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आपराधिक कानून

भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) के अधीन व्यतिक्रम जमानत (डिफॉल्ट) स्वीकृत करना

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 20-Feb-2025

मोहम्मद साजिद बनाम केरल राज्य 

“मेरी यह राय है कि धारा 187(3) का विवेचन करते समय, अभियुक्त की स्वतंत्रता के पक्ष में जो निर्वचन होगा, उसे न्यायालय द्वारा अपनाया जाना चाहिये ।” 

न्यायमूर्ति पी.वी. कुन्ही कृष्णन 

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति पी.वी. कुन्ही कृष्णन की पीठ ने कहा कि जब विधि में अस्पष्टता या संदिग्धता हो, चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक, तो अस्पष्टता का समाधान अभियुक्त व्यक्ति के पक्ष में किया जाना चाहिये , क्योंकि स्वतंत्रता दांव पर लगी होती है। 

केरल उच्च न्यायालय ने मोहम्मद साजिद बनाम केरल राज्य (2025) मामले में यह फैसला सुनाया। 

सुभेलाल उर्फ सुशील साहू बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • वर्तमान तथ्यों के अनुसार प्रार्थी  स्वापक औषधि और मनः प्रभावी पदार्थ, अधिनियम, 1985 (एनडीपीएस) की धारा 22 (ख) के अधीन अपराध का अभियुक्त है। 
  • पुलिस ने कथित तौर पर 11 नवंबर 2024 को नोआ के आर्क होटल के कमरा नंबर 304 से 2.28 ग्राम मेथिलेंडिऑक्सी-मेथिलैम्फेटामाइन (MDMA) जब्त किया। 
  • तत्पश्चात प्रार्थी को गिरफ्तार कर लिया गया। 
  • प्रार्थी के अधिवक्ता का तर्क है कि वह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (भा.ना.सु.सं.) की धारा 187 (3) के अधीन सांविधिक जमानत का हकदार है। 
  •  प्रार्थी ने एर्नाकुलम के प्रथम अपर सेशन न्यायाधीश के समक्ष एक आवेदन दायर किया, जिस पर कथित रूप से विचार नहीं किया गया। 
  • एनडीपीएस अधिनियम की धारा 22 (ख) के अधीन अपराध के लिये अधिकतम दस वर्ष का दण्ड है, जिसके लिये अधिवक्ता ने तर्क  दिया कि प्रार्थी भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) के लाभ के योग्य है। 
  • लोक अभियोजक ने जमानत अर्जी का विरोध करते हुए तर्क दिया कि प्रार्थी भा.ना.सु.सं. की धारा 187(3) के अधीन रिहाई के पात्र नहीं है।  
  • इस प्रकार, मामला केरल उच्च न्यायालय के समक्ष था। 

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं? 

  • न्यायालय ने पाया कि दण्ड  प्रक्रिया संहिता, 1973 (द.प्र.सं.) की धारा 167 और भा.ना.सु.सं. की धारा 187 में प्रयुक्त वाक्यांशों में अंतर है। 
  • धारा 187 (3) (i) में “10 वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिये” वाक्यांश का प्रयोग किया गया है, जबकि धारा 167 (2) (क) (i) में “10 वर्ष से कम नहीं” वाक्यांश का प्रयोग किया गया है। 
  • न्यायालय ने पाया कि भा.ना.सु.सं. में वर्णित “10 वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिये” और द.प्र.सं. में वर्णित “10 वर्ष से कम नहीं” शब्दों में बहुत अधिक अंतर नहीं है। 
  • न्यायालय ने निर्वचन के नियम का सहारा लिया कि जब विधि में अस्पष्टता या संदिग्धता हो, चाहे वास्तविक हो या काल्पनिक,  तो अस्पष्टता या संदिग्धता का समाधान अभियुक्त व्यक्ति के पक्ष में किया जाना चाहिये , क्योंकि स्वतंत्रता दांव पर लगी होती है। 
  • इस प्रकार, अभियुक्त की स्वतंत्रता के पक्ष में एक निर्वचन अपनाया जाना चाहिये । 
  •  न्यायालय ने कहा कि वर्तमान तथ्यों के आधार पर विद्वान सेशन न्यायाधीश द्वारा अभियुक्त के आवेदन को केवल इस आधार पर खारिज करना गलत था कि प्रार्थी का पूर्ववृत्त है। 
  • केवल इसलिये कि प्रार्थी का कोई पूर्ववृत्त है या वह एक आदतन अपराधी है, भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) के अधीन सांविधिक जमानत खारिज नहीं की जा सकती। 
  • इसलिये न्यायालय ने जमानत आवेदन को स्वीकार कर लिया, किंतु अभियुक्त पर कई शर्तें अधिरोपित कर दीं। 

भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) क्या है? 

  • भा.ना.सु.सं. की धारा 187 उस प्रक्रिया का प्रावधान करती है, जब अन्वेषण 24 घंटे के अंदर पूरा नहीं हो पाता। 
  • यह ध्यान देने योग्य है कि भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (1) के अनुसार जब भी किसी अभियुक्त को गिरफ्तार किया जाता है, और ऐसा लगता है कि अन्वेषण 24 घंटे के अंदर पूरा नहीं हो सकता (और यह विश्वाश करने के लिये कि अभियोग दृढ़ आधार पर है) तो पुलिस अधिकारी को तुरंत अभियुक्त को निकटतम मजिस्ट्रेट के पास भेजना चाहिये । 
  • यह ध्यान देने योग्य है कि भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (2) हाल ही में पुनर्स्थापित की गई है और उस समय अवधि का प्रावधान करती है, जिसके दौरान किसी अभियुक्त को पुलिस अभिरक्षा में रखा जा सकता है। 
  • धारा 187 (2) में यह प्रावधान है कि: 
  • मजिस्ट्रेट ठीक समझे किसी अभियुक्त को इतनी अवधि के लिये, जो कुल मिलाकर पूर्णतः या भागतः 15 दिन से अधिक न होगी, उपधारा (3) में यथा उपबंधित यथास्थिति, 60 दिनों या 90 दिनों की उसकी निरूद्ध अवधि में से पहले 40 दिन या 60 दिन के दौरान किसी भी समय निरुद्ध किया जाना समय-समय पर प्राधिकृत कर सकता है। 
  •  यह विचार किये  बिना चाहे उस मामले के विचारण की उसे अधिकारिता हो या न हो, 
  • मजिस्ट्रेट को निरोध प्राधिकृत करने से पहले यह विचार करना चाहिये की अभियुक्त व्यक्ति को जमानत देने से इंकार किया गया है या उसकी जमानत रद्द कर दी गई है। 
  • यदि मजिस्ट्रेट के पास अधिकारिता नहीं है और अधिक निरुद्ध रखना उसके विचार में अनावश्यक है तो वह अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास, जिसे ऐसी अधिकारिता है, भिजवाने के लिये आदेश दे सकता है: 
  • भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) वह प्रावधान है जिसके अधीन  व्यतिक्रम (डिफॉल्ट) जमानत मिलती है। द.प्र.सं. की धारा 167 (2) और भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) का तुलनात्मक विश्लेषण इस प्रकार है: 

द.प्र.सं. की धारा 167 (2) 

भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) 

वह मजिस्ट्रेट, जिसके पास अभियुक्त व्यक्ति इस धारा के अधीन भेजा जाता है, चाहे उस मामले के विचारण की उसे अधिकारिता हो या न हो, अभियुक्त का ऐसी अभिरक्षा में, जैसी वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे इतनी अवधि के लिये, जो कुल मिलाकर 15 दिन से अधिक न होगी, निरुद्ध किया जाना समय-समय पर प्राधिकृत कर सकता है तथा यदि उसे मामले के विचारण की या विचारण के लिये सुपुर्द करने की अधिकारिता नहीं है और अधिक निरुद्ध रखना उसके विचार में अनावश्यक है तो वह अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास, जिसे ऐसी अधिकारिता है, भिजवाने के लिये आदेश दे सकता है : 

