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सिविल कानून
ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित अंतर्वर्ती आदेश
« »02-Dec-2024
रमाकांत अंबाला चोकसी बनाम हरीश अंबाला चोकसी एवं अन्य “ऐसे आदेश की वैधता पर निर्णय करने के लिये CPC के आदेश 43 के तहत अपीलीय न्यायालय की अधिकारिता के दायरे को नियंत्रित करने वाले सुस्थापित सिद्धांतों को लागू करना, जिन्हें इस न्यायालय के विभिन्न अन्य निर्णयों में दोहराया गया है।” न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, रमाकांत अंबाला चोकसी बनाम हरीश अंबाला चोकसी एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित अंतर्वर्ती आदेशों को अपीलीय न्यायालय द्वारा केवल तभी रद्द किया जा सकता है, जब उन्हें अनुचित या मनमाना पाया जाए, अन्यथा नहीं।
रमाकांत अंबाला चोकसी बनाम हरीश अंबाला चोकसी एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- संपत्ति का स्वामित्व और प्रारंभिक व्यवस्था:
- यह मामला गुजरात के वडोदरा में भाइयों के बीच पारिवारिक संपत्ति विवाद से संबंधित है।
- वर्ष 1991 में, वादी (तीन भाई) और एक प्रतिवादी (एक अन्य भाई) ने संयुक्त रूप से नवरंग सहकारी आवास सोसायटी में संपत्ति खरीदी।
- पहली मंज़िल प्रतिवादी की पत्नी के साथ संयुक्त रूप से खरीदी गई थी।
- शुरू में उन्होंने इस संपत्ति पर मिलकर "नारायण ज्वैलर्स" नाम से एक आभूषण शोरूम चलाने की योजना बनाई थी।
- व्यावसायिक संबंध टूटना:
- वर्ष 2012 के आसपास, पारिवारिक व्यवसाय में तनाव उत्पन्न हो गया। प्रतिवादी (भाई) ने सेवानिवृत्त होने और पारिवारिक व्यवसाय से हटने की इच्छा व्यक्त की।
- अन्य भाइयों ने अलग होने के उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। इसके बाद, प्रतिवादी ने व्यवसाय में सक्रिय रूप से भाग लेना बंद कर दिया।
- नवंबर 2013 में आभूषण शोरूम बंद हो गया। व्यवसाय के रिकॉर्ड, आभूषण और स्टॉक शोरूम में ही रह गए।
- विवादित संपत्ति अंतरण:
- मार्च 2018 में, प्रतिवादी ने एक विक्रय विलेख निष्पादित कर संपत्ति को अपने बेटे (एक अन्य प्रतिवादी) के नाम 1.70 करोड़ रुपए में अंतरित कर दिया।
- वादियों का दावा है कि यह अंतरण अनुचित था, तथा उनका कहना है कि:
- मूल पावर ऑफ अटॉर्नी केवल प्रशासनिक उद्देश्यों के लिये थी, संपत्ति बेचने के लिये नहीं।
- विक्रय का मूल्य संपत्ति के बाज़ार मूल्य (अनुमानित 20 करोड़ रुपए से अधिक) से काफी कम था।
- अंतरण उनकी सहमति के बिना किया गया था।
- वादियों ने निम्नलिखित मांग करते हुए एक सिविल वाद दायर किया:
- विक्रय विलेख को अवैध घोषित करना।
- पंजीकृत विक्रय विलेख को रद्द करना।
- प्रतिवादियों के विरुद्ध स्थायी व्यादेश।
- कानूनी कार्यवाही:
- वादियों ने शुरू में ट्रायल कोर्ट से एक अस्थायी व्यादेश प्राप्त किया था, जिसके तहत प्रतिवादियों को संपत्ति से संबंधित लेन-देन करने से रोक दिया गया था।
- प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा प्रतिवादी संख्या 3 के पक्ष में निष्पादित विक्रय विलेख पर किसी भी वादी के हस्ताक्षर नहीं थे।
- वादियों ने वर्ष 1991 का मूल विक्रय विलेख प्रस्तुत किया था, जिससे पता चला कि वादियों और प्रतिवादी संख्या 1 और 2, विवादित संपत्ति के संयुक्त मालिक थे।
- ट्रायल कोर्ट ने पाया कि वादियों प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने में सक्षम थे, जिसमें वे विवादित संपत्ति में अपना अधिकार, स्वामित्व और हित प्रदर्शित कर सके।
