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विवाह का अपूरणीय विघटन

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 03-Sep-2024

प्रभावती उर्फ प्रभामणी बनाम लक्ष्मीशा एम.सी. 

विवाह के अपूरणीय विघटन के सिद्धांत का प्रयोग उस पति या पत्नी को लाभ पहुँचाने के लिये नहीं किया जा सकता, जिसने दांपत्य संबंध को असफल बनाया।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने एक ऐसे मामले पर प्रकाश डाला है जिसमें कुटुंब न्यायालय ने एक ऐसे पति को विवाह-विच्छेद का आदेश दिया जो दांपत्य जीवन के विघटन हेतु पूर्णरूपेण उत्तरदायी था। पत्नी की अपील के बावजूद, जिसमें उच्च न्यायालय द्वारा स्थायी गुज़ारा भत्ता 25 लाख रुपए से घटाकर 20 लाख रुपए करने को चुनौती दी गई थी, उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि पति को विवाह विच्छेद से कोई लाभ नहीं मिलना चाहिये।

  • न्यायालय ने कहा कि विवाह विघटन का उत्तरदायी पक्ष द्वारा लाभ नहीं उठाया जा सकता।
  • न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ ने प्रभावती उर्फ प्रभामनी बनाम लक्ष्मीशा एम.सी. के मामले में यह निर्णय दिया।

प्रभावती उर्फ प्रभामणि बनाम लक्ष्मीशा एम.सी. मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में पक्षकारों का विवाह 10 नवंबर 1991 को हुआ था।
  • 20 अगस्त 1992 को उनके विवाह से एक बेटा उत्पन्न हुआ।
  • वर्ष 1992 में बच्चे के जन्म के तुरंत बाद पति ने कथित तौर पर पत्नी को छोड़ दिया।
  • वर्ष 2002 में, पति ने क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद की मांग करते हुए याचिका दायर की।
  • कुटुंब न्यायालय ने 3 अगस्त 2006 को विवाह-विच्छेद का आदेश दिया।
  • पत्नी ने इस निर्णय के विरुद्ध अपील की और उच्च न्यायालय ने 26 अगस्त 2010 को आदेश को खारिज कर दिया तथा मामले को कुटुंब न्यायालय में वापस भेज दिया।
  • कुटुंब न्यायालय ने 21 फरवरी 2011 को विवाह के अपरिवर्तनीय टूटने के आधार पर पुनः विवाह-विच्छेद का आदेश दिया।
  • पत्नी ने इस दूसरे आदेश के विरुद्ध अपील की और उच्च न्यायालय ने 29 नवंबर 2013 को इसे खारिज कर दिया तथा मामले को कुटुंब न्यायालय में वापस भेज दिया।
  • 12 फरवरी 2016 को कुटुंब न्यायालय ने तीसरी बार विवाह-विच्छेद का आदेश दिया, इस बार पत्नी को 2500,000 (पच्चीस लाख) रुपए का स्थायी गुज़ारा भत्ता देने का प्रावधान किया गया।
  • पत्नी ने इस तीसरे आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
  • उच्च न्यायालय ने उसकी अपील को खारिज कर दिया तथा स्थायी गुज़ारा भत्ता घटाकर 20,00,000 (बीस लाख) रुपए कर दिया, जबकि पति ने गुज़ारा भत्ता राशि को चुनौती देने वाली कोई अपील दायर नहीं की थी।
  • इसके बाद पत्नी ने इस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की।
  • ​​इस पूरी अवधि के दौरान, पति ने कथित तौर पर अपने बेटे की शिक्षा या भविष्य के लिये वित्तीय सहायता नहीं दी।
  • पति की माँ पत्नी के साथ रह रही है तथा उसने अपने बेटे (पति) के विरुद्ध उसकी स्थिति का समर्थन किया है। दोनों पक्ष लगभग 1992 से अलग-अलग रह रहे हैं।
  • दोनों पक्ष लगभग वर्ष 1992 से अलग-अलग रह रहे हैं।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि विवाह के अपूरणीय विघटन की अवधारणा का उपयोग उस पक्ष के लाभ के लिये नहीं किया जा सकता जो दांपत्य संबंध को नुकसान पहुँचाने के लिये पूरी तरह उत्तरदायी है।
  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी (पति) ने अपीलकर्त्ता के साथ वर्षों तक अत्यधिक क्रूरता की है।
  • यह देखा गया कि प्रतिवादी कभी भी अपने बेटे के बेहतर भविष्य को सुरक्षित करने में सहायता करने के लिये आगे नहीं आया या उसकी शिक्षा का व्यय वहन की पेशकश नहीं की।
  • न्यायालय ने उस बुद्धिरहित निर्णय की आलोचना की जिसमें कुटुंब न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के विरुद्ध बार-बार विवाह-विच्छेद के आदेश पारित किये।
  • न्यायालय ने सुझाव दिया कि कुटुंब न्यायालय की कार्यवाहियों ने संवेदनशीलता की कमी को प्रदर्शित किया तथा संभावित रूप से अपीलकर्त्ता के विरुद्ध छिपे हुए पूर्वाग्रह को इंगित किया।
  • न्यायालय ने कहा कि अधीनस्थ न्यायालयों को प्रतिवादी के दुराचार को कोई महत्त्व नहीं देना चाहिये था।

