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पारिवारिक कानून

वयस्क संतान का भरण-पोषण अधिकार

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 02-Aug-2024

A बनाम B

“हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 26 में यह प्रावधान है कि न्यायालय, जहाँ तक भी संभव हो, अवयस्क बच्चों की शिक्षा के संबंध में उनकी इच्छा के अनुरूप आदेश पारित कर सकता है”।

न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति अमित बंसल  

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने A बनाम B के मामले में यह व्यवस्था दी है कि एक वयस्क पुत्र तब तक भरण-पोषण पाने का अधिकारी होगा, जब तक वह अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर लेता और आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो जाता।

A बनाम B मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में दोनों पक्षों ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के अधीन विवाह किया था और उनका एक पुत्र भी है।
  • वर्ष 2004 से दोनों पक्ष अलग-अलग रहने लगे थे, बेटा माँ के साथ रहता था।
  • पति ने क्रूरता के आधार पर HMA की धारा 13(1)(ia) के अंतर्गत कुटुंब न्यायालय में विवाह-विच्छेद के लिये याचिका दायर की।
  • विवाह-विच्छेद याचिका के लंबित रहने के दौरान पत्नी ने HMA की धारा 24 के अंतर्गत लंबित भरण-पोषण के लिये आवेदन दायर किया, जिसके लिये कुटुंब न्यायालय ने पति को उसकी पत्नी और बेटे को 18000 रुपए का भरण-पोषण देने का आदेश दिया।
  • पत्नी ने 20000 रुपए की बढ़ोतरी के लिये भरण-पोषण आदेश की अपील की।
  • 28 फरवरी 2009 को, पत्नी ने पुनः कुटुंब न्यायालय में आवेदन दायर कर पर्याप्त परिवर्तन के कारण अंतरिम भरण-पोषण राशि को बढ़ाकर 1,45,000 रुपए करने का अनुरोध किया।
  • 14 जुलाई 2016 को पति ने अपनी विवाह-विच्छेद याचिका वापस ले ली।
  • 17 जुलाई 2015 को भरण-पोषण याचिका के लंबित रहने के दौरान पति ने पारिवारिक न्यायालय में एक आवेदन दायर किया जिसमें कहा गया कि-
    • उसने स्वेच्छा से भरण-पोषण की राशि बढ़ाकर 65000 रुपए करने की बात स्वीकार की (वृद्धि आवेदन दाखिल करने की तिथि अर्थात 28 फरवरी 2009 से पत्नी को 50,000 रुपए तथा जुलाई 2015 से बेटे को 15,000 रुपए)।
    • उन्होंने आगे दलील दी कि चूँकि उन्होंने विवाह-विच्छेद की याचिका वापस ले ली है, इसलिये न्यायालय HMA की धारा 24 और धारा 26 के अंतर्गत भरण-पोषण भत्ता नहीं दे सकती है तथा न्यायालय अब अधिकारहीन हो गई है।
    • उन्होंने यह भी तर्क दिया कि धारा 26 के अंतर्गत वयस्क पुत्र को कोई भरण-पोषण नहीं दिया जा सकता।
  • पारिवारिक न्यायालय ने आदेश दिया कि- 
    • पत्नी और पुत्र 28 फरवरी 2009 से 14 जुलाई 2016 तक 1,15,000/- रुपए का अंतरिम भरण-पोषण पाने के अधिकारी होंगे।
    • पुत्र 15 जुलाई 2016 से 26 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक भरण-पोषण पाने का अधिकारी होगा तथा 28 मई 2019 से 2 वर्ष के नियमित अंतराल पर वृद्धि पाने का अधिकारी होगा।
  • कुटुंब न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर दोनों पक्षों ने दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि विवाह-विच्छेद की याचिका वापस लिये जाने से पत्नी के HMA की धारा 24 के अंतर्गत भरण-पोषण पाने के अधिकार में कोई कमी नहीं आती। इस तरह के निर्णय से पत्नी को परेशानी होगी।
  • इसलिये, दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि पति द्वारा विवाह-विच्छेद की याचिका वापस लेने के बाद भी कुटुंब न्यायालय भरण-पोषण आवेदन पर निर्णय देने के लिये सक्षम है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि HMA की धारा 26 के अनुसार, यदि पति विवाह-विच्छेद की याचिका वापस ले लेता है तो पदेन कुटुंब न्यायालय अधिकारहीन नहीं हो जाता।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 26 के संदर्भ की व्याख्या करते हुए कहा कि धारा 26 के प्रावधान का उद्देश्य बच्चे की शिक्षा सुनिश्चित करना है और यह कहना अव्यवहारिक है कि कोई बच्चा वयस्क होने पर अपनी शिक्षा पूरी कर सकेगा तथा अपना भरण-पोषण करने में सक्षम हो सकेगा।
  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 26 के अनुसार शिक्षा का दायरा बच्चे के वयस्क होने तक सीमित नहीं किया जा सकता।
  • इसलिये, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि एक वयस्क पुत्र अपनी शिक्षा पूरी करने और आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने तक भरण-पोषण पाने का अधिकारी होगा।

भरण-पोषण क्या है?

  • परिचय:
    • यह पिता या पति द्वारा अपने बच्चों या पत्नी को दी जाने वाली वित्तीय सहायता है।
    • भरण-पोषण को गुज़ारा भत्ता भी कहा जाता है, जो आश्रितों के खर्चों और सभी आवश्यकताओं के लिये भुगतान को संदर्भित करता है।
    • हिंदू विधि के अनुसार, भरण-पोषण की राशि प्रदान की जाएगी, भले ही पक्षकार एक साथ रह रहे हों या नहीं और चाहे विवाह-विच्छेद हो गया हो या नहीं।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत भरण-पोषण प्रावधान:

  • धारा 24: लंबित भरण-पोषण और कार्यवाही का खर्च
    • इस प्रावधान में कहा गया है कि जहाँ इस अधिनियम के अंतर्गत किसी कार्यवाही में न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि या तो पत्नी या पति, जैसा भी मामला हो, के पास अपने समर्थन और कार्यवाही के आवश्यक खर्चों के लिये पर्याप्त स्वतंत्र आय नहीं है, यह पत्नी या पति के आवेदन पर, प्रत्यर्थी को याचिकाकर्त्ता को कार्यवाही के व्यय का भुगतान करने का आदेश दे सकता है तथा कार्यवाही के दौरान मासिक रूप से ऐसी राशि का भुगतान कर सकता है, जो याचिकाकर्त्ता की अपनी आय और प्रत्यर्थी की आय को ध्यान में रखते हुए न्यायालय को उचित लगे।
    • परंतु कार्यवाही के व्ययों तथा कार्यवाही के दौरान ऐसी मासिक राशि के भुगतान के लिये आवेदन का निपटान, जहाँ तक ​​संभव हो, यथास्थिति, पत्नी या पति को नोटिस की तामील की तिथि से साठ दिन के भीतर किया जाएगा।
  • धारा 26: बच्चों की अभिरक्षा
    • इस प्रावधान में कहा गया है कि इस अधिनियम के अंतर्गत किसी भी कार्यवाही में, न्यायालय समय-समय पर ऐसे अंतरिम आदेश पारित कर सकता है और डिक्री में ऐसे प्रावधान कर सकता है, जिन्हें वह अवयस्क बच्चों की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में, जहाँ भी संभव हो, उनकी इच्छाओं के अनुरूप, न्यायसंगत और उचित समझे, और डिक्री के बाद, इस प्रयोजन के लिये याचिका द्वारा आवेदन करने पर, समय-समय पर ऐसे बच्चों की अभिरक्षा, भरण-पोषण तथा शिक्षा के संबंध में सभी ऐसे आदेश एवं प्रावधान कर सकता है, जो ऐसे डिक्री या अंतरिम आदेशों द्वारा किये जा सकते थे, यदि ऐसी डिक्री प्राप्त करने की कार्यवाही अभी भी लंबित होती, और न्यायालय समय-समय पर पहले किये गए ऐसे किसी भी आदेश और प्रावधान को रद्द, निलंबित या परिवर्तित भी कर सकता है।
    • परंतु यह कि अवयस्क बच्चों के भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में आवेदन, ऐसी डिक्री प्राप्त करने की कार्यवाही लंबित रहने तक, जहाँ तक ​​संभव हो, प्रत्यर्थी पर नोटिस की तामील की तिथि से साठ दिन के भीतर निपटाया जाएगा।

HMA की धारा 24 और दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 25 के बीच अंतर:

                  HMA की धारा 24

                  CrPC की धारा 25

केवल हिंदुओं पर लागू।

यह नियम सभी नागरिकों पर लागू है, चाहे उनकी धर्म, जाति या मान्यता कुछ भी हो।

भरण-पोषण, विवाह-विच्छेद याचिका के लंबित रहने के दौरान प्रदान किया जाता है, उसके बाद नहीं।

विवाह-विच्छेद याचिका के दौरान और उसके बाद भरण-पोषण प्रदान किया जाता है।

इस धारा के अंतर्गत केवल पति-पत्नी ही भरण-पोषण पाने के अधिकारी हैं।

पति-पत्नी, बच्चे (धर्मज या अधर्मज), माता-पिता सभी इस धारा के तहत भरण-पोषण का दावा करने के पात्र हैं।

भरण-पोषण भत्ता पक्षकारों के जीवन स्तर, आय और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर दिया जाता है।

भरण-पोषण भत्ता दावेदारों की आवश्यकताओं और प्रतिवादी की भुगतान करने की क्षमता के आधार पर प्रदान किया जाता है।

निर्णयज विधियाँ:

  • उर्वशी अग्रवाल और अन्य बनाम इंद्रपॉल अग्रवाल (2021): इस मामले में न्यायालय ने कहा कि एक पिता अपने बेटे की शिक्षा का व्यय उठाने के अपने उत्तरदायित्व से इसलिये मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि बेटा वयस्क हो गया है। भले ही बच्चा वयस्क हो, परंतु वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो सकता और स्वयं का भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हो सकता।
  • सपना पॉल बनाम रोहिन पॉल (2024): इस मामले में न्यायालय ने माना कि एक पिता का अपने बच्चे के प्रति दायित्व तब समाप्त नहीं होता जब बच्चा वयस्क हो जाता है, भले ही वह अभी भी अपनी पढ़ाई कर रहा हो।
  • रजनेश बनाम नेहा (2021): इस मामले में, न्यायालय ने कहा कि भरण-पोषण राशि में बच्चे के भोजन, कपड़े, निवास, अतिरिक्त कोचिंग या बुनियादी शिक्षा के पूरक के रूप में किसी अन्य व्यावसायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम पर विचार किया जाना चाहिये।