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सिविल कानून

लंबित वाद में अंतरिती का एक पक्षकार के रूप में अधिकार

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 30-Jan-2025

एच. अंजनप्पा एवं अन्य बनाम ए. प्रभाकर एवं अन्य 

“द्वितीयतः लंबित वाद के अंतरिती का अभिलेख पर पक्षकार के रूप में दर्ज होने का दावा अधिकार स्वरूप नहीं होता ।”  

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ अंतरिती के लंबित वाद के पक्षकार के लिये पालन किये जाने वाले सिद्धांतों को निर्धारित किया।  

  • उच्चतम न्यायालय ने एच. अंजनप्पा बनाम ए. प्रभाकर एवं अन्य (2025) के मामले में निर्णय दिया। 

एच. अंजनप्पा बनाम ए. प्रभाकर एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • स्वामित्व और विक्रय के लिये करार (1995): 
    • स्वर्गीय श्रीमती डेज़ी शांथप्पा (प्रतिवादी संख्या 1) के पास बगलूर गाँव में दो आसन्न भूमि थी।  
    • वह अपने पावर ऑफ अटॉर्नी धारक (प्रतिवादी संख्या 2) के माध्यम से वादी (अपीलकर्त्ताओं) को ₹20,00,000 में जमीन बेचने के लिये सहमत हो गई। 
    • अग्रिम राशि के रूप में ₹5,00,000 संदाय किया गया, और प्रतिवादी 1 एवं 2 अनाधिकृत रहने वालों को बेदखल करने के लिये सहमत हुए। 
  • पूरक करार (1997): 
    • चूंकि अनधिकृत रहने वालों को बेदखल नहीं किया गया था, इसलिये विक्रय विलेख निष्पादन समयसीमा को बढ़ाते हुए एक पूरक करार किया गया। 
    • वादी ने अतिरिक्त ₹10,00,000 का संदाय किया, जो सहमत राशि का कुल ₹15,00,000 था। 
  • तीसरे पक्षकार को संपत्ति का विक्रय (प्रतिवादी संख्या 3): 
    • वादी के साथ मौजूदा करार के बावजूद, प्रतिवादी संख्या 1 ने कथित तौर पर 42 एकड़ में से 40 एकड़ जमीन प्रतिवादी संख्या 3 को ₹40,00,000 में बेच दी। 
    • वादी को तब पता चला जब प्रतिवादी संख्या 3 ने राजस्व रिकॉर्ड बदलने का प्रयास किया। 
  • वादी की विधिक कार्रवाई (2003): 
    • वादी ने बैंगलोर ग्रामीण जिला न्यायालय में O.S. No.1093/2003 (बाद में O.S. No.458/2006) दायर की, जिसमें विक्रय करार के विनिर्दिष्ट पालन की मांग की गई। 
    • अस्थायी व्यादेश प्रदान किया गया (17 दिसंबर 2003), जिसके अधीन प्रतिवादी 1-3 को तीसरे पक्षकार के अधिकारों का अतिक्रमण करने या सृजित करने से रोका गया। 
  • व्यादेश का उल्लंघन तत्पश्चात विक्रय: 
    • प्रतिवादी संख्या 3 ने न्यायालय के आदेश का उल्लंघन करते हुए प्रतिवादी संख्या 1 एवं 2 को 10 एकड़ (4+6 एकड़) भूमि विक्रय कर दी । 
  • प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा पुष्टि विलेख: 
    • प्रतिवादी संख्या 1 ने बाद में एक पुष्टि विलेख (Confirmation Deed) निष्पादित किया, जिसमें वादियों के साथ विक्रय करार की वैधता को स्वीकार किया एवं यह स्वीकार किया कि उन्हें प्रतिवादी संख्या 3 को विक्रय करने हेतु भ्रमित किया गया था। 
  • पक्षकार विनिश्चय हेतु आवेदन (2007): 
    • प्रतिवादी संख्या 1 और 2 ने प्रतिवादी के रूप में सम्मिलित किये जाने की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया। 
    • विचारण न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया (06 अगस्त 2014), यह निर्णय देते हुए कि उन्होंने व्यादेश और संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 52 का उल्लंघन करते हुए संपत्ति खरीदी। 
    • इस आदेश के विरुद्ध कोई अपील दायर नहीं की गई, जिससे यह अंतिम हो गया। 
  • विचारण न्यायालय का अंतिम निर्णय (2016): 
    • वाद का निर्णय वादी के पक्ष में सुनाया गया, जिसमें 2 महीने के भीतर विक्रय विलेख को निष्पादित करने का निर्देश दिया गया। 
    • प्रतिवादी संख्या 3 की अपील खारिज कर दी गई। 
  • प्रतिवादी संख्या 1 और 2 द्वारा विलंबित अपील (2018): 
    • उनकी पक्षकार बनने की याचिका (Impleadment) को खारिज कर दिये जाने और उनके विक्रेता की अपील खारिज किये जाने के बावजूद, उन्होंने 2 वर्ष पश्चात् डिक्री को चुनौती दी। 
    • 586 दिनों की देरी की क्षमा याचना (Condonation) एवं अपील दायर करने की अनुमति (Leave to Appeal) हेतु आवेदन प्रस्तुत किया गया। 
  • उच्च न्यायालय का निर्णय: 
    • उच्च न्यायालय ने दोनों आवेदनों को स्वीकार करते हुए अत्यधिक विलंब (Inordinate Delay) को क्षमा किया एवं अपील दायर करने की अनुमति प्रदान की। 
    • इस निर्णय का वादीगण द्वारा विरोध किया गया। 

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश I नियम 10 के अधीन दायर आवेदन को अस्वीकृति स्वतः अपील दायर करने की अनुमति के आवेदन को अस्वीकृति करने का आधार नहीं हो सकती। 
  • अपील न्यायालय को यह देखना होता है कि क्या लंबित वाद के दौरान अंतरिती डिक्री से व्यथित है या अन्यथा इससे प्रतिकूल रूप से प्रभावित है। 
  • न्यायालय ने इस मामले में निम्नलिखित दो विधिक उपबंधों का अवलोकन किया: 
    • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) का आदेश I नियम 10 
    • सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 22 नियम 10 
  • न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की दोनों उपबंध समान हैं और इसलिये आदेश 22 नियम 10 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन लंबित वाद में क्रेता को पक्षकार बनाने के लिये लागू सिद्धांत आदेश I नियम 10 सिविल प्रक्रिया संहिता पर भी लागू होते हैं।   
  • सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश I नियम 10(2) के अधीन, न्यायालय को यह निष्कर्ष दर्ज करना आवश्यक है कि वाद में पक्षकार के रूप में सम्मिलित किया जाने वाला व्यक्ति या तो आवश्यक पक्षकार है या उचित पक्षकार है।   
  • जबकि धारा 146 और आदेश 22 नियम 10 सिविल प्रक्रिया संहिता वाद में पक्षकार के विधिक प्रतिनिधि को न्यायालय की अनुमति से पक्षकार बनने और वाद जारी रखने का अधिकार प्रदान करता है।  
  • धारा 146 और आदेश 22 नियम 10 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन एक आवेदन पर निर्णय करते समय, न्यायालय को इस विवाद में जाने की आवश्यकता नहीं है कि वाद में पक्षकार के रूप में सम्मिलित किया जाने वाला व्यक्ति या तो आवश्यक पक्षकार है या उचित पक्षकार है। यदि पक्षकार के रूप में सम्मिलित किया जाने वाला व्यक्ति वाद में पक्षकार का विधिक प्रतिनिधि है, तो न्यायालय के लिये ऐसे व्यक्ति को पक्षकार बनाने/प्रतिस्थापन करने का आदेश देना पर्याप्त है। 
  • इस प्रकार, एक वाद के लंबित रहने के दौरान अंतरिती, यद्यपि आदेश 22 नियम 10 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन अभिलेख (Record) में न लिया गया हो, फिर भी  अंतरणकर्त्ता, वाद में प्रतिवादी के विरुद्ध पारित अंतिम डिक्री के विरुद्ध अपील करने की अनुमति मांगने का हकदार है। 
  • यद्यपि, इस तरह की अनुमति देना या न देना न्यायालय के विवेक पर निर्भर है और प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस विवेक का प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिये। 
  • वर्तमान मामले के तथ्यों को देखते हुए न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश को अपास्त कर दिया। 

लंबित वाद के दौरान अंतरण क्या है? 

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TOPA) की धारा 52 के अधीन इसका उपबंध है। 
  • इसमें यह उपबंध है कि जब किसी न्यायालय में कोई वाद या कार्यवाही लंबित हो और कोई अचल संपत्ति उस वाद या कार्यवाही का विषय हो, तो उस वाद या कार्यवाही के परिणामस्वरूप डिक्री या आदेश के अधीन संपत्ति में हित प्राप्त करने वाले किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध वाद या कार्यवाही के किसी भी पक्षकार द्वारा उस संपत्ति का कोई भी अंतरण शून्य है 
  • धारा में संदर्भित अंतरण, वाद या कार्यवाही के संस्थित होने की तिथि से, पश्चात्वर्ती अंतरिती के विरुद्ध शून्य है। 
  • इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति वाद के लंबित रहने के दौरान अचल संपत्ति अंतरित करता है, और उस वाद में न्यायालय के निर्णय के परिणामस्वरूप कोई अन्य व्यक्ति संपत्ति में हित प्राप्त करता है, तो वाद के लंबित रहने के दौरान किया गया अंतरण शून्य माना जाएगा। 

वाद के लंबित रहने के दौरान अंतरण पर ऐतिहासिक वाद क्या हैं? 

  • विनोद सेठ बनाम देविंदर बजाज, (2010): 
    • न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 52 वाद के लंबित रहने के दौरान किये गए अंतरण को शून्य नहीं बनाती है, अपितु ऐसे अंतरण को केवल उन अधिकारों के अधीन बनाती है, जिन्हें अंततः न्यायालय द्वारा निर्धारित किया जा सकता है। 
  • थॉमसन प्रेस (इंडिया) लिमिटेड बनाम नानक बिल्डर्स एंड इन्वेस्टर्स प्राइवेट  लिमिटेड (2013): 
    • न्यायालय ने इस मामले में निर्णय दिया कि वादग्रस्त संपत्ति का अंतरण आरंभ से ही शून्य नहीं होता, और ऐसी संपत्ति का क्रेता लंबित वाद में वादी के अधिकारों के अधीन उस सौदे को प्राप्त कर सकता है। 

इस मामले में न्यायालय द्वारा अंतरिती को पक्षकार बनाने के लिये क्या सिद्धांत निर्धारित किये गए हैं? 

  • न्यायालय द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देश इस प्रकार हैं: 
    • लंबित वाद के दौरान अंतरिती को पक्षकार बनाने के उद्देश्य से न्यायालय को तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करना चाहिये, तथा न्यायालय ऐसे पक्षकार को या तो आदेश I नियम 10 के अधीन या सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 नियम 10 के अधीन अभिलेख पर आने की अनुमति दे सकता है। 
    • द्वितीय, लंबित वाद के दौरान अंतरिती को अधिकार के रूप में अभिलेख पर आने का अधिकार नहीं है। 
    • तृतीय, ऐसा कोई पूर्ण नियम नहीं है कि न्यायालय की अनुमति से ऐसे लंबित वाद के दौरान अंतरिती को सभी मामलों में पक्षकार के रूप में अभिलेख पर आने की अनुमति दी जानी चाहिये।  
    • चतुर्थतः किसी अंतरिती का लंबित वाद के दौरान पक्षकार बनना वाद की प्रकृति और अभिलेख पर उपलब्ध सामग्री की समीक्षा पर निर्भर करेगा। 
    • पाँचवाँ, जहाँ लंबित वाद के दौरान अंतरिती अभिलेख पर आने की अनुमति नहीं मांगता है, तो यह स्पष्ट रूप से उसके लिये जोखिम भरा होगा, और वाद का संचालन अनुचित रूप से किया जा सकता है। 
    • छठी, केवल इसलिये कि ऐसा अंतरिती अभिलेख पर नहीं आता है, उसके (लंबित वाद के दौरान अंतरिती) निर्णय से आबद्ध नहीं होने की अवधारणा उत्पन्न नहीं होती है और परिणामस्वरूप वह मुकदमे के परिणाम से आबद्ध होगा, यद्यपि उसका प्रतिनिधित्व नहीं किया गया हो।  
    • सातवाँ, विक्रय संव्यवहार संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 52 के उपबंधों द्वारा प्रभावित होता है।  
    • आठवाँ, एक अंतरिती लंबित वाद के दौरान, संपत्ति में हित का समनुदेशिती होने के नाते, जैसा कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 नियम 10 के अधीन परिकल्पित है, स्वयं या वाद के किसी भी पक्षकार के कहने पर अभिलेख में आने के लिये न्यायालय से अनुमति मांग सकता है।