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आपराधिक कानून
सीमित नोटिस जारी करना
« »22-Jan-2025
बिस्वजीत दास बनाम केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो “उच्चतम न्यायालय: सीमित नोटिस से व्यापक मुद्दों पर बाद में सुनवाई पर रोक नहीं लगती।” न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति मनमोहन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने कहा कि यदि कोई महत्त्वपूर्ण विधिक प्रश्न या गंभीर त्रुटियाँ सामने आती हैं तो सीमित नोटिस जारी करने से व्यापक मुद्दों को संबोधित करने के लिये उसकी अधिकारिता सीमित नहीं हो जाती।
- उच्चतम न्यायालय ने बिस्वजीत दास बनाम केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
- यह निर्णय भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति को निर्वचित करता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि प्रक्रियागत तकनीकी के कारण न्याय से समझौता न हो।
बिस्वजीत दास बनाम केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- भारतीय जीवन बीमा निगम (LICI) के विकास अधिकारी बिस्वजीत दास पर दो बीमा संबंधी दावों का धोखाधड़ी से निपटान प्राप्त करने का आरोप लगाया गया था।
- उन्होंने कथित तौर पर एक सह-दोषी के साथ संलिप्त होकर एक बीमित व्यक्ति को मृत के रूप में प्रदर्शित किया, जबकि वह व्यक्ति जीवित था।
- अभियोजन पक्ष ने साक्ष्य प्रस्तुत कर दर्शाया कि दास एवं बीमाकृत व्यक्ति के बीच दोस्ताना संबंध थे, तथा दास ने बीमाकृत व्यक्ति से पॉलिसी अपग्रेड करने के बहाने पॉलिसी प्राप्त की थी।
- दास ने कुल 1,67,583 रुपए के छह खाली चेक भरे थे, जो बीमा दावे की राशि के बराबर थे।
- ट्रायल कोर्ट ने दास को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की कई धाराओं के अधीन दोषी माना, जिसमें धारा 468, 271, 465 एवं 420 के साथ धारा 120 (B) शामिल हैं।
- उन्हें भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (PC) की धारा 13 (1) (d) के साथ धारा 13 (2) के अधीन भी दोषी माना गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने उन्हें IPC की अधिकांश धाराओं के लिये दो वर्ष, धारा 271 एवं 465 के लिये एक वर्ष और PC अधिनियम के अधीन अपराधों के लिये तीन वर्ष का कठोर कारावास की सजा दी।
- दास ने गुवाहाटी उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने 27 सितंबर 2013 के निर्णय के द्वारा उनकी दोषसिद्धि एवं सजा दोनों की पुष्टि की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब सीमित नोटिस जारी किया जाता है, तो लिया गया दृष्टिकोण आमतौर पर अस्थायी होता है तथा इससे न्यायालय की अधिकारिता को व्यापक मुद्दों पर विचार करने तक सीमित नहीं किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि यदि बाद की पीठों को सीमित नोटिस की सीमा से परे गुण-दोष के आधार पर निर्णय देने से रोका जाता है, तो न्याय से समझौता होगा।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सभी विधिक बिंदुओं पर निर्णय लेने की अधिकारिता निहित है तथा सीमित नोटिस जारी करने के आदेश से यह कम नहीं होता।
- PC अधिनियम की प्रयोज्यता के संबंध में, न्यायालय ने पाया कि दास, LICI (केंद्रीय संविधि द्वारा स्थापित) में विकास अधिकारी के रूप में, धारा 2 (c) (iii) के अधीन स्पष्ट रूप से शामिल किये गए थे।
- न्यायालय ने वर्तमान मामले को गुजरात राज्य बनाम मानशंकर प्रभाशंकर द्विवेदी (1972) से अलग करते हुए कहा कि दास ने अपने आधिकारिक कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए अपराध किये।
- साक्ष्यों की जाँच करने पर, न्यायालय ने पुष्टि की कि दास को IPC एवं PC अधिनियम दोनों के अधीन दोषसिद्धि देने में ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय दोनों ही न्यायसंगत थे।
- न्यायालय ने पाया कि दास ने अपनी 36 महीने की सजा में से 22 महीने पहले ही काट लिये थे।
- यह देखते हुए कि मामला 2004 का है तथा दास ने अपनी सजा का लगभग दो-तिहाई हिस्सा काट लिया था, न्यायालय ने सजा को पहले से काटी गई अवधि में बदल दिया।
- दोषसिद्धि को यथावत रखते हुए, न्यायालय ने दास को जेल की शेष अवधि काटने से राहत देकर अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया।
भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के अनुसार संदर्भित विधिक प्रावधान क्या हैं?
