा:
- यदि आवश्यक हो तो न्यायालय प्रतिवादी की स्थावर संपत्ति पर प्रभार लगाकर भरण-पोषण भुगतान सुरक्षित कर सकता है।
- संशोधन प्रावधान: यह धारा दो महत्त्वपूर्ण उप-धाराओं के माध्यम से लचीलापन प्रदान करती है।
- उपधारा (2): परिस्थितियों में परिवर्तन:
- कोई भी पक्ष भरण-पोषण आदेश में परिवर्तन, संशोधन या निरसन का अनुरोध कर सकता है।
- ऐसा तब किया जा सकता है जब किसी भी पक्ष की परिस्थितियों में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो।
- न्यायालय को आदेश को संशोधित करने का विवेकाधिकार है, जैसा कि वह उचित समझे।
- उपधारा (3):
- पुनर्विवाह या आचरण न्यायालय भरण-पोषण आदेश में परिवर्तन, संशोधन या निरस्तीकरण कर सकता है, यदि:
- भरण-पोषण पाने वाला पक्ष पुनर्विवाह कर लेता है।
- पत्नी के मामले में, वह पतिव्रता नहीं रही है।
- पति के मामले में, उसने विवाह के बाहर यौन संबंध बनाए हैं।
- पुनर्विवाह या आचरण न्यायालय भरण-पोषण आदेश में परिवर्तन, संशोधन या निरस्तीकरण कर सकता है, यदि: