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आपराधिक कानून
SC/ST अधिनियम के अंतर्गत साशय अपमान के लिये प्रावधान
« »08-Oct-2024
छिन्दर सिंह बनाम राज्य "वर्तमान मामले में तथ्य समान हैं तथा भगवान सहाय मामले में की गई टिप्पणियाँ यहाँ भी लागू होती हैं। मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि याचिकाकर्त्ता को इसका लाभ क्यों न दिया जाए।" न्यायमूर्ति अरुण मोंगा |
स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राजस्थान उच्च न्यायालय ने छिंदर सिंह बनाम राज्य के मामले में माना है कि ST/SC (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (r) के अंतर्गत आरोप के लिये अपमान सार्वजनिक स्थान पर किया जाना चाहिये।
छिंदर सिंह बनाम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, शिकायतकर्त्ता ने अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत दर्ज कराई तथा उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1908 (CrPC) की धारा 156 (3) के अंतर्गत विवेचना के लिये पुलिस स्टेशन को भेज दिया गया।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई, तथा विवेचना प्रारंभ की गई जहाँ पुलिस द्वारा एक नकारात्मक रिपोर्ट दर्ज की गई।
- शिकायतकर्त्ता ने रिपोर्ट के विरुद्ध विरोध याचिका दायर की तथा साक्षियों के बयान CrPC की धारा 200 एवं 202 के अधीन दर्ज किये गए।
- यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्त्ता ने अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करके उनका अपमान किया था तथा उनके शपथपत्रों के विषय में उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न किया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने ST/SC (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (r) के अंतर्गत संज्ञान लिया।
- इससे व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने विशेष न्यायाधीश के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर की जिसे खारिज कर दिया गया।
- इससे व्यथित होकर वर्तमान याचिका राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि:
- ST/SC (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (r) के अनुसार जब कोई व्यक्ति जो ST/SC से संबंधित नहीं है, सार्वजनिक स्थान पर ST/SC से संबंधित व्यक्ति का अपमान या अपमान करने का प्रयास करता है तो वह दण्ड का पात्र होगा।
- वर्तमान मामले में शिकायतकर्त्ता ने स्वयं अपने शपथपत्रों की पुष्टि के लिये याचिकाकर्त्ता से मुलाकात की तथा दर्ज किये गए अभिकथनों से यह संकेत नहीं मिलता है कि टिप्पणी सार्वजनिक रूप से की गई थी।
- बाद में यह प्रमाणित किया गया कि जिस समय यह टिप्पणी की गई थी, उस समय तीन साक्षी उपस्थित थे, लेकिन शिकायत दर्ज किये जाने के समय ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया गया था।
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने उच्चतर न्यायालयों के कुछ निर्णयों का उदाहरण दिया, जहाँ यह माना गया था कि नकारात्मक रिपोर्ट के विरुद्ध निर्णय लेने के लिये न्यायालय को लिखित में कारण बताना चाहिये, जबकि वर्तमान मामले में ट्रायल कोर्ट ऐसा करने में विफल रहा।
- इसलिये, राजस्थान उच्च न्यायालय ने वर्तमान याचिका को स्वीकार कर लिया तथा ट्रायल कोर्ट के आदेश को खारिज कर दिया।
ST/SC (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 क्या है?
अधिनियम का परिचय:
- SC/ST अधिनियम 1989 संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है, जो SC और ST समुदायों के सदस्यों के विरुद्ध भेदभाव को प्रतिबंधित करने तथा उनके विरुद्ध अत्याचारों को रोकने के लिये बनाया गया है।
- यह अधिनियम 11 सितंबर 1989 को भारत की संसद में पारित किया गया था तथा 30 जनवरी 1990 को अधिसूचित किया गया था।
- यह अधिनियम इस निराशाजनक वास्तविकता की भी मान्यता है कि अनेक उपाय करने के बावजूद अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियाँ उच्च जातियों के हाथों विभिन्न अत्याचारों का शिकार हो रही हैं।
- यह अधिनियम भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 15, 17 एवं 21 में उल्लिखित संवैधानिक सुरक्षा उपायों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है, जिसका दोहरा उद्देश्य इन कमजोर समुदायों के सदस्यों की सुरक्षा के साथ-साथ जाति आधारित अत्याचारों के पीड़ितों को राहत एवं पुनर्वास प्रदान करना है।
SC/ST (संशोधन) अधिनियम, 2015:
- इस अधिनियम को और अधिक कठोर बनाने के उद्देश्य से वर्ष 2015 में निम्नलिखित प्रावधानों के साथ इसमें संशोधन किया गया:
- अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचार के अधिक मामलों को अपराध के रूप में मान्यता दी गई।
- इसने धारा 3 में कई नए अपराध जोड़े तथा पूरे धारा को फिर से क्रमांकित किया क्योंकि मान्यता प्राप्त अपराध लगभग दोगुना हो गया।
- इस अधिनियम ने अध्याय IVA धारा 15A (पीड़ितों और साक्षियों के अधिकार) को जोड़ा, तथा अधिकारियों द्वारा कर्त्तव्य की उपेक्षा एवं उत्तरदायी तंत्र को अधिक सटीक रूप से परिभाषित किया।
- इसमें विशेष न्यायालयों एवं विशेष सरकारी अभियोजकों की स्थापना का प्रावधान किया गया।
- सभी स्तरों पर लोक सेवकों के संदर्भ में इस अधिनियम ने जानबूझकर की गई उपेक्षा को परिभाषित किया।
SC/ST (संशोधन) अधिनियम, 2018:
- पृथ्वीराज चौहान बनाम भारत संघ (2020) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने अत्याचार निवारण अधिनियम में संसद के 2018 संशोधन की संवैधानिक वैधता को यथावत रखा। इस संशोधन अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
- इसने मूल अधिनियम में धारा 18A को जोड़ा।
- यह अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध विशिष्ट अपराधों को अत्याचार के रूप में चित्रित करता है तथा इन कृत्यों का सामना करने के लिये रणनीतियों का वर्णन करता है और दण्ड निर्धारित करता है।
- यह प्रावधानित करता है कि कौन से कृत्य "अत्याचार" माने जाते हैं तथा अधिनियम में सूचीबद्ध सभी अपराध संज्ञेय हैं। पुलिस बिना वारंट के अपराधी को गिरफ़्तार कर सकती है और न्यायालय से कोई आदेश लिये बिना मामले की जाँच शुरू कर सकती है।
- अधिनियम में सभी राज्यों से प्रत्येक जिले में विद्यमान सत्र न्यायालय को विशेष न्यायालय में परिवर्तित करने का आह्वान किया गया है, ताकि इसके अंतर्गत पंजीकृत मामलों की सुनवाई की जा सके तथा विशेष न्यायालयों में मामलों की सुनवाई के लिये लोक अभियोजकों/विशेष लोक अभियोजकों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
- यह राज्यों के लिये प्रावधान करता है कि वे उच्च स्तर की जातिगत हिंसा वाले क्षेत्रों को "अत्याचार-प्रवण" घोषित करें तथा कानून एवं व्यवस्था की निगरानी तथा उसे बनाए रखने के लिये योग्य अधिकारियों को नियुक्त करें।
- यह गैर-SC/ST लोक सेवकों द्वारा जानबूझकर अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा करने पर दण्ड का प्रावधान करता है।
- इसे राज्य सरकारों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासनों द्वारा लागू किया जाता है, जिन्हें उचित केंद्रीय सहायता प्रदान की जाती है।
ऐतिहासिक मामले:
- भगवान सहाय खंडेलवाल एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य (2006):
- वर्तमान मामले में यह माना गया कि जब किसी याचिका के बाद नकारात्मक रिपोर्ट आती है तो मजिस्ट्रेट को याचिका स्वीकार करते समय नकारात्मक रिपोर्ट पर चर्चा करनी चाहिये और ऐसा करने से पहले न्यायिक विवेक का प्रयोग करना चाहिये तथा पर्याप्त कारण बताते हुए आदेश पारित करना चाहिये।
- संपत सिंह एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (1992):
- वर्तमान मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नकारात्मक रिपोर्ट से असहमत होने से पहले मजिस्ट्रेट को ऐसा करने के लिये पर्याप्त कारण बताने होंगे।
SC/ST अधिनियम की धारा 3(1)(r) क्या है?
- इस अधिनियम की धारा 3 अत्याचार के अपराधों के लिये दण्ड से संबंधित है।
- धारा 3(1)(r) में कहा गया है कि जो कोई अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य न होते हुए भी किसी सार्वजनिक स्थान पर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को अपमानित करने के आशय से जानबूझकर अपमानित या डराता है, उसे कम से कम छह महीने का कारावास एवं पाँच बर्ष तक की सजा एवं अर्थदण्ड से दण्डित किया जाएगा।