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आपराधिक कानून
पारिस्थितिजन्य साक्ष्य पर दिशानिर्देश
«14-Jan-2025
अब्दुल नासिर बनाम केरल राज्य एवं अन्य "जबकि हम ट्रायल कोर्ट एवं उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए अंतिम निष्कर्ष से सहमत हैं, हम पारिस्थितिजन्य साक्ष्य के विश्लेषण में दोनों न्यायालयों द्वारा अपनाई गई कार्यप्रणाली की कमियों को अनदेखा नहीं कर सकते।" न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने दिशानिर्देश निर्धारित किये जिनका पारिस्थितिजन्य साक्ष्यों का मूल्यांकन करते समय अधीनस्थ न्यायालयों को पालन करना होगा।
- उच्चतम न्यायालय ने अब्दुल नासिर बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2024) मामले में यह निर्णय दिया।
अब्दुल नासिर बनाम केरल राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 4 अप्रैल 2012 को सुबह करीब 6:30 बजे 9 वर्ष की बच्ची अमराम्बलम गांव में मदरसे जा रही थी, तभी वह आरोपी के घर पर उसकी बेटी के साथ जाने के लिये रुकी।
- आरोपी ने बच्ची को अकेला पाकर सुबह करीब 6:45 बजे अपने घर में उसके साथ बलात्संग कारित किया। इसके बाद उसने बच्ची का गला घोंट दिया तथा उसकी हत्या कर दी, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।
- आरोपी ने पीड़िता के शव को अपने घर में चारपाई के नीचे छिपा दिया तथा बाद में उसे बाथरूम में ले गया। उसने शव को सेप्टिक टैंक के स्लैब से पत्थर निकालकर उसमें फेंकने की कोशिश की।
- पीड़िता के पिता ने थाने में प्राथमिकी दर्ज कराई।
- पीड़िता का शव उसी दिन शाम करीब साढ़े सात बजे आरोपी के घर के बाथरूम में मिला।
- आरोपी पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376, 201 और किशोर न्याय (देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2000 (JJ अधिनियम) की धारा 23 के तहत आरोप लगाए गए थे।
- जाँच अधिकारी ने फोरेंसिक साक्ष्य एकत्र किये, आरोपी के प्रकटीकरण अभिकथनों के आधार पर बरामदगी की और धारा 376, 302 और 201 IPC और JJ अधिनियम की धारा 23 के अधीन अपराधों के लिये आरोप पत्र प्रस्तुत किया।
- ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी करार दिया तथा उसे IPC की धारा 302 के अधीन मृत्यु की सजा दी।
- आरोपी ने केरल उच्च न्यायालय के समक्ष धारा 374 (2) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अधीन अपील की।
- ट्रायल कोर्ट की मृत्यु की सजा को CrPC की धारा 366 के अधीन पुष्टि के लिये उच्च न्यायालय को भेजा गया था। उच्च न्यायालय ने मृत्यु की सजा के संदर्भ को स्वीकार किया तथा मृत्यु की सजा की पुष्टि की।
- इसलिये, उपरोक्त आदेश को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने पाया कि वर्तमान मामले में प्रस्तुत किये गए सभी साक्षी या तो पीड़िता के रिश्तेदार हैं या पड़ोस के निवासी हैं तथा वे आरोपी के विरुद्ध कोई दुर्भावना नहीं रख सकते।
- न्यायालय ने फोरेंसिक साक्ष्य को भी विश्वसनीयता प्रदान की तथा कहा कि अभियोजन पक्ष ने जब्ती के समय से लेकर फोरेंसिक प्रयोगशाला में प्राप्ति तक नमूनों को सुरक्षित रखने के लिये ठोस साक्ष्य दिये हैं।
- इस प्रकार, न्यायालय ने अभियुक्त के DNA युक्त वीर्य को अभियुक्त के शरीर पर लगाए जाने की किसी भी संभावना को खारिज कर दिया।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि वर्तमान तथ्यों में कई परिस्थितियाँ थीं जो अभियुक्त के विरुद्ध तार्किक रूप से संबंधित थीं।
- न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय के अंतिम निर्णयों से सहमति जताते हुए भी पारिस्थितिजन्य साक्ष्य के मूल्यांकन एवं विश्लेषण में न्यायालयों द्वारा अपनाई गई कार्यप्रणाली में कमियों के संबंध में न्यायालयों की आलोचना की।
- उच्चतम न्यायालय ने यह देखा कि अधीनस्थ न्यायालयों ने साक्षियों की साक्षीी की जाँच की है, लेकिन उससे निकाले जाने वाले निष्कर्षों को रेखांकित करना छोड़ दिया है।
- इस प्रकार, उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर अपील खारिज कर दी गई।
पारिस्थितिजन्य साक्ष्य क्या है?
