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आपराधिक कानून

BSA के अंतर्गत FIR में अभियुक्त के नाम का लोप

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 06-Feb-2025

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम रघुवीर सिंह 

“FIR में लोप महत्त्वपूर्ण है और साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 के अधीन एक सुसंगत तथ्य है।” 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने कहा कि FIR में अभियुक्त का नाम उल्लिखित करने में लोप भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 11 के अधीन सुसंगत है। 

  • उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश राज्य बनाम रघुवीर सिंह (2025) के वाद में यह निर्णय दिया। 

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम रघुवीर सिंह मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • मृतक के परिवार का प्रतिवादी (अभियुक्त) के साथ शत्रुतापूर्ण संबंध था। 
  • 1991 में, प्रतिवादी को परिवादकर्त्ता के भाई सीताराम की हत्या के लिये दोषसिद्ध ठहराया गया और आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया। 
  • मृतक एक निजी परिवहन कंपनी में ड्राइवर के रूप में कार्यरत था और सामान्यतः देर शाम को घर लौटता था। 
  • 28 अगस्त 2004 को मृतक घर वापस नहीं आया, जिसके बाद उसके परिवार ने उसकी तलाश की। 
  • रात करीब 10:30 बजे मृतक के पिता, भाई और बेटे ने प्रतिवादी और दो किशोर सह-अपराधियों को मृतक पर चाकुओं से हमला करते देखा। 
  • हमला इतना गंभीर था कि मृतक का सिर पूरी तरह से धड़ से अलग हो गया। 
  • घटना देर रात होने के बावजूद, लगभग 14 घंटे बाद, अगले दिन दोपहर करीब 1:00 बजे प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई। 
  • पुलिस ने शव को सतपाल (DW-1)) के खेत से बरामद किया और दो साक्षियों की मौजूदगी में जाँच पंचनामा तैयार किया। 
  • शव को पोस्टमार्टम के लिये भेज दिया गया, तथा साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 27 के अधीन प्रतिवादी के प्रकटीकरण के आधार पर अपराध में प्रयुक्त हथियार बरामद कर लिये गए।  
  • मृतक के कपड़े तथा अभियुक्त के कपड़े एकत्र किये गए तथा उन्हें फोरेंसिक विश्लेषण के लिये भेज दिया गया। 
  • प्रतिवादी तथा दो किशोर सह-अभियुक्तों के विरुद्ध हत्या के लिये धारा 302 सहपठित 34 के अधीन आरोप पत्र दाखिल किया गया। 
  • विचारण न्यायालय ने किशोर सह-अभियुक्तों के लिये विचारण को पृथक् कर दिया तथा प्रतिवादी के विरुद्ध कार्यवाही की। 
  • अभियोजन पक्ष ने नौ साक्षियों की जाँच की, जबकि बचाव पक्ष ने चार साक्षियों को पेश किया। 
  • अभियुक्त ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 313 के अधीन अपने कथन के दौरान सभी आरोपों से इंकार किया, तथा मिथ्या आरोप लगाने का दावा किया। 
  • विचारण न्यायालय ने प्रतिवादी को दोषी पाया तथा उसे जुर्माने के साथ आजीवन कारावास की दण्ड दिया।  
  • प्रतिवादी ने दोषसिद्धि के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की। 
  • उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के निर्णय को पलट दिया और प्रतिवादी को दोषमुक्त कर दिया। 
  • राज्य ने अब दोषमुक्ति को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में वर्तमान अपील दायर की है। 

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं? 

