होम / करेंट अफेयर्स
आपराधिक कानून
धन-शोधन एक सतत् अपराध है
« »18-Mar-2025
प्रदीप निरंकारनाथ शर्मा बनाम प्रवर्तन निदेशालय एवं अन्य “धन-शोधन निवारण अधिनियम के पीछे विधायी आशय धन-शोधन के खतरे का निवारण करना है, जिसमें अपनी प्रकृति के कारण लंबे समय तक चलने वाले संव्यवहार सम्मिलित होते है।” न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पीबी वराले |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पीबी वराले की पीठ ने धारित किया कि धन-शोधन निवारण अधिनियम के अधीन अपराध सतत् प्रकृति के हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने प्रदीप निरंकारनाथ शर्मा बनाम प्रवर्तन निदेशालय और अन्य (2025) के मामले में यह धारित।
दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम एस.जी.जी. टावर्स (पी) लिमिटेड और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलार्थी ने गुजरात उच्च न्यायालय के 14 मार्च 2023 के आदेश के विरुद्ध अपील दायर की है, जिसमें उसके आपराधिक पुनरीक्षण आवेदन को खारिज कर दिया गया था और धन-शोधन मामले में उसके उन्मोचन आवेदन को विचारण न्यायालय द्वारा खारिज करने के निर्णय को बरकरार रखा गया था।
- अपीलार्थी ने पहले आपराधिक पुनरीक्षण आवेदन संख्या 66/2018 के माध्यम से उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें धन-शोधन निवारण अधिनियम में विशेष न्यायाधीश (धन-शोधन निवारण अधिनियम ), अहमदाबाद के 08 जनवरी 2018 के आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 227 के अधीन उन्मोचित करने से इंकार कर दिया गया था।
- यह मामला आर्थिक अपराधों के अभियोग से उत्पन्न हुआ, जहाँ प्रवर्तन निदेशालय ने धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (धन-शोधन निवारण अधिनियम ) के अधीन अपीलार्थी के विरुद्ध कार्यवाही शुरू की।
- अभियोजन पक्ष ने अभिकथित किया कि अपीलार्थी कपटपूर्ण गतिविधियों के माध्यम से उत्पन्न अपराध की आय से जुड़े वित्तीय संव्यवहार में सम्मिलित था, जिससे गुजरात राज्य को काफी वित्तीय हानि हई।
- प्रवर्तन निदेशालय ने दावा किया कि अपीलार्थी ने धन की अवैध स्त्रोतों को छिपाने के लिये बैंकिंग प्रणाली और वित्तीय साधनों का उपयोग करके धन शोधन को बढ़ावा दिया।
- अपीलार्थी को 31 जुलाई 2016 को ECIR/01/AZO/2012 के संबंध में गिरफ्तार किया गया था, जिसे प्रवर्तन निदेशालय ने 12 मार्च 2012 को दर्ज किया था, जो दो प्रथम सूचना रिपोर्ट से उत्पन्न हुआ था दिनांक 31 मार्च 2010 और प्रथम सूचना रिपोर्ट दिनांक 25 सितंबर 2010।
- प्रवर्तन निदेशालय ने 27 सितंबर 2016 को धन-शोधन निवारण अधिनियम की धारा 3 और 4 के अधीन अपराधों के लिये विशेष न्यायाधीश के समक्ष एक परिवाद दर्ज किया, जिसमें दो अनुसूचित अपराधों का हवाला दिया गया - एक भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन, और दूसरा भारतीय दण्ड संहिता प्रावधानों के अधीन कूट-रचना और आपराधिक षड्यंत्र से संबंधित था।
- दोनों अनुसूचित अपराधों में आरोप पत्र दायर किए जा चुके थे, और अपीलार्थी को जमानत मिल गई थी - एक मामले में अग्रिम जमानत 3 फरवरी 2012 को उच्च न्यायालय द्वारा दी गई थी, तथा दूसरे मामले में नियमित जमानत 13 दिसंबर 2011 को उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई थी।
- अपीलार्थी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 227 के अधीन उन्मोचन आवेदन दायर किया, जिसमें तर्क दिया गया कि उसे मिथ्या रूप से फंसाया गया था, धन-शोधन निवारण अधिनियम के अधीन कोई अपराध नहीं बनाया गया था, और कथित अपराध धन-शोधन निवारण अधिनियम के लागू होने से पहले के थे, जिससे इसका आवेदन पूर्वव्यापी और विधिक रूप से अस्वीकार्य हो गया।
