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सांविधानिक विधि

पुराने अधिनियम का निरसन करने वाला नया अधिनियम

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 10-Feb-2025

मेसर्स एसआरएस ट्रेवल्स द्वारा मालिक के.टी. राजशेखर बनाम कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम श्रमिक एवं अन्य (2025) 

“निरसन सांविधिक विधिक ढांचे को नए सिरे से नहीं बनाता, अपितु पहले के अधिनियम के प्रवर्त्तनशील प्रावधानों को समाप्त कर देता है।” 

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पीबी वराले 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पीबी वराले की पीठ ने माना कि पुराने अधिनियम का निरसन करने वाले नए अधिनियम को राष्ट्रपति की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है। 

  • उच्चतम न्यायालय ने  मेसर्स एसआरएस ट्रेवल्स द्वारा मालिक के.टी. राजशेखर बनाम कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम श्रमिक एवं अन्य (2025) के मामले में यह माना। 

मेसर्स एसआरएस ट्रैवल्स द्वारा मालिक केटी राजशेखर बनाम कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम श्रमिक एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • कर्नाटक ठेका गाड़ी (अधिग्रहण) अधिनियम, 1976 (केसीसीए अधिनियम) निजी तौर पर संचालित ठेका गाड़ी का अधिग्रहण करने, उन्हें सार्वजनिक नियंत्रण में लाने और उन्हें कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम सहित राज्य के स्वामित्व वाली सड़क परिवहन निगमों को अंतरित करने के  लिये अधिनियमित किया गया था। 
  •  उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक राज्य बनाम रंगनाथ रेड्डी (1978) में केसीसीए अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा और बाद में विजयकुमार शर्मा बनाम कर्नाटक राज्य (1990) में इसकी पुष्टि की, जिसमें कहा गया कि यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 39(ख) और (ग) के अधीन निदेशित सिद्धांतों के अनुरूप है। 
  • मोटर यान अधिनियम, 1988 (MV Act) को बाद में अधिनियमित किया गया, जिसमें "ठेका गाड़ी" और "मंजिली गाड़ी" को परिभाषित किया गया, साथ ही परिवहन विनियमन पर शक्तियों के साथ राज्य और क्षेत्रीय परिवहन प्राधिकरण (STA & RTA) की स्थापना भी की गई। 
  • कर्नाटक मोटर यान नियम, 1989 ने  STA और RTA को अपने सचिवों को ठेका गाड़ी परमिट जारी करने सहित शक्तियों को सौंपने के  लिये प्राधिकृत किया। 
  • सार्वजनिक परिवहन की बढ़ती मांग और निजी गाड़ियों पर परिसीमाओं के कारण, सार्वजनिक परिवहन को उदार बनाने और निजी ऑपरेटरों को अनुमति देने के  लिये कर्नाटक अधिनियम संख्या 9, 2003 (2003 निरसन अधिनियम) के माध्यम से केसीसीए अधिनियम को निरसित कर दिया गया। 
  • निरसन के पश्चात्, निजी बस ऑपरेटरों ने ठेका गाड़ी परमिट के  लिये आवेदन किया, और कुछ परमिट एसटीए और आरटीए के सचिवों द्वारा दिए गए। 
  •  कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम और उसके कर्मचारियों ने 2003 के निरसन अधिनियम और परमिट देने की शक्तियों के प्रत्यायोजन को चुनौती दी, तथा तर्क दिया कि केसीसीए अधिनियम का निरसन करने के  लिये राष्ट्रपति की पुनः स्वीकृति की आवश्यकता होगी तथा परमिट जारी करने का अधिकार बहु-सदस्यीय निकायों के पास ही रहना चाहिये 
  • 17 नवंबर 2004 को, कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक एकल न्यायाधीश ने फैसला सुनाया कि 2003 का निरसन अधिनियम असांविधानिक था और केएमवी नियमों के नियम 55 और 56 अधिकारातीत थे क्योंकि वे सांविधिक प्राधिकरण के बजाय सचिव द्वारा परमिट जारी करने की अनुमति देते थे। 
  • मामला एक खण्डपीठ को भेजा गया, जिसने 28 मार्च 2011 को 2003 के निरसन अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा और फैसला सुनाया कि विधान सभा के पास राष्ट्रपति की पुनः स्वीकृति के बिना 1976 के अधिनियम का निरसन करने की शक्ति है। 
  • हालाँकि, खण्डपीठ ने सचिव, एसटीए/आरटीए को परमिट देने की शक्ति सौंपने को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि ऐसी शक्ति अर्ध-न्यायिक है और इसके  लिये सामूहिक निर्णय की आवश्यकता है। 
  •  खण्डपीठ के आदेश से व्यथित होकर, निजी बस ऑपरेटरों, कर्नाटक एसटीए और कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम द्वारा उच्चतम न्यायालय में कई विशेष अनुमति याचिकाएँ (एसएलपी) दायर की गईं: 
    • निजी बस ऑपरेटरों (एसएलपी (सी) संख्या 27833-27834 ऑफ 2011) ने उस विनिर्णय को चुनौती दी, जिसमें परमिट देने की शक्तियों के प्रत्यायोजन को अस्वीकार कर दिया गया था, परंतु 2003 के निरसन अधिनियम की वैधता को स्वीकार किया गया था। 
    • कर्नाटक एसटीए (एसएलपी (सी) संख्या 32499-525 ऑफ 2011) ने भी 2003 के निरसन अधिनियम की वैधता का समर्थन करते हुए प्रत्यायोजन पर प्रतिबंध को चुनौती दी। कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम (एसएलपी (सी) संख्या 25787-956/2012) ने 2003 निरसन अधिनियम को बरकरार रखने वाले फैसले को चुनौती दी तथा इसे अमान्य घोषित करने की मांग की, लेकिन इस बात पर सहमति जताई कि सचिव, एसटीए/आरटीए के पास परमिट देने की शक्तियां नहीं होनी चाहिये 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम (केएसआरटीसी) ने तर्क दिया कि केसीसीए अधिनियम का निरसन करना असांविधानिक था क्योंकि इसने कथित तौर पर रंगनाथ रेड्डी बनाम रंगनाथ रेड्डी (1978) और विजयकुमार शर्मा बनाम कर्नाटक राज्य (1990) में उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को खारिज कर दिया था। 
  • न्यायालय ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि उच्चतम न्यायालय के निर्णयों ने अधिनियमन के समय केसीसीए अधिनियम की वैधता की पुष्टि की थी और विधानमंडल को नीतिगत परिवर्तनों के जवाब में इसे बाद में संशोधित या निरसन करने से नहीं रोका था। 
  • न्यायालय ने माना कि निरसन के  लिये राष्ट्रपति की पुनः स्वीकृति की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि निरसन विधि एक नया विधिक ढांचा नहीं बनाता है अपितु पुरानी विधि के प्रावधानों को केवल निष्प्रभावी करता है। 
  • निरसन सूची II (कराधान) की प्रविष्टि 57 के अधीन अधिनियमित किया गया था, जहां राज्य के पास स्वतंत्र विधायी क्षमता है, जबकि मूल केसीसीए अधिनियम प्रविष्टि 42 (संपत्ति का अधिग्रहण और अभिग्रहण) के अधीन अधिनियमित किया गया था। 
  • यह निरसन एक नीतिगत विनिश्चय था जिसका उद्देश्य केसीसीए अधिनियम पर न्यायिक निर्णयों को दरकिनार करने के प्रयास के बजाय अधिक नम्य परिवहन प्रणाली बनाना था। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कर्नाटक मोटर यान कराधान और कुछ अन्य विधिक (संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 3, जिसने केसीसीए अधिनियम का निरसन किया, सांविधानिक थी 
  • कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम निरसन में कोई विधायी दोष साबित करने में विफल रहा, और न्यायालय ने केसीसीए अधिनियम का निरसन करने के  लिये राज्य विधानमंडल की शक्ति को बरकरार रखा। 

