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आपराधिक कानून

हस्तलेखन विशेषज्ञ की राय

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 06-Mar-2025

सी. कमलाक्कनन बनाम तमिलनाडु राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक सी.बी.सी.आई.डी., चेन्नई 

"हस्तलेख विशेषज्ञ की राय पर विचार करते न्यायालय का दृष्टिकोण सावधानी से आगे बढ़ना, राय के कारणों की जांच करना, अन्य सभी सुसंगत साक्ष्यों पर विचार करना और अंततः इसे स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय लेना होना चाहिये।" 

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने कहा है कि हस्तलेख विज्ञान "अभी इतना परिपूर्ण नहीं है" और इसके कारणों की सावधानीपूर्वक जांच की आवश्यकता है।  

  • उच्चतम न्यायालय ने सी. कमलाक्कनन बनाम तमिलनाडु राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक सी.बी.सी.आई.डी., चेन्नई (2025) के मामले में यह निर्णय दिया 

सी. कमलाक्कनन बनाम तमिलनाडु राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक सी.बी.सी.आई.डी., चेन्नई मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?  

  • यह मामला एक कूटरचित मार्कशीट के इर्द-गिर्द घूमता है जिसका प्रयोग MBBS कोर्स में दाखिले के लिये किया गया था। 
  • कुमारी अमुधा ने कूटरचित मार्कशीट का प्रयोग करके MBBS कोर्स में दाखिले के लिये आवेदन किया था।  
  • कुमारी अमुधा द्वारा प्राप्त मूल अंक 1200 में से 767 थे, किंतु कूटरचित मार्कशीट में 1200 में से 1120 अंक दिखाए गए थे। 
  • इस कूटरचना का पता चलने पर एक आपराधिक मामला दर्ज किया गया। 
  • अन्वेषण के पश्चात्, सी. कमलाक्कनन (अपीलकर्त्ता) और अन्य सह-अभियुक्त व्यक्तियों के विरुद्ध आरोप पत्र दायर किया गया। 
  • अपीलकर्त्ता के विरुद्ध विशेष आरोप यह था कि उसने डाक कवर तैयार किया था जिसमें कूटरचित मार्कशीट भेजी गई थी।  
  • अभियोजन पक्ष ने अपीलकर्त्ता के अपराध से संबंध स्थापित करने के लिये मुख्य रूप से एक हस्तलेख विशेषज्ञ के साक्ष्य पर विश्वास किया। 
  • अपीलकर्त्ता पर विचारण न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 120ख (आपराधिक षड्यंत्र), 468 (छल के प्रयोजन से कूटरचना) और 471 (कूटरचित दस्तावेज़ असली के रूप में उपयोग मे लाना) के साथ धारा 109 (दुष्प्रेरण) के अधीन आरोप लगाए गए थे। 
  • अपीलकर्त्ता को शुरू में गिरफ्तार किया गया था और वह विचाराधीन कैदी के रूप में अभिरक्षा में रहा।  
  • उच्च न्यायालय ने पुनरीक्षण याचिका में अवर न्यायालयों द्वारा पारित दोषसिद्धि और संशोधित दण्ड को बरकरार रखा। 
  • उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं: 
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता के विरुद्ध अभियोजन पक्ष का सबसे बड़ा मामला यह था कि डाक कवर पर उसका हस्तलेख था 
    • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष साक्ष्य के रूप में मूल डाक कवर प्रस्तुत करने में विफल रहा। 
    • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि डाक कवर को कभी भी साक्ष्य में प्रदर्शित या ठीक से पहचाना नहीं गया। 
    • उच्चतम न्यायालय ने हस्तलेख विशेषज्ञ साक्ष्य पर निर्भरता के सिद्धांतों के संबंध में मुरारी लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1980) मामले का संदर्भ दिया। 
    • उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि हस्तलेख विज्ञान " अभी इतना परिपूर्ण नहीं है" और इसके कारणों की सावधानीपूर्वक जांच की आवश्यकता है। 
    • उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि चूंकि डाक कवर को स्वयं प्रदर्शित नहीं किया गया था और साक्ष्य में साबित नहीं किया गया था, इसलिये यह स्वीकार करने का कोई आधार नहीं था कि उस पर अपीलकर्त्ता की लिखावट थी।  
    • उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि "अभियोजन पक्ष विवादित डाक कवर के अस्तित्व को साबित करने में बुरी तरह विफल रहा।" 
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विचारण न्यायालय द्वारा दर्ज की गई दोषसिद्धि, जिसकी अपील न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि की गई थी, "विधिक परीक्षण पर खरी नहीं उतरती है।" 
    • उच्चतम न्यायालय ने अपील को स्वीकार करते हुए और सभी अवर न्यायालयों  के निर्णयों को रद्द करते हुए अपीलकर्त्ता को " स्पष्टत: दोषमुक्ति" प्रदान की।  

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 45 क्या है? 