- उन्होंने आगे तर्क दिया कि विचाराधीन वित्तीय संव्यवहार एक ऐसी कंपनी से जुड़े थे जिसमें उनकी पत्नी भागीदार थीं, और संयुक्त राज्य अमेरिका में उनके बैंक खाते किसी भी आपराधिक गतिविधि से संबंधित नहीं थे क्योंकि वे उनकी पढ़ाई के दौरान खोले गए थे।
- विशेष न्यायाधीश (धन-शोधन निवारण अधिनियम) ने 08 जनवरी 2018 के अपने आदेश में प्रथम दृष्टया साक्ष्य पाते हुए अपीलार्थी के हवाला संव्यवहार में शामिल होने और अपराध की आय रखने का सुझाव दिया।
- विचारण न्यायालय ने पाया कि अपीलार्थी धन-शोधन निवारण अधिनियम की धारा 24 के अधीन साक्ष्य पेश करने में विफल रहा है और उसके उन्मोचन आवेदन को खारिज कर दिया।
- तत्पश्चात् अपीलार्थी ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और दावा किया कि उसके विरुद्ध लगाए गए अभियोग निराधार हैं, उसके विरुद्ध धन शोधन से जुड़े कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं हैं और अभियोजन पक्ष प्रथम दृष्टया मामला साबित करने में विफल रहा है।
- प्रवर्तन निदेशालय ने याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि अपीलार्थी ने धन शोधन योजना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, अवैध धन को छिपाने में सहायता की और अपराध की आय से वित्तीय लाभ प्राप्त किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने अपीलार्थी के इस तर्क को खारिज कर दिया कि कथित कृत्य धन-शोधन निवारण अधिनियम कार्यवाही के अधीन नहीं हैं क्योंकि वे सुसंगत अपराधों को धन-शोधन निवारण अधिनियम अनुसूची में सम्मिलित किये जाने से पहले हुए थे।
- न्यायालय ने स्थापित किया कि धन-शोधन निवारण अधिनियम के अधीन अपराध निरंतर प्रकृति के होते हैं, जो तब तक बने रहते हैं जब तक अपराध की आय को छिपाया जाता है, इस्तेमाल किया जाता है या निष्कलंक संपत्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
- न्यायालय ने विजय मदनलाल चौधरी मामले में दिए गए निर्णय का संदर्भ दिया, जिसमें पुष्टि की गई थी कि धन-शोधन अपराध की आय से जुड़ी गतिविधियों से संबंधित एक स्वतंत्र अपराध है।
- न्यायालय ने पाया कि भले ही आपराधिक गतिविधि अनुसूचित अपराध के रूप में अधिसूचित होने से पहले हुई हो, परंतु अधिसूचना के पश्चात् भी उसकी आय पर संव्यवहार जारी रखने पर व्यक्ति को धन-शोधन निवारण अधिनियम के अधीन अभियोजन का सामना करना पड़ सकता है।
- न्यायालय ने अवधारित किया कि इस विनिर्दिष्ट मामले में, भौतिक साक्ष्य से पता चलता है कि अपीलार्थी द्वारा सत्ता के दुरुपयोग के साथ-साथ अपराध की आय का उपयोग और छिपाने का स्थायी प्रभाव पड़ा है।
- न्यायालय ने अपीलार्थी की मौद्रिक सीमा के बारे में तर्कों को खारिज कर दिया, जिसमें पाया गया कि अपराध की आय की मात्रा 30 लाख रुपये की सांविधिक सीमा से काफी अधिक है।
- न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि कथित अपराधों में कूट-रचना और कपट के माध्यम से भूमि आवंटन संव्यवहार शामिल है, जिसके परिणामस्वरूप सरकार को 1 करोड़ रुपये से अधिक की हानि हुई, साथ ही हवाला संव्यवहार और अवैध रिश्वत भी शामिल है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलार्थी को पूर्व-विचारण चरण में उन्मोचित करना समय से पहले और धन शोधन मामलों में अभियोजन को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों के विपरीत होगा।
- न्यायालय ने अवधारित किया कि अभिकथनों की गंभीर प्रकृति को देखते हुए अपराध के संपूर्ण विस्तार का पता लगाने तथा वित्तीय संव्यवहार की श्रृंखला का विश्लेषण करने के लिये पूर्ण विचारण आवश्यक है।
धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 क्या है?