संसद और राज्य विधानमंडल की विधायी शक्तियाँ क्या हैं? 

  • संविधान में ‘विधायी शक्तियों का वितरण’ शीर्षक के अंतर्गत संविधान का अनुच्छेद 246  दिया गया है। 
  • इसमें उन विषय-वस्तुओं का उल्लेख है जिन पर विधान सभाओं और संसद को विधि बनाने की शक्ति है। 
  • अनुच्छेद 246 (1) में प्रावधान है कि  खण्ड  (2) और (3) में किसी बात के होते हुए भी, संसद को सातवीं अनुसूची की सूची I में  (जिसे संविधान में जिसे “संघ सूची” कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के संबंध में विधि बनाने की अनन्य शक्ति है। इसमें रक्षा, विदेशी मामले, रेलवे, बैंकिंग आदि जैसी प्रविष्टियाँ शामिल होंगी। 
  • अनुच्छेद 246 (2) में प्रावधान है कि  खण्ड  (3) में किसी बात के होते हुए भी, संसद और  खण्ड  (1) के अधीन रहते हुए, किसी भी राज्य के विधानमंडल को भी सातवीं अनुसूची की सूची III में (जिसे इस संविधान में जिसे “समवर्ती सूची” कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के संबंध में विधि बनाने की शक्ति है। 
    • समवर्ती सूची दोहरे वितरण की अत्यधिक कठोरता को कम करने के  लिये एक उपकरण के रूप में कार्य करती है। 
    • सरकारिया आयोग की रिपोर्ट के अनुसार समवर्ती सूची के विषय न तो पूरी तरह से राष्ट्रीय मुद्दा के हैं और न ही स्थानीय मुद्दा के, इस लिये वे सांविधानिक रूप से अस्पष्ट क्षेत्र में आते हैं। 
  • अनुच्छेद 246 (3) में प्रावधान है कि  खण्ड  (1) और (2) के अधीन रहते हुए, किसी भी राज्य के विधानमंडल को सातवीं अनुसूची की सूची II में (जिसे इस संविधान में "राज्य सूची" कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के संबंध में ऐसे राज्य या उसके किसी भाग के  लिये विधि बनाने की विशेष शक्ति है। 
  • इस प्रकार, सातवीं अनुसूची में तीन सूचियाँ हैं, जो उन विषयों को प्रगणित करती हैं, जिन पर संसद या राज्य विधानमंडल को विधि बनाने की शक्ति है।