धारा 334: संपत्ति धारक पात्र को बेईमानी द्वारा अर्जित करना।
- धारा 334(2) जो कोई किसी योग्य पात्र को, जिसके पास संपत्ति हो या जिसमें संपत्ति धारण करने का उसे विश्वास हो, सौंपे जाने पर, उसे प्राप्त करने का प्राधिकार न रखते हुए, बेईमानी से या छल द्वारा साशय उस पात्र की जगह स्वयं प्राप्त करता है, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से, जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या अर्थदण्ड से, या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
धारा 273: संगरोध नियम की अवज्ञा।
- जो कोई सरकार द्वारा किसी परिवहन के साधन को संगरोध की स्थिति में रखने के लिये, या किसी ऐसे परिवहन के संगरोध की स्थिति में अन्तर्क्रिया को विनियमित करने के लिये, या उन स्थानों के बीच, जहाँ संक्रामक रोग व्याप्त है, तथा अन्य स्थानों के बीच अन्तर्क्रिया को विनियमित करने के लिये बनाए गए किसी नियम की साशय अवज्ञा करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि छह मास तक की हो सकेगी, या अर्थदण्ड से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
धारा 336: कूटरचना
- धारा 336 (2) जो कोई कूटरचना कारित करेगा उसे दो वर्ष तक की अवधि के कारावास या अर्थदण्ड या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
धारा 318: छल
- धारा 318 (4) जो कोई छल कारित करेगा तथा इस प्रकार बेईमानी से छले गए व्यक्ति को किसी व्यक्ति को कोई संपत्ति देने के लिये, या किसी मूल्यवान प्रतिभूति को या किसी ऐसी चीज को, जो हस्ताक्षरित या मुहरबंद है, तथा जो मूल्यवान प्रतिभूति में परिवर्तित की जा सकती है, संपूर्ण बनाने, बदलने या नष्ट करने के लिये उत्प्रेरित करेगा, उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से, जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, दण्डित किया जाएगा और वह जुर्माने के लिये भी उत्तरदायी होगा।
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 क्या है?
परिचय:
- भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, भारत में भ्रष्टाचार की रोकथाम और इससे जुड़े मामलों से संबंधित विधि को समेकित एवं संशोधित करने के लिये बनाया गया एक अधिनियम है।
महत्त्वपूर्ण अनुभाग:
- धारा 3: "विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति की शक्ति"
- भ्रष्टाचार के मामलों की सुनवाई के लिये केन्द्र/राज्य सरकार को विशेष न्यायाधीश नियुक्त करने की अनुमति देता है।
- धारा 7: "लोक सेवक को रिश्वत दिये जाने से संबंधित अपराध"
- लोक कर्त्तव्य को प्रभावित करने के लिये अनुचित लाभ प्राप्त करने वाले लोक सेवकों से संबंधित मामला।
- सजा: 3-7 वर्ष कारावास एवं अर्थदण्ड।
- धारा 8: "लोक सेवक को रिश्वत देने से संबंधित अपराध"
- इसमें सरकारी कर्मचारियों को अनुचित लाभ पहुँचाना शामिल है।
- सजा: 7 वर्ष तक का कारावास या अर्थदण्ड या दोनों।
- धारा 9: "किसी वाणिज्यिक संगठन द्वारा लोक सेवक को रिश्वत देने से संबंधित अपराध"
- वाणिज्यिक संगठनों से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों का विचारण करता है।
- कॉर्पोरेट दायित्व के लिये प्रावधान शामिल हैं।
- धारा 13: "लोक सेवक द्वारा आपराधिक कदाचार"
- लोक सेवकों द्वारा आपराधिक कदाचार को परिभाषित करता है।
- इसमें गबन एवं अवैध संवर्द्धन शामिल है।
- सजा: 4-10 वर्ष का कारावास एवं अर्थदण्ड।
- धारा 17: "जाँच करने के लिये अधिकृत व्यक्ति"
- जाँच करने के लिये अधिकृत पुलिस अधिकारियों की न्यूनतम रैंक निर्दिष्ट करता है।
- निर्दिष्ट अधिकारियों से अनुमोदन की आवश्यकता है।
- धारा 19: "अभियोजन के लिये पूर्व स्वीकृति आवश्यक है"।
- लोक सेवकों पर अभियोजन का वाद संस्थित करने के लिये पूर्व स्वीकृति अनिवार्य करता है।
- स्वीकृति देने के लिये सक्षम अधिकारियों का विवरण।
- धारा 20: "जहाँ लोक सेवक कोई अनुचित लाभ स्वीकार करता है वहाँ उपधारणा"
- जब अनुचित लाभ सिद्ध हो जाता है तो भ्रष्टाचार की विधिक धारणा बनती है।
- धारा 23: "धारा 13(1)(a) के अंतर्गत अपराध के संबंध में आरोप में विवरण"
- भ्रष्टाचार के मामलों में आरोप तय करने की आवश्यकताओं को निर्दिष्ट करता है।