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सिविल कानून

आदेश 22 नियम 4

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 13-Feb-2025

ओम प्रकाश गुप्ता उर्फ ​​लल्लूवा (अब मृतक) और अन्य बनाम सतीश चंद्र (अब मृतक) 

सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 22 नियम 4 - प्रतिस्थापन आवेदन पर्याप्त है; उपशमन को अपास्त करने के लिये अलग से कोई अभिवचन आवश्यक नहीं है” 

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और पी.के. मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और पी.के. मिश्रा की पीठ ने कहा है कि आदेश आदेश 22 नियम 4 के अधीन प्रतिस्थापन आवेदन दाखिल करने में स्वाभाविक रूप से उपशमन को अपास्त करने का अनुरोध सम्मिलित है, जिससे अलग से आवेदन करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।  

  • ओम प्रकाश गुप्ता उर्फ ​​लल्लूवा (अब मृतक) बनाम सतीश चंद्र (2025) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय सुनाया 
  • यह मामला तब सामने आया जब उच्च न्यायालय ने उपशमन को अपास्त करने के लिये अलग से आवेदन किये बिना दूसरी अपील को बहाल करने से इंकार कर दिया। यह निर्णय प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को स्पष्ट करता है, यह सुनिश्चित करता है कि तकनीकी कारणों से न्याय में विलंब न हो। 

ओम प्रकाश गुप्ता उर्फ ​​लल्लूवा (अब मृतक) और अन्य बनाम सतीश चंद्र (अब मृतक) की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • यह मामला दूसरी अपील से संबंधित है जो मूल आवेदक की मृत्यु के पश्चात् विधिक उत्तराधिकारियों के प्रतिस्थापन न होने के कारण समाप्त हो गई थी। 
  • मृतक आवेदक के विधिक प्रतिनिधियों (legal representatives) ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर किया, जिसमें आवेदक की मृत्यु की सूचना दी गई तथा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 22 नियम 4 के अधीन प्रतिस्थापन के लिये उत्तराधिकारियों का विवरण प्रदान किया गया। 
  • उक्त आवेदन में स्पष्ट रूप से अपील के उपशमन को अपास्त करने के लिये अलग से प्रार्थना नहीं की गई थी। 
  • उच्च न्यायालय ने प्रारंभ में द्वितीय अपील को बहाल कर दिया था, किंतु बाद में अपने बहाली आदेश को वापस ले लिया। 
  • उच्च न्यायालय द्वारा अपील वापस लेने के पीछे तर्क इस प्रक्रियागत आवश्यकता पर आधारित था कि अपील को, उपशमन को अपास्त करने के लिये पृथक् और विशिष्ट आवेदन के बिना अपील को बहाल नहीं किया जा सकता था। 
  • उच्च न्यायालय ने विधिक प्रतिनिधि द्वारा दायर प्रतिस्थापन आवेदन पर विचार करने से इंकार कर दिया, यह कहते हुए कि उपशमन को अपास्त करने के लिये एक पृथक् आवेदन अनिवार्य था। 
  • उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर, मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष लाया गया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विधिक प्रतिनिधियों के प्रतिस्थापन और उपशमन से संबंधित मामलों में न्यायोन्मुखी दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिये 
  • न्यायालय ने कहा कि विधिक उत्तराधिकारियों के प्रतिस्थापन के लिये आवेदन में उपशमन को अपास्त करने की प्रार्थना निहित है, भले ही स्पष्ट रूप से न कहा गया हो। 
  • न्यायालय ने कहा कि विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने के लिये आवेदन दायर करने का कार्य ही प्रभावी रूप से उपशमन को अपास्त करने की प्रार्थना बन जाता है। 
  • मिठाईलाल दलसांगर सिंह बनाम अन्नाबाई देवराम किनी (2003) में स्थापित पूर्व निर्णय से प्रेरणा लेते हुए, न्यायालय ने दोहराया कि प्रतिस्थापन आवेदन में उपशमन को अपास्त करने की प्रार्थना निहित है। 
  • न्यायालय ने कहा कि उपशमन को अपास्त करने के अनुतोष के लिये स्पष्ट शब्दों में विशेष रूप से प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह प्रतिस्थापन के लिये प्रार्थना में अनिवार्य रूप से निहित है।  
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि ऐसे मामलों में कठिन प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का पालन न्याय के हितों पर अधिभावी नहीं होना चाहिये 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय ने उपशमन को अपास्त करने के लिये एक पृथक् आवेदन पर जोर देकर गलती की, जबकि प्रतिस्थापन आवेदन पहले से ही अभिलेख में था। 
  • उच्चतम न्यायालय ने निश्चित रूप से स्थापित किया कि न्याय के उद्देश्यों के लिये, प्रतिस्थापन के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 नियम 4 के अधीन एक आवेदन प्रभावी रूप से उपशमन को अपास्त करने की आवश्यकता को पूर्ण करता है। 

सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश नियम 4 क्या है? 

  • नियम के अनुसार, एकमात्र प्रतिवादी या कई प्रतिवादियों में से किसी एक की मृत्यु होने पर, जहाँ वाद करने का अधिकार बना रहता है, मृतक प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि(यों) को वाद में आगे बढ़ाने के लिये अभिलेख पर लाने के लिये न्यायालय के समक्ष आवेदन दायर किया जाना चाहिये 
  • प्रतिस्थापन के लिये उचित आवेदन प्राप्त होने पर, न्यायालय यह सुनिश्चित करने के लिये आबद्ध है कि मृतक प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि(यों) को वाद में पक्षकार बनाया जाए, बशर्ते कि ऐसे विधिक प्रतिनिधि(यों) के विरुद्ध वाद करने का अधिकार बना रहे। 
  • कोई भी व्यक्ति जिसे विधिक प्रतिनिधि के रूप में