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA), भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 के अंतर्गत विशेषज्ञ के साक्ष्य के बारे में बात करती है। 
  • धारा 45 - विशेषज्ञों की राय जबकि न्यायालय को विदेशी विधि या विज्ञान की  या कला की किसी बात पर या हस्तलेख या अंगुलि-चिन्हों की अनन्यता के बारे में  राय बनानी हो, तब उस बात पर ऐसी विदेशी विधि, विज्ञान या कला में या हस्तलेख या अंगुलिचिन्हों की अनन्यता विषयक प्रश्नों में विशेष कुशल व्यक्तियों की रायें सुसंगत तथ्य है ऐसे व्यक्ति विशेषज्ञ कहलाते है। 
    • भारतीय साक्ष्य अधिनियम विशेषज्ञ की राय को उचित महत्त्व देता है, जबकि एक सामान्य व्यक्ति की राय का कोई मूल्य नहीं होता। 
    • विशेषज्ञ का साक्ष्य निश्चायक नहीं होता है और ऐसे साक्ष्य पर कितना विश्वास किया जाए या उसे कितना महत्त्व दिया जाए, यह संबंधित न्यायालय की अधिकारिता है। 
  • अब इसी धारा को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 39 के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है। 

ऐतिहासिक निर्णय 

मुरारी लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1980) 

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने हस्तलेख विशेषज्ञ अभिसाक्षी के साक्ष्यिक  मूल्य के संबंध में कई महत्त्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित किये: 
    • विशेषज्ञ साक्ष्य की स्थिति: न्यायालय ने इस धारणा को अस्वीकार किया कि हस्तलेखन विशेषज्ञ के साक्ष्य को स्वाभाविक रूप से संदिग्ध माना जाना चाहिये या प्रत्येक मामले में अनिवार्य रूप से संपुष्टि की आवश्यकता होती है। निर्णय में स्पष्ट किया गया कि हस्तलेख विशेषज्ञ "सह-अपराधी नहीं है" और उनके साक्ष्य को स्वतः ही निम्न स्तर की साक्ष्य श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिये 
    • वैज्ञानिक परिसीमाएँ: न्यायालय ने स्वीकार किया कि हस्तलेख विश्लेषण एक अपूर्ण विज्ञान है और यह फिंगरप्रिंट विश्लेषण जैसी अधिक विकसित फोरेंसिक तकनीकों की तुलना में कम विश्वसनीय है। निर्णय में उल्लेख किया गया कि "हस्तलेख की पहचान का विज्ञान इतना पूर्ण नहीं है, और इसलिये गलत राय का जोखिम अधिक है"।  
    • विशेषज्ञ के अभिसाक्ष्य के प्रति दृष्टिकोण: न्यायालय ने हस्तलेख विशेषज्ञ के अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन करते समय सतर्क दृष्टिकोण अपनाने की वकालत की, जिसमें कहा गया कि न्यायालयों को "सावधानी से आगे बढ़ना चाहये, राय के कारणों की जांच करनी चाहिये, अन्य सभी सुसंगत साक्ष्यों पर विचार करना चाहिये और अंततः इसे स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय लेना चाहिये।"  
    • अनिवार्य संपुष्टि नहीं: निर्णय ने स्पष्ट रूप से विधि या विवेक के किसी भी नियम को अस्वीकार कर दिया "कि हस्तलेख विशेषज्ञ की राय-साक्ष्य पर कभी भी कार्रवाई नहीं की जानी चाहिये, जब तक कि पर्याप्त रूप से संपुष्टि न हो जाए।" इसने इस बात पर बल दिया कि ऐसे मामलों में जहाँ विशेषज्ञ का तर्क विश्वसनीय है और कोई विश्वसनीय विरोधाभासी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, अपुष्ट अभिसाक्ष्य को स्वीकार किया जा सकता है।  
    • मूल्यांकन का आधार: न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि विशेषज्ञ की राय को "उसके द्वारा दिये गए कारणों की स्वीकार्यता के आधार पर परखा जाना चाहिये" न कि उसे शुरुआती संदेह के साथ देखा जाना चाहिये। निर्णय में कहा गया कि "एक विशेषज्ञ गवाही देता है और निर्णय नहीं लेता है," जो विशेषज्ञ के अभिसाक्ष्य की निर्णायक प्रकृति के बजाय सलाहकारी प्रकृति को उजागर करता है।  
    • लचीला दृष्टिकोण: न्यायालय ने कठोर नियमों के स्थान पर मामला-दर-मामला दृष्टिकोण अपनाने की वकालत करते हुए कहा कि "कोई कठोर नियम नहीं हो सकता, किंतु किसी विशेषज्ञ की राय को चुनौती न दिये गए कारणों के आधार पर केवल इस आधार पर अस्वीकार करना उचित नहीं होगा कि उसकी संपुष्टि नहीं हुई है।"