परन्तु- 

  1.  मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का पुलिस अभिरक्षा से अन्यथा निरोध 15 दिन की अवधि से आगे के लिये उस दशा में प्राधिकृत कर सकता है जिसमें उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिये पर्याप्त आधार है, किंतु कोई भी मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का इस पैरा के अधीन अभिरक्षा में निरोध- 
  2.   कुल मिलाकर 90 दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ  अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध  में है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अन्यून की अवधि के लिये कारावास से दण्डनीय है; 
  3.  कुल मिलाकर 60 दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ  अन्वेषण किसी अन्य अपराध के संबंध  में है, 
  4. और, यथास्थिति, 90 दिन या 60 दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर यदि अभियुक्त व्यक्ति जमानत देने के लिये तैयार है और दे देता है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा और यह समझा जाएगा कि इस उपधारा के अधीन जमानत पर छोड़ा गया प्रत्येक व्यक्ति अध्याय 33 के प्रयोजनों के लिये उस अध्याय के उपबन्धों के अधीन छोड़ा गया है 

(3) मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का पुलिस अभिरक्षा से अन्यथा निरोध 15 दिन की अवधि से आगे के लिये उस दशा में प्राधिकृत कर सकता है जिसमें उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिये पर्याप्त आधार विद्यमान है, किंतु कोई भी मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का इस उपधारा के अधीन अभिरक्षा में निरोध, - 

  1.  कुल मिलाकर 90 दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ  अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध में है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या 10 वर्ष की अवधि या अधिक के लिये कारावास से दण्डनीय है। 
  2.  कुल मिलाकर 60 दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ  अन्वेषण किसी अन्य अपराध के संबंध में है, और, यथास्थिति, 90 दिन या 60 दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर यदि अभियुक्त व्यक्ति जमानत देने के लिये तैयार है और दे देता है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा और यह समझा जाएगा कि इस उपधारा के अधीन जमानत पर छोड़ा गया प्रत्येक व्यक्ति अध्याय 35 के प्रयोजनों के लिये उस अध्याय के उपबंधों के अधीन छोड़ा गया है 
  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हाल ही में कर्नाटक राज्य के कावूर पुलिस थाना बनाम कलंदर शफी (2024) मामले में भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण  व्याख्या की। इस मामले में निष्कर्षों का सारांश इस प्रकार है: 
  • भा.ना.सु.सं. की धारा 187(3) के अनुसार नई शासन प्रणाली में द.प्र.सं. की धारा 167(2) के साथ थोड़ा सा फेरबदल किया गया है, परंतु इस से प्रावधान का उद्देश्य नहीं बदला है।  
  • भा.ना.सु.सं. की धारा 187(3) के उप-खंड (i) में 'दस वर्ष या उससे अधिक' शब्दों की शब्दावली का अर्थ है कि भा.ना.सु.सं के अधीन किसी अपराध के लिये न्यूनतम  दण्ड दस वर्ष होना चाहिये ।  
  • इस मामले में अपराध के लिये न्यूनतम दण्डादेश दस वर्ष नहीं है, परंतु इसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, जिसका अर्थ है कि संबंधित न्यायालय को दस वर्ष तक का दण्ड देने का विवेकाधिकार है। इसलिये न्यूनतम सीमा दस वर्ष नहीं है। 
  • दस वर्ष तक के दण्ड वाले मामलों में अन्वेषण पूरा करने में निःसंदेह 60 दिन लगते हैं। बाकी अन्य अपराधों में, चाहे वह मृत्युदण्ड हो, दस वर्ष या उससे अधिक का आजीवन कारावास का दण्ड हो, 90 दिन लगेंगे। 
  • यदि अन्वेषण 60 दिनों में पूरा करना है, तो पुलिस अभिरक्षा की अवधि अपराध के पंजीकरण के पहले दिन से चालीसवें दिन तक चलेगी। यदि  90 दिन हैं, तो यह पहले दिन से लेकर 60वें दिन तक चलेगी, दोनों मामलों में पुलिस अभिरक्षा की अधिकतम अवधि 15 दिन है। 
  • अगर अपराध 10 वर्ष तक के दण्ड वाला है, तो पुलिस अभिरक्षा सिर्फ़ पहले दिन से लेकर चालीसवें दिन तक होगी।