के बारे में:
- धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 भारत की संसद का एक अधिनियम है जिसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने धन शोधन को रोकने और धन शोधन से प्राप्त संपत्ति को जब्त करने का प्रावधान करने के लिये अधिनियमित किया है। धन-शोधन निवारण अधिनियम और इसके अधीन अधिसूचित नियम 1 जुलाई 2005 से प्रभावी हुए।
धन शोधन निवारण अधिनियम का उद्देश्य:
- धन शोधन निवारण अधिनियम का उद्देश्य भारत में धन शोधन से निपटना है और इसके तीन मुख्य उद्देश्य हैं:
- धन शोधन का निवारण और नियंत्रित करना।
- शोधित धन से प्राप्त संपत्ति को जब्त करना और कुर्क करना।
- भारत में धन शोधन से जुड़े किसी भी अन्य विवाद से निपटना।
अधिनियम के महत्वपूर्ण प्रावधान:
- धारा 45: अपराधों का संज्ञेय और अजमानतीय होना।
- यह धन शोधन के अपराध में आरोपित अभियुक्त को जमानत देने के उद्देश्य से पूरी की जाने वाली शर्तें निर्धारित करता है।
- धारा 50: समन करने, दस्तावेज प्रस्तुत करने और साक्ष्य देने आदि के बारे में प्राधिकारियों की शक्तियाँ।
- यह समन करने, दस्तावेज प्रस्तुत करने और साक्ष्य देने में प्राधिकारियों की शक्तियों का विवरण देता है। यह निदेशक की शक्तियों का प्रकटीकरण और निरीक्षण, हाजिर कराना, अभिलेखों के प्रस्तुतीकरण करने के लिये विवश करना और कमीशन निकलना करने जैसे मामलों के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अधीन सिविल न्यायालय की शक्तियों के बराबर मानता है।
- धारा 50(2) निदेशक और अन्य अधिकारियों को धन-शोधन निवारण अधिनियम के अधीन किसी भी अन्वेषण या कार्यवाही के दौरान किसी भी व्यक्ति को समन करने का अधिकार देती है। पीएमएल नियम, 2005 के नियम 2(त) और नियम 11 इन शक्तियों को और अधिक स्पष्ट करते हैं।
- धारा 50(3) के अनुसार समन किये गए सभी व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से या प्राधिकृत अभिकर्ताओं के माध्यम से उपस्थित होना चाहिये, परीक्षा के बाद सत्य कथन करने चाहिये और आवश्यक दस्तावेज प्रस्तुत करने चाहिये।
- धारा 50(4) धारा 50(2) और धारा 50(3) के अधीन प्रत्येक कार्यवाही को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 193 और 228 के अनुसार न्यायिक कार्यवाही समझी जाएगी।
- धारा 50(5) धारा 50(2) केंद्र सरकार द्वारा निमित्त बनाए गए किन्हीं नियमों के अधीन रहते हुए उपधारा (2) में निर्दिष्ट किसी भी अधिकारी को इस अधिनियम के अधीन किन्हीं भी कार्यवाही में उसके समक्ष प्रस्तुत किए गए किसी भी अभिलेख को परिबद्ध करने और किसी अवधि के लिये अपने पास प्रतिधारित करने की अनुमति देती है। इस शक्ति के दुरुपयोग के निवारण के लिये सुरक्षा उपाय मौजूद हैं।