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 3 के अंतर्गत साक्ष्य है:
- सभी अभिकथन जिनकी न्यायालय जाँच के अधीन तथ्यों के संबंध में साक्षियों द्वारा अपने समक्ष प्रस्तुत करने की अनुमति देता है या अपेक्षा करता है, ऐसे कथनों को मौखिक साक्ष्य कहा जाता है;
- न्यायालय के निरीक्षण के लिये प्रस्तुत किये गए इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों सहित सभी दस्तावेज, ऐसे दस्तावेजों को दस्तावेजी साक्ष्य कहा जाता है।
- साक्ष्य की परिभाषा भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 2 (e) में पाई जा सकती है।
- BSA में इलेक्ट्रॉनिक रूप से दिये गए अभिकथन तथा इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड साक्ष्य के दायरे में आते हैं।
- भारत में साक्ष्य को दो व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है, प्रत्यक्ष साक्ष्य एवं अप्रत्यक्ष साक्ष्य अर्थात पारिस्थितिजन्य साक्ष्य।
- प्रत्यक्ष साक्ष्य वे होते हैं जो तथ्य को निर्णायक रूप से सिद्ध करते हैं जबकि पारिस्थितिजन्य साक्ष्य परिस्थितियों की श्रृंखला होती है जिसका उपयोग किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिये किया जाता है।
- इसकी उत्पत्ति रोमन विधि प्रणाली से हुई है, जहाँ इसका उपयोग किसी मामले की जाँच के लिये एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में किया जाता था।
- यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि "मनुष्य झूठ बोल सकता है, लेकिन परिस्थितियाँ नहीं बोलतीं"।
- पारिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि के संबंध में पाँच स्वर्णिम सिद्धांत शरद बिरधीचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984) के मामले में बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किये गए हैं।
इस मामले में न्यायालय द्वारा पारिस्थितिजन्य साक्ष्य पर क्या सिद्धांत निर्धारित किये गए हैं?