विवाह का अपूरणीय विघटन क्या है?

  • विवाह का अपूरणीय विघटन एक ऐसी स्थिति है जिसमें पति एवं पत्नी काफी समय से अलग-अलग रह रहे हैं तथा उनके फिर से साथ रहने की कोई संभावना नहीं है।
  • इससे तात्पर्य है कि विवाह में सामंजस्य स्थापित करने की कोई संभावना नहीं है तथा अगर सामंजस्य स्थापित हो जाता है और विवाह-विच्छेद नहीं दिया जाता है तो यह क्रूरता होगी।
  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के अंतर्गत विवाह के अपूरणीय विघटन को विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में स्पष्ट रूप से मान्यता नहीं दी गई है।
  • इस अवधारणा की उत्पत्ति वर्ष 1921 में न्यूज़ीलैंड में लॉडर बनाम लॉडे के ऐतिहासिक निर्णय के माध्यम से हुई थी।
  • इस अवधारणा को पहली बार उच्चतम न्यायालय ने सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा (1984) में स्वीकार किया था, जिसमें सुझाव दिया गया था कि जब विवाह टूटकर इतना दूषित हो जाए कि उसे सुधारा न जा सके, तो विवाह-विच्छेद दिया जा सकता है।
  • हालाँकि अमरेंद्र एन. चटर्जी बनाम श्रीमती कल्पना चटर्जी (2022) जैसे बाद के मामलों ने स्पष्ट किया कि सांविधिक प्रावधान की कमी के कारण न्यायालाय केवल इस आधार पर विवाह-विच्छेद नहीं दे सकती हैं।
  • अपूर्व मोहन घोष बनाम मानशी घोष (1988) में न्यायालय ने माना कि धारा 23 के अनुसार अधिनियम में उल्लिखित सांविधिक आधार पर ही राहत दी जा सकती है।
  • वी. भगत बनाम डी. भगत (1993) ने पुष्टि की कि अकेले अपूरणीय टूटना विवाह-विच्छेद का आधार नहीं है, लेकिन सांविधिक आधारों के लिये साक्ष्यों की जाँच करते समय इस पर विचार किया जा सकता है।
  • विधि आयोग ने विवाह-विच्छेद के लिये अपूरणीय विच्छेद को आधार बनाने का प्रस्ताव दिया है, लेकिन विधानमंडल ने इस अनुशंसा को नहीं अपनाया है।
  • सुश्री जॉर्डन डिएंगडेह बनाम एस.एस. चोपड़ा (1985) में उच्चतम न्यायालय ने विवाह संबंधी विधियों में व्यापक सुधार की अनुशंसा की थी, जिसमें विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में अपूरणीय विच्छेद को शामिल करना भी शामिल था।
  • न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर ने इस अवधारणा को इस प्रकार समझाया कि जब विवाह में असंगति दूर करना असंभव हो जाता है, तो विवाह के वास्तविक टूटने को मान्यता दी जाती है।
  • वर्तमान में, न्यायालय अपरिवर्तनीय टूटने को एक कारक के रूप में मान सकते हैं, लेकिन अन्य सांविधिक आवश्यकताओं को पूरा किये बिना केवल इस आधार पर विवाह-विच्छेद नहीं दे सकते।

अपूरणीय विघटन का सिद्धांत क्या है?

  • विवाह के अपूरणीय विघटन को दांपत्य संबंध में विफलता के रूप में परिभाषित किया जाता है, जहाँ पति-पत्नी के लिये पति-पत्नी के रूप में एक साथ रहने की कोई उचित संभावना नहीं रह जाती है।
  • भारत में वर्तमान में विवाह-विच्छेद के इस सिद्धांत से संबंधित कोई स्पष्ट विधायी प्रावधान नहीं है।
  • उच्चतम न्यायालय ने अपूरणीय विघटन के आधार पर विवाह-विच्छेद देने के लिये आधार विकसित किये हैं, जिसमें निम्नलिखित कारकों पर विचार किया गया है:
    • सहवास की अवधि
    • अंतिम सहवास के बाद का समय
    • पक्षों द्वारा एक दूसरे के विरुद्ध लगाए गए आरोप
    • पक्षों के मध्य विधिक कार्यवाही में पारित आदेश
    • परिवार द्वारा विवाद निपटान हेतु किये गए प्रयास
    • पृथक्करण की अवधि 6 वर्ष से अधिक
  • भारतीय विधि आयोग ने अपनी 71वीं रिपोर्ट (1978) तथा 2009 की रिपोर्ट में विवाह-विच्छेद के लिये एक अतिरिक्त आधार के रूप में अपूरणीय विच्छेद को जोड़ने की अनुशंसा की थी।
  • न्यूज़ीलैंड ने वर्ष 1920 में इस अवधारणा की शुरुआत की थी, जिसमें तीन वर्ष या उससे अधिक के पृथक्करण समझौते के आधार पर विवाह-विच्छेद की याचिकाओं को अनुमति दी गई थी।
  • हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (HMA) वर्तमान में अपूरणीय विच्छेद को विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में मान्यता नहीं देता है।
  • HMA के अंतर्गत आपसी सहमति से विवाह-विच्छेद के लिये संयुक्त याचिका, एक वर्ष की पृथक्करण अवधि तथा दो प्रस्तावों के बीच अनिवार्य छह महीने की प्रतीक्षा अवधि की आवश्यकता होती है।
  • सिद्धांत यह मानता है कि जब दांपत्य संबंध सुलह से परे बिगड़ जाता है, तो विवाह को समाप्त कर दिया जाना चाहिये।
    • इसमें तर्क दिया गया है कि जब विवाह स्थायी न हो तो साझा अधिकार एवं उत्तरदायित्व बनाए रखना अनुचित है।

विवाह के अपूरणीय विघटन का विधिक प्रावधान क्या है?

  • विवाह-विच्छेद देने वाले कई न्यायिक निर्णयों में इसके अनुप्रयोग के माध्यम से इस सिद्धांत को अनौपचारिक वैधता प्राप्त हुई है।
  • हालाँकि इसे अभी तक हिंदू विवाह अधिनियम में शामिल नहीं किया गया है, लेकिन विभिन्न विधि आयोग की रिपोर्टों में इसकी दृढ़ता से अनुशंसा की गई है।
  • विवाह कानून (संशोधन) विधेयक, 2010 को संसद में प्रस्तुत किया गया था, जिसका उद्देश्य औपचारिक रूप से विवाह-विच्छेद के लिये इस आधार को प्रस्तुत करना था।
  • भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय को अपनी विवेकाधीन शक्तियों का उपयोग करके इस आधार पर विवाह-विच्छेद देने का अधिकार देता है।
    • अनुच्छेद 142 के अंतर्गत, उच्चतम न्यायालय इस आधार पर विवाह-विच्छेद देते समय पृथक्करण के कारण, पृथक्करण की अवधि और अन्य प्रासंगिक परिस्थितियों जैसे कारकों पर विचार कर सकता है।
    • अनुच्छेद 142(1) उच्चतम न्यायालय को किसी भी मामले में 'पूर्ण न्याय' करने के लिये आवश्यक डिक्री पारित करने या आदेश देने की अनुमति देता है।
    • अनुच्छेद 142(1) के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग पूर्ण आधार पर होना चाहिये।
  • इस सिद्धांत का अनुप्रयोग मौलिक अधिकारों, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद एवं संविधान की अन्य मूलभूत विशेषताओं के साथ संरेखित होना चाहिये।
  • इस अवधारणा को तभी लागू किया जा सकता है जब किसी भी मूल संविधि में इसके विरुद्ध कोई स्पष्ट निषेध न हो।
  • हालाँकि सांविधिक आधार नहीं है, लेकिन न्यायालयों ने कुछ मामलों में अपूरणीय विघटन के प्रकाश में विवाह-विच्छेद के लिये मौजूदा आधारों की व्याख्या की है।