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सिविल कानून
शाश्वत व्यादेश प्रदान करने वाली डिक्री के निष्पादन के लिये परिसीमा काल
« »14-Feb-2025
भूदेव मलिक उर्फ भूदेव मलिक बनाम रणजीत घोषाल “शाश्वत व्यादेश प्रदान करने वाली डिक्री के प्रवर्तन या निष्पादन के लिये आवेदन किसी भी परिसीमा काल के अधीन नहीं होगा।” न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन। |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने कहा कि शाश्वत व्यादेश देने वाले आदेश के प्रवर्तन या निष्पादन के लिये कोई परिसीमा काल नहीं होगी।
- उच्चतम न्यायालय ने भूदेव मलिक उर्फ भूदेव मलिक बनाम रणजीत घोषाल (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
भूदेव मलिक उर्फ भूदेव मलिक बनाम रणजीत घोषाल वाद की पृष्ठभूमि क्या थी?
- मूल वादी ने स्वामित्व के आधार पर कब्जे की पुष्टि या कब्जे की वसूली के साथ-साथ व्यवधान के विरुद्ध शाश्वत व्यादेश की मांग करते हुए हक के लिये वाद दायर किया था।
- 1976 में इस वाद का निर्णय वादी के पक्ष में हुआ, जिसमें उनके स्वामित्व और कब्जे की पुष्टि की गई, तथा प्रतिवादियों को उनके कब्जे में बाधा डालने से स्थायी रूप से रोक दिया गया।
- 1976 के आदेश से असंतुष्ट, अपीलकर्त्ताओं (प्रतिवादियों) ने अपील दायर की, किंतु इसके निपटान का विवरण अस्पष्ट है, अपीलकर्त्ताओं का दावा है कि इसका निपटान 1980 में किया गया था।
- वर्ष 2017 में, लगभग 40 वर्षों के बाद, प्रतिवादियों (वादी के उत्तराधिकारियों) ने एक निष्पादन वाद दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि अपीलकर्त्ता वाद की संपत्ति पर उनके कब्जे को बाधित करके स्थायी व्यादेश का उल्लंघन कर रहे हैं।
- अपीलकर्त्ताओं ने 2018 में निष्पादन वाद पर लिखित आक्षेप दायर किया, जिसमें तर्क दिया गया कि वाद पोषणीय नहीं था, डिक्री अस्पष्ट थी, और उन्होंने डिक्री का उल्लंघन नहीं किया था, क्योंकि वे 1980 से संपत्ति पर कब्जा कर रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि डिक्रीदारों के पास कभी भी संपत्ति का कब्जा नहीं था।
- निष्पादन न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं के लिखित आक्षेप को खारिज कर दिया और जनवरी 2019 में अंतिम बहस के साथ आगे बढ़ा। अपीलकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक पुनरीक्षण आवेदन दायर किया, जिसने मार्च 2019 में कार्यवाही पर रोक लगा दी।
- रोक लगाने के बावजूद, सिविल न्यायाधीश ने 4 सितंबर 2019 को एक आदेश पारित कर निष्पादन वाद को एकपक्षीय रूप से निष्पादित करने की अनुमति दी, जिसमें अपीलकर्त्ताओं को गिरफ्तार करने और 30 दिनों के लिये सिविल कारागार में निरोध में रखने और उनकी संपत्ति कुर्क करने का निर्देश दिया गया।
- अपीलकर्त्ताओं ने आदेश को चुनौती देते हुए एक पुनरीक्षण आवेदन दायर किया, किंतु उच्च न्यायालय ने सितंबर 2019 में पुनरीक्षण आवेदन को खारिज कर दिया, अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की और अपीलकर्त्ताओं के दावों को खारिज कर दिया।
- उच्च न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट, अपीलकर्त्ता अब उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील में आदेश को चुनौती दे रहे हैं।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- न्यायालय ने सबसे पहले सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (CPC) के अधीन गिरफ्तारी से संबंधित उपबंधों पर चर्चा की।
- डिक्री के निष्पादन के लिये परिसीमा काल के संबंध में न्यायालय ने कहा कि परिसीमा अधिनियम, 1963 (LA) के अनुच्छेद 136 के उपबंध से यह स्पष्ट होता है कि शाश्वत व्यादेश देने वाली डिक्री के प्रवर्तन या निष्पादन के लिये कोई परिसीमा काल नहीं होगी।
- सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 नियम 32 के अनुसार, यदि कोई निर्णीत- ऋणी व्यादेश की डिक्री की अवहेलना करता है, तो उसे इस नियम के अधीन कारावास या संपत्ति की कुर्की या दोनों रीती से प्रवृत्त किया जा सकता है।
- यद्यपि, न्यायालय को यह निष्कर्ष दर्ज करना होगा कि निर्णीत-ऋणी ने जानबूझकर अवहेलना की या उसे अवसर दिये जाने के बावजूद डिक्री का पालन करने में असफल रहा। इस तरह के निष्कर्ष की अनुपस्थिति आदेश को दूषित करने वाली एक गंभीर दुर्बलता है।
- इसलिये, उपनियम के अधीन व्यादेश के लिये डिक्री के निष्पादन की मांग करने वाले व्यक्ति से यह अपेक्षित है कि वह निष्पादन न्यायालय के समक्ष ऐसी सामग्री प्रस्तुत करे जिससे वह यह निष्कर्ष निकाल सके:
- कि डिक्री से आबद्ध व्यक्ति को डिक्री की शर्तों और उसके लिये बाध्यकारी प्रकृति के बारे में पूरी जानकारी थी।
- उस व्यक्ति को ऐसी डिक्री का पालन करने का अवसर मिला था, किंतु उसने जानबूझकर, अर्थात् सतर्कता और सोच-समझकर, ऐसी डिक्री की अवज्ञा की है, जिससे वह उसके निरोध का आदेश दे सके।
- न्यायालय ने इस मामले में यह भी चर्चा की कि अधिकारिता संबंधी त्रुटि क्या होगी।
- न्यायालय ने अंततः कहा कि निष्पादन न्यायालय को विचारशील होना चाहिये था और अपीलकर्त्ताओं को उनकी गिरफ्तारी का आदेश देने से पहले कम से कम एक अवसर देना चाहिये था।
- इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश विधि में टिकने योग्य नहीं है।
शाश्वत उत्तराधिकार की डिक्री के निष्पादन के लिये परिसीमा काल से संबंधित उपबंध क्या हैं?
- परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 136 में कहा गया है कि सिविल न्यायालय की (आज्ञापक व्यादेश अनुदत्त करने वाली डिक्री से भिन्न) या किसी डिक्री या किसी आदेश के निष्पादन के लिये परिसीमा काल बताया गया है।
- इसके लिये परिसीमा काल 12 वर्ष है।
- परिसीमा काल काल तब लागू होगा:
- जब डिक्री या आदेश प्रवर्तनीय हो जाता है, अथवा जहाँ डिक्री या कोई पश्चात्वर्ती आदेश एक निश्चित तारीख को या आवर्ती कालावधियों पर किसी भी रुपए का संदाय करने या किसी संपत्ति का परिदान करने का निदेश देता है वहाँ संदाय या परिदान करने में व्यतिक्रम होता है जिसका निष्पादन कराने की ईप्सा है।
- इसमें यह भी उपबंध किया गया है कि एक शाश्वत व्यादेश देने वाली डिक्री के प्रवर्तन या निष्पादन के लिये आवेदन किसी भी परिसीमा काल के अधीन नहीं होगा।