  • न्यायालय ने पाया कि वर्तमान मामला तीन प्रत्यक्षदर्शियों, हथियार की खोज, अभिकथित हेतुक और बचाव पक्ष के साक्षियों के मौखिक साक्ष्य पर आधारित है। 
  • इसके अलावा, FIR के संबंध में न्यायालय ने निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया: 
    • FIR 14 घंटे की विलंब के पश्चात् दर्ज की गई थी। 
    • FIR में केवल प्रतिवादी-अभियुक्त का उल्लेख किया गया था, दो किशोर सह-अभियुक्तों के नाम छोड़ दिये गए थे, जिससे प्रत्यक्षदर्शी के परिसाक्ष्य की विश्वसनीयता पर संदेह उत्पन्न हुआ। 
  • जबकि FIR दर्ज करने में विलंब से वाद अपने आप बदनाम नहीं होता है, किंतु अभियोजन पक्ष के साक्ष्य में अन्य विसंगतियों के साथ इसका मूल्यांकन किया जाना चाहिये। 
  • न्यायालय ने माना कि FIR में अभियुक्त का नाम न होना भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 के अधीन एक सुसंगत तथ्य है। 
  • यह देखा गया कि विचारण करने वाला न्यायाधीश को साक्ष्य की संभावनाओं का मूल्यांकन करना चाहिये और अभियुक्त के पक्ष में किसी भी उचित संदेह पर विचार करना चाहिये। 
  • न्यायालय ने पाया कि तीन प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों पर अविश्वास करने में उच्च न्यायालय द्वारा कोई त्रुटि नहीं की गई। 
  • प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के साक्ष्य को खारिज कर दिये जाने के बाद, मामला हथियार की खोज पर निर्भर हो गया। 
  • उच्च न्यायालय ने हथियार की खोज पर भी अविश्वास किया, क्योंकि स्वतंत्र साक्षी (पंच) पंचनामा की सामग्री को सत्यापित करने में विफल रहे। 
  • इन कारकों के आधार पर, अभियुक्तों को दोषमुक्त करने का उच्च न्यायालय का निर्णय उचित था। 
  • इस प्रकार, उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया। 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 क्या है? 

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 में यह उपबंध है कि वे तथ्य, जो अन्यथा सुसंगत नहीं है तब सुसंगत हो जाते हैं। 
  • यह एक अवशिष्ट उपबंध है जो अन्य सभी तथ्यों की बात करता है जो अन्यथा असंगत हैं। 
  • यह प्रावधानित करता है कि निम्नलिखित तथ्य सुसंगत हैं: 
    • यदि वे किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य से असंगत हैं। 
    • यदि वे स्वयंमेव या अन्य तथ्यों के संबंध में किसी विवाद्यक या सुसंगत तथ्य का अस्तित्व या अनस्तित्व अत्यंत अधिसंभाव्य या अनधिसंभाव्य बनाते हैं। 
  • यह प्रावधान भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 9 के अधीन उल्लिखित है। 

FIR क्या है और इसका साक्ष्यिक मूल्य क्या है? 

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अधीन दी गई सूचना को सामान्यत: प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के रूप में जाना जाता है, यद्यपि इस शब्द का प्रयोग संहिता में नहीं किया जाता है। 
  • यह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 173 के अधीन उपबंधित किया गया है। 
  • FIR के संबंध में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में शुरू की गई नई विशेषताएँ इस प्रकार हैं: 
    • जीरो FIR (Zero FIR): भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में उपबंध है कि संज्ञेय अपराध से संबंधित सूचना को पंजीकृत किया जाना चाहिये, चाहे अपराध किसी भी क्षेत्र में किया गया हो। 
    • FIR इलेक्ट्रॉनिक रूप में दर्ज की जा सकती है: धारा 173 (1) में उपबंध है कि सूचना इलेक्ट्रॉनिक रूप में भी दी जा सकती है। इस मामले में FIR देने वाले व्यक्ति द्वारा तीन दिन के अंदर हस्ताक्षरित किये जाने पर उसके द्वारा लेखबद्ध की जाएगी। 
    • प्रारंभिक अन्वेषण का उपबंध: यदि संज्ञेय अपराध ऐसा है जिसके लिये 3 वर्ष या उससे अधिक का दण्ड किंतु 7 वर्ष से अधिक नहीं है, तो पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी अपराध की प्रकृति और गंभीरता को देखते हुए पुलिस अधीक्षक की पूर्व अनुमति से: 
      • चौदह दिनों की अवधि के अंदर मामले में कार्यवाही करने के लिये प्रथमदृष्टया: मामला विद्यमान है या नहीं, यह पता लगाने के लिये प्रारंभिक जाँच संचालित करने के लिये आगे बढ़ सकता है; या 
      • जब प्रथमदृष्टया: मामला विद्यमान हो तो अन्वेषण के साथ आगे बढ़ सकता है।