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सांविधानिक विधि

लंबी कारावास अवधि अधिकारों का उल्लंघन है

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 17-Aug-2023

चर्चा में क्यों?

  • रबी प्रकाश बनाम ओडिशा राज्य, विशेष अनुमति याचिका (सीआरएल ) संख्या.4169/202 में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि स्वापक औषधि मन: प्रभावी पदार्थ अवैध व्यापार निवारण अधिनियम, 1985 (Narcotics Drugs and Psychotropic Substances (NDPS) Act, 1985) ड्रग्स के तहत किसी आरोपी को अनिश्चित काल तक सलाखों के पीछे नहीं रखा जा सकता है। और सिर्फ इसलिये कि कानून के लिये अदालत की संतुष्टि की आवश्यकता होती है कि व्यक्ति दोषी नहीं है।

पृष्ठभूमि

  •  वर्तमान मामले में, शीर्ष अदालत नशीले पदार्थों की व्यावसायिक मात्रा रखने के आरोप में ओडिशा में जेल में बंद एक व्यक्ति की जमानत याचिका पर विचार कर रही थी।
  •  उन्हें कम से कम 10 साल की जेल का सामना करना पड़ रहा था।
  •  आरोपी पहले ही साढ़े तीन साल सलाखों के पीछे बिता चुका है और ट्रायल कोर्ट ने इस अवधि में 19 में से सिर्फ एक गवाह का बयान दर्ज किया है।
  •  उड़ीसा उच्च न्यायालय ने एनडीपीएस अधिनियम के तहत कड़े प्रावधानों का हवाला देते हुये उन्हें जमानत पर रिहा करने से इनकार कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की पीठ ने माना है कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को एनडीपीएस अधिनियम के तहत वैधानिक प्रतिबंध से अधिक प्राथमिकता दी जायेगी।
  • पीठ ने आगे कहा कि लंबे समय तक कारावास भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत सबसे कीमती मौलिक अधिकार में बाधा डालता है। ऐसी स्थिति में, सशर्त स्वतंत्रता को एनडीपीएस अधिनियम द्वारा बनाये गये वैधानिक प्रतिबंध को खत्म करना चाहिये।
  • न्यायालय ने विचाराधीन कैदी को जमानत पर रिहा कर दिया।

कानूनी प्रावधान (Legal Provisions)

  • विचाराधीन कैदी (Undertrial Prisoners)- ऐसा आरोपी व्यक्ति जिसे अदालत में उसके मामले की सुनवाई के दौरान न्यायिक हिरासत में रखा जाता है।

संवैधानिक और आपराधिक कानून पहलू-

  •  किसी भी देश में आपराधिक न्याय प्रणाली का उद्देश्य न केवल पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा करना है, बल्कि दोषियों, कैदियों और विचाराधीन कैदियों के अधिकारों की भी रक्षा करना है।
  •  जेल में निरुद्ध सभी व्यक्तियों को उचित समय के भीतर मुकदमा चलाने का अधिकार है।
  •  लंबे समय तक हिरासत में रखना और सुनवाई के मामलों में देरी न केवल लोगों को दिये गये स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है, बल्कि विचाराधीन कैदियों के मानवाधिकारों से इनकार करना भी है।
  •  एक विचाराधीन कैदी को निम्नलिखित आधारों पर जेल में रखा जा सकता है:
    •  बहुत गंभीर अपराध के मामले में;
    •  यदि गिरफ्तार व्यक्ति गवाहों के साथ हस्तक्षेप करने या न्याय की प्रक्रिया में बाधा डालने की संभावना रखता है;
    •  यदि गिरफ्तार किये गये व्यक्ति के समान या कोई अन्य अपराध करने की संभावना है;
    •  यदि वह मुकदमे के लिए उपस्थित होने में असफल हो सकता है।
  •  भारत का संविधान अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है।

अनुच्छेद 21 - जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा - किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जायेगा।


निर्णय विधि

शरीफबाई बनाम अब्दुल रजाक (1961)

● मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यदि आरोपी व्यक्ति को निर्धारित समय के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया जाता है, तो ऐसी हिरासत गलत होगी।

हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979)

  •  इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 को व्यापक अर्थ दिया और कहा कि हर किसी को त्वरित सुनवाई का अधिकार है।
  •  न्यायालय ने माना कि एक ऐसी प्रक्रिया जो किसी ऐसे आरोपी व्यक्ति को कानूनी सेवाएं उपलब्ध नहीं करवाती हैं जो वकील का खर्च उठाने में बहुत गरीब है और जिसे कानूनी सहायता के बिना मुकदमे से गुजरना होगा, उसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उचित, निष्पक्ष और साम्य नहीं माना जा सकता है।

स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act, 1985)-

  • स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 के तहत निर्दिष्ट ऐसे हानिकारक पदार्थों के उत्पादन, उपभोग और परिवहन को विनियमित करने वाला एक केंद्रीय कानून है।
  • यह अधिनियम मार्च, 1986 से लागू हुआ और इस अधिनियम के तहत नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो यानी स्वापक नियंत्रण ब्यूरो की स्थापना की गई थी।
  • नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (NCB) गृह मंत्रालय के तहत एक भारतीय केंद्रीय कानून प्रवर्तन और खुफिया एजेंसी है।
  • आपराधिक कानून एक्टस नॉन फैसिट रेम निसी मेन्स सिट रीए की कहावत का पालन करता है जिसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति को दोषी इरादे के बिना दोषी नहीं ठहराया जायेगा।
  • एनडीपीएस अधिनियम के लिए सिद्ध इरादे या ज्ञान की भी आवश्यकता होती है। प्रत्येक मुकदमे में यह देखा जाना चाहिये कि क्या कथित अपराधी को अपराध करने की जानकारी थी या इरादा था।

निर्णय विधि

ए. एन. पटेल बनाम गुजरात राज्य (2003) के मामले में अदालत ने इस तथ्य पर जोर दिया कि एनडीपीएस अधिनियम के मामलों की सुनवाई जल्द से जल्द की जानी चाहिये क्योंकि ऐसे मामलों में आम तौर पर आरोपी को जमानत पर रिहा नहीं किया जाता है।