- न्यायालय द्वारा निम्नलिखित सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया, जिन पर विचार किया जाना चाहिये, जहाँ अभियोजन का मामला पारिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित हो:
- प्रत्येक अभियोजन पक्ष एवं बचाव पक्ष के साक्षी के अभिकथन पर सावधानीपूर्वक चर्चा एवं विश्लेषण किया जाना चाहिये। प्रत्येक साक्षी के साक्ष्य का मूल्यांकन उसकी संपूर्णता में किया जाना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी महत्त्वपूर्ण पहलू नज़रअंदाज़ न हो।
- पारिस्थितिजन्य साक्ष्य वह साक्ष्य है जो तथ्य के निष्कर्ष से जुड़ने के लिये किसी अनुमान पर निर्भर करता है। इस प्रकार, प्रत्येक साक्षी के अभिकथन से निकाले जा सकने वाले उचित अनुमानों को स्पष्ट रूप से चित्रित किया जाना चाहिये।
- अपराध सिद्ध करने वाले पारिस्थितिजन्य साक्ष्य की प्रत्येक कड़ी की सावधानीपूर्वक जाँच की जानी चाहिये, ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या प्रत्येक परिस्थिति व्यक्तिगत रूप से सिद्ध होती है तथा क्या सामूहिक रूप से, वे एक अटूट श्रृंखला बनाती हैं जो केवल अभियुक्त के अपराध की परिकल्पना के अनुरूप है और उसकी निर्दोषता के साथ पूरी तरह से असंगत है।
- निर्णय में साक्ष्य के विशिष्ट अंशों को स्वीकार या अस्वीकार करने के औचित्य को व्यापक रूप से स्पष्ट किया जाना चाहिये, तथा यह दर्शाया जाना चाहिये कि साक्ष्यों से निष्कर्ष तार्किक रूप से कैसे प्राप्त किया गया। इसमें स्पष्ट रूप से यह बताया जाना चाहिये कि प्रत्येक साक्ष्य दोष के समग्र आख्यान में किस प्रकार योगदान देता है।
- निर्णय में यह प्रतिबिंबित होना चाहिये कि दोष का निष्कर्ष, यदि कोई हो, परिस्थितियों के उचित एवं सावधानीपूर्वक मूल्यांकन के बाद निकाला गया है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि वे किसी अन्य उचित परिकल्पना के साथ संगत हैं या नहीं।
पारिस्थितिजन्य साक्ष्य पर महत्त्वपूर्ण मामले कौन से हैं?
- शरद बिरदीचंद शारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984)
- इस मामले में पाँच स्वर्णिम नियम निर्धारित किये गये जिन्हें पंचशील के नाम से भी जाना जाता है, जो इस प्रकार हैं:
- जिन परिस्थितियों से दोष का निष्कर्ष निकाला जाना है, उन्हें पूरी तरह से अभिनिर्धारित किया जाना चाहिये,
- इस प्रकार स्थापित तथ्य केवल अभियुक्त के दोष की परिकल्पना के अनुरूप होने चाहिये, अर्थात्, उन्हें किसी अन्य परिकल्पना पर स्पष्ट नहीं किया जाना चाहिये, सिवाय इसके कि अभियुक्त दोषी है,
- परिस्थितियाँ निर्णायक प्रकृति एवं प्रवृत्ति की होनी चाहिये,
- उन्हें सिद्ध की जाने वाली परिकल्पना को छोड़कर हर संभावित परिकल्पना को बाहर करना चाहिये
- साक्ष्यों की एक श्रृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिये कि अभियुक्त की निर्दोषता के अनुरूप निष्कर्ष के लिये कोई उचित आधार न बचे तथा यह दिखाना चाहिये कि सभी मानवीय संभावनाओं में यह कृत्य अभियुक्त द्वारा किया गया होगा।
- इस मामले में पाँच स्वर्णिम नियम निर्धारित किये गये जिन्हें पंचशील के नाम से भी जाना जाता है, जो इस प्रकार हैं:
- अनवर अली बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2020):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने दोषसिद्धि के लिये एक परिस्थिति के रूप में आशय के संबंध में विभिन्न निर्णयों में निर्धारित सिद्धांतों का अवलोकन किया।
- न्यायालय ने कहा कि सुरेश चंद्र बाहरी बनाम बिहार राज्य (1995) के मामले में यह माना गया था कि यदि आशय सिद्ध हो जाता है तो यह साक्ष्य की परिस्थितियों की श्रृंखला में एक कड़ी प्रदान करेगा, लेकिन आशय की अनुपस्थिति अभियोजन पक्ष के मामले को खारिज करने का आधार नहीं हो सकती है।
- वहीं बाबू बनाम केरल राज्य (2010) में न्यायालय ने माना कि पारिस्थितिजन्य साक्ष्य पर निर्भर किसी मामले में आशय एक ऐसा कारक है जो अभियुक्त के पक्ष में भारी पड़ता है।