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 26-Nov-2024

बलराम सिंह बनाम भारत संघ

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना में 'समाजवादी' शब्द किसी विशिष्ट आर्थिक नीति को अनिवार्य बनाए बिना कल्याणकारी राज्य होने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।”

CJI संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' शब्द कल्याणकारी राज्य होने और विशिष्ट आर्थिक नीतियों को अनिवार्य बनाए बिना अवसर की समानता सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। न्यायालय ने भारत के मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल का अवलोकन किया, जहाँ सार्वजनिक और निजी क्षेत्र सह-अस्तित्व में हैं, जिससे हाशिये पर रह रहे समुदायों को लाभ मिलता है।

  • CJI संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार ने बलराम सिंह बनाम भारत संघ मामले में यह निर्णय दिया।
  • यह टिप्पणी 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से प्रस्तावना में "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को शामिल करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करते हुए की गई।

बलराम सिंह बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्ष 2020 में, वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को शामिल करने को चुनौती देते हुए कई रिट याचिकाएँ दायर की गईं।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि ये शब्द आपातकालीन अवधि के दौरान बिना किसी वास्तविक सार्वजनिक परामर्श के जोड़े गए थे, जबकि सामान्य संसदीय कार्यकाल पहले ही समाप्त हो चुका था।
  • एक प्रमुख तर्क यह था कि संविधान सभा ने वर्ष 1949 में संविधान के मूल प्रारूपण के दौरान जानबूझकर इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया था।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने दावा किया कि संविधान को अपनाने के 27 वर्ष बाद इन वैचारिक शब्दों को पूर्वव्यापी रूप से इसमें शामिल करना प्रक्रियागत रूप से अनुचित था।
  • उन्होंने विशेष रूप से तर्क दिया कि "समाजवादी" शब्द अनावश्यक रूप से लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकारों के आर्थिक नीति विकल्पों को प्रतिबंधित करता है।
  • इस चुनौती में यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या आपातकाल के दौरान किया गया संशोधन संविधान के दार्शनिक ढाँचे को मौलिक रूप से बदल सकता है।
  • कानूनी याचिका में कहा गया है कि संविधान सभा ने जानबूझकर इन शब्दों को मूल प्रस्तावना में शामिल नहीं किया था, तथा बाद में इन्हें शामिल करना अनुचित था।
  • उल्लेखनीय बात यह है कि याचिकाकर्त्ताओं ने वास्तविक संशोधन के 44 वर्ष बाद अपनी चुनौती दायर की, जो स्वयं न्यायिक जाँच का विषय बन गया।
  • मुख्य विधिक प्रश्न यह था कि क्या संसद को एक असाधारण राजनीतिक अवधि के दौरान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना के आधारभूत सिद्धांतों को एकतरफा रूप से संशोधित करने का संवैधानिक अधिकार था।

प्रस्तावना में सम्मिलित 42वें संशोधन के संबंध में याचिकाकर्त्ताओं के तर्क क्या थे?

  • वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में तीन नए शब्द - "धर्मनिरपेक्ष", "समाजवादी" और "अखंडता" जोड़े गए।
  • यह संशोधन वर्ष 1949 में संविधान को मूल रूप से अपनाए जाने के दशकों बाद किया गया था, जब संविधान सभा ने विचार करके प्रस्तावना में "धर्मनिरपेक्ष" और "समाजवादी" शब्दों को शामिल नहीं करने का निर्णय लिया था।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि वर्ष 1976 में इन वैचारिक शब्दों को पूर्वव्यापी रूप से जोड़ना प्रक्रियात्मक रूप से अनुचित था, क्योंकि इससे संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित दार्शनिक ढाँचे में मौलिक परिवर्तन हो गया।
  • विशेष रूप से, "धर्मनिरपेक्ष" शब्द को शामिल करने को चुनौती दी गई, क्योंकि संविधान सभा ने पहले इस शब्द से परहेज़ किया था, तथा कुछ विद्वानों ने इसे धर्म के विपरीत माना था।
  • इसी प्रकार, "समाजवादी" शब्द का भी याचिकाकर्त्ताओं द्वारा विरोध किया गया, जिन्होंने दावा किया कि यह लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकारों के आर्थिक नीति विकल्पों को अनुचित रूप से प्रतिबंधित करता है।
  • सम्मिलित किया गया तीसरा शब्द "अखंडता" था, जिसका उद्देश्य किसी भी अलगाववादी प्रवृत्ति को समाप्त करना तथा संविधान के अनुच्छेद 1 के अनुसार भारत को "राज्यों का संघ" के रूप में स्थापित करना था।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि आपातकालीन अवधि के दौरान किये गए इन संशोधनों में वास्तविक जनता की सहमति और परामर्श का अभाव था, क्योंकि इन्हें लोकसभा का सामान्य कार्यकाल समाप्त होने के बाद पारित किया गया था।
  • कुल मिलाकर, मुख्य विधिक चुनौती संविधान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना के आधारभूत सिद्धांतों को एकतरफा रूप से संशोधित करने की वैधता के इर्द-गिर्द घूमती है, विशेष रूप से आपातकाल जैसे असाधारण राजनीतिक काल के दौरान।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने पुनः पुष्टि की कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है, जिसमें संसद को अनुच्छेद 368 के तहत वैध संशोधन शक्तियाँ प्राप्त हैं, जो प्रस्तावना को संशोधित करने तक विस्तारित हैं।
  • न्यायालय ने स्पष्ट रूप से स्पष्ट किया कि "समाजवाद" की व्याख्या प्रतिबंधात्मक आर्थिक विचारधारा के रूप में नहीं की जानी चाहिये, बल्कि इसे कल्याण और अवसर की समानता सुनिश्चित करने के लिये राज्य की प्रतिबद्धता के रूप में समझा जाना चाहिये।
  • "धर्मनिरपेक्षता" के संबंध में न्यायालय ने विस्तार से बताया कि यह किसी विशिष्ट धर्म का समर्थन या दंड दिये बिना, सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करने की राष्ट्र की मौलिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है, चाहे उनकी धार्मिक संबद्धता कुछ भी हो।
  • न्यायालय ने कहा कि समाजवाद का भारतीय ढाँचा आर्थिक और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को मूर्त रूप देता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी नागरिक आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के कारण वंचित न रहे।
  • न्यायपालिका ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न तो संविधान और न ही प्रस्तावना किसी विशिष्ट आर्थिक नीति संरचना का आदेश देती है, चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी, बल्कि यह सामाजिक कल्याण के प्रति व्यापक प्रतिबद्धता का प्रतिनिधित्व करती है।
  • न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भारत ने निरंतर मिश्रित आर्थिक मॉडल को अपनाया है, जहाँ निजी उद्यमशीलता सार्वजनिक क्षेत्र की पहलों के साथ मिलकर काम करती है, तथा सामाजिक उत्थान में योगदान देती है।
  • निर्णय में कहा गया कि संवैधानिक प्रावधान, विशेषकर अनुच्छेद 14, 15, 16, 25 और 26, स्वाभाविक रूप से गैर-भेदभाव और धार्मिक स्वतंत्रता के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को प्रतिबिंबित करते हैं।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इन याचिकाओं को संशोधन के 44 वर्ष बाद देरी से दायर किया जाना, उनकी विश्वसनीयता को काफी कम कर देता है तथा यह इन संवैधानिक परिवर्तनों की व्यापक सार्वजनिक स्वीकृति को दर्शाता है।
  • अंततः न्यायालय ने 42वें संशोधन को चुनौती देने वाली सभी दलीलों को खारिज कर दिया, तथा इस बात की पुष्टि की कि "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को शामिल करना वैध संवैधानिक संशोधन थे, जो मौलिक अधिकारों या बुनियादी संवैधानिक ढाँचे का उल्लंघन नहीं करते थे।

भारतीय संविधान में "समाजवाद" क्या है?

  • भारतीय संविधान में "समाजवाद" शब्द की व्याख्या निर्वाचित सरकार पर थोपी गई प्रतिबंधात्मक आर्थिक विचारधारा के रूप में नहीं की जानी चाहिये।
  • बल्कि, "समाजवाद" कल्याणकारी राज्य होने तथा सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता सुनिश्चित करने के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
  • भारत ने निरंतर मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल को अपनाया है, जहाँ निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ फलता-फूलता रहा है।
  • भारतीय संदर्भ में, "समाजवाद" आर्थिक और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को मूर्त रूप देता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी नागरिक को उसकी आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के कारण नुकसान न पहुँचे।
  • "समाजवाद" शब्द समाज के हाशिये पर रह रहे और वंचित वर्गों के आर्थिक तथा सामाजिक उत्थान के लक्ष्य को दर्शाता है।
  • महत्त्वपूर्ण बात यह है कि "समाजवाद" निजी उद्यमशीलता या संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत किसी भी व्यवसाय या व्यापार को चलाने के मौलिक अधिकार को प्रतिबंधित नहीं करता है।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न तो संविधान और न ही प्रस्तावना में निर्वाचित सरकार के लिये किसी विशिष्ट वामपंथी या दक्षिणपंथी आर्थिक नीति संरचना का प्रावधान है।
  • प्रस्तावना में "समाजवादी" शब्द का समावेश राज्य की अपने नागरिकों के कल्याण तथा सभी प्रकार के शोषण, चाहे वह सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक हो, के उन्मूलन के प्रति व्यापक प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 368 क्या है?