- ट्रायल कोर्ट ने माना कि सुविधा का संतुलन वादी के पक्ष में था।
- न्यायालय का मानना था कि यदि अस्थायी व्यादेश नहीं दी गई तो वादी को नुकसान हो सकता है, जिसकी भरपाई मौद्रिक रूप में नहीं की जा सकेगी।
- प्रतिवादियों ने इस व्यादेश के विरुद्ध गुजरात उच्च न्यायालय में अपील की।
- उच्च न्यायालय ने व्यादेश को खारिज कर दिया, जिसके कारण वादीगण को उच्चतम न्यायालय में अपील करने के लिये बाध्य होना पड़ा।
- वादियों ने शुरू में ट्रायल कोर्ट से एक अस्थायी व्यादेश प्राप्त किया था, जिसके तहत प्रतिवादियों को संपत्ति से संबंधित लेन-देन करने से रोक दिया गया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
उच्चतम न्यायालय ने पाया कि:
- उच्च न्यायालय ने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया:
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय ने अस्थायी व्यादेश देने वाले ट्रायल कोर्ट के मूल आदेश में अनुचित हस्तक्षेप किया।
- उच्च न्यायालय ने, परीक्षण न्यायालय के मूल निर्णय में कोई स्पष्ट कानूनी त्रुटि या "अनुचितता" प्रदर्शित किये बिना, अनिवार्यतः अपना स्वयं का दृष्टिकोण प्रस्तुत कर दिया।
- बाहरी मामलों पर अनुचित विचार:
- उच्चतम न्यायालय ने अस्थायी व्यादेश को नियंत्रित करने वाले कानूनी सिद्धांतों पर सख्ती से ध्यान केंद्रित करने के बजाय, लंबित मुकदमेबाज़ी और राजनीतिक प्रभाव के आरोपों जैसे अप्रासंगिक कारकों पर विचार करने के लिये उच्च न्यायालय की आलोचना की।
- तर्कपूर्ण निर्णय का अभाव:
- उच्च न्यायालय के लंबे आदेश के बावजूद, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि वह वादी द्वारा उठाए गए मूल मुद्दों पर विचार करने में विफल रहा तथा ऐसा प्रतीत हुआ कि उसने ठोस तर्क दिये बिना ही प्रतिवादियों की दलीलों को स्वीकार कर लिया।
- आदेश का समस्याग्रस्त समय:
- न्यायालय विशेष रूप से इस बात से चिंतित था कि व्यादेश रद्द करने के तुरंत बाद, प्रतिवादियों ने संपत्ति किसी तीसरे पक्ष को अंतरित कर दी।
- उच्चतम न्यायालय ने सवाल उठाया कि उच्च न्यायालय ने यथास्थिति हटाने में इतनी जल्दी क्यों दिखाई, खासकर तब जब मूल वाद अभी भी लंबित था।
- संपत्ति की स्थिति को संरक्षित रखने का महत्त्व:
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न्यायालयों को चल रहे मुकदमे के दौरान संपत्ति अंतरण की अनुमति देने में सावधानी बरतनी चाहिये।
- जबकि लिस पेंडेंस (लंबित मुकदमा) का सिद्धांत कुछ सुरक्षा प्रदान करता है, अंतरण से उत्पन्न होने वाली जटिलताओं को रोकने में व्यादेश महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
- अपीलीय अधिकारिता की सीमाएँ:
- न्यायालय ने उच्च न्यायालयों को याद दिलाया कि उन्हें ट्रायल कोर्ट के विवेकाधीन आदेशों को हल्के में नहीं लेना चाहिये।
- हस्तक्षेप तभी उचित होता है जब मूल आदेश स्पष्टतः मनमाना, स्वेच्छाचारी या कानून की दृष्टि से मौलिक रूप से गलत हो।
- उपरोक्त सभी टिप्पणियाँ करने के बाद उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया और कहा कि:
- प्रतिवादियों को संपत्ति के संबंध में यथास्थिति बनाए रखनी होगी।
- संपत्ति का कोई भी आगे का अंतरण लिस पेंडेंस (कानूनी सिद्धांत जिसके अनुसार मुकदमे के दौरान संपत्ति का अंतरण वाद के परिणाम के अधीन होता है) के अधीन होगा।
- उच्चतम न्यायालय ने अनिवार्यतः ट्रायल कोर्ट के मूल व्यादेश को बहाल रखा तथा अवर न्यायालय के आदेशों में तीव्रता या गलत तर्क के साथ हस्तक्षेप करने के प्रति आगाह किया।
अंतर्वर्ती आदेश क्या हैं?
परिचय:
- अंतर्वर्ती आदेशों को ऐसे आदेशों के रूप में परिभाषित किया जाता है जो पक्षों के अधिकारों का अंतिम रूप से निर्धारण नहीं करते हैं, बल्कि मामले की प्रगति को सुविधाजनक बनाने के लिये बनाए जाते हैं।
- वे अंतिम आदेशों से भिन्न होते हैं, जो मामले के गुणागुण के आधार पर मुकदमे का समापन करते हैं।
- अंतर्वर्ती आदेश विभिन्न प्रक्रियात्मक मामलों को संबोधित कर सकते हैं, जिनमें निम्नलिखित शामिल होते हैं, परंतु इन्हीं तक सीमित नहीं होते हैं:
- अंतरिम अनुतोष देना या देने से मना करना।
- अस्थायी व्यादेश जारी करना।
- रिसीवर नियुक्त करना।
- अभिवचनों में संशोधन की अनुमति देना।
- कार्यवाही पर रोक लगाना।
अंतर्वर्ती आदेशों के प्रकार:
- अंतर्वर्ती आदेशों को उनके उद्देश्य और प्रभाव के आधार पर कई श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- अंतरिम व्यादेश: ये अस्थायी आदेश होते हैं जो किसी पक्ष को मामले के सुलझने तक विशिष्ट कार्रवाई करने से रोकते हैं।
- स्थगन आदेश: ये आदेश अपील या आगे की कार्यवाही के परिणाम तक कार्यवाही या निर्णय के प्रवर्तन को निलंबित करते हैं।
- प्रकटीकरण के लिये आदेश: ये आदेश किसी पक्ष को मामले से संबंधित दस्तावेजों या सूचनाओं का खुलासा करने के लिये बाध्य करते हैं।
- संशोधन के लिये आदेश: ये पक्षों को त्रुटियों को ठीक करने या नए तथ्यों को शामिल करने के लिये अपनी दलीलों में संशोधन करने की अनुमति देते हैं।
अंतर्वर्ती आदेशों को नियंत्रित करने वाले कानूनी प्रावधान:
- सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (CPC) में कई प्रावधान हैं जो अंतर्वर्ती आदेशों को नियंत्रित करते हैं।
- प्रमुख धाराएँ इस प्रकार हैं:
धारा 94: न्यायालय की सामान्य शक्तियाँ:
- धारा 94 न्यायालय को न्याय के उद्देश्यों के लिये या न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये आवश्यक समझे जाने पर विभिन्न अंतर्वर्ती आदेश जारी करने का अधिकार देती है।
- यह धारा न्यायालय को कार्यवाही के सुचारू संचालन को सुविधाजनक बनाने वाले आदेश जारी करने के लिये व्यापक विवेक प्रदान करती है।
आदेश XXXIX: अस्थायी व्यादेश और अंतर्वर्ती आदेशों से संबंधित नियम:
- CPC का आदेश XXXIX विशेष रूप से अस्थायी व्यादेश से संबंधित है।
- यह उन शर्तों को रेखांकित करता है जिनके तहत कोई न्यायालय किसी पक्ष को कोई विशेष कार्य करने से रोकने या किसी पक्ष को कोई विशिष्ट कार्य करने के लिये बाध्य करने के लिये व्यादेश दे सकता है।
- प्रमुख विचारणीय बिन्दु निम्नलिखित हैं:
- मामले के गुणागुण के आधार पर सफलता की संभावना।
- आवेदक को अपूरणीय क्षति की संभावना।
- पक्षों के बीच सुविधा का संतुलन।
- अपीलीय न्यायालय की शक्तियाँ:
- अपील योग्य आदेश: आदेश XLIII उन आदेशों को निर्दिष्ट करता है जिनके विरुद्ध अपील की जा सकती है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं, लेकिन इन्हीं तक सीमित नहीं हैं:
- आदेश XXXIX के नियम 1 के अंतर्गत आदेश (अस्थायी व्यादेश)।
- आदेश XXXIX के नियम 4 के अंतर्गत आदेश (अस्थायी व्यादेश देने से इनकार करने वाले आदेश)।
- आदेश XL के नियम 1 के अंतर्गत आदेश (रिसीवर की नियुक्ति)।
- आदेश XLI के नियम 2 के अंतर्गत आदेश (डिक्री के निष्पादन से संबंधित आदेश)।
- अपील योग्य आदेश: आदेश XLIII उन आदेशों को निर्दिष्ट करता है जिनके विरुद्ध अपील की जा सकती है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं, लेकिन इन्हीं तक सीमित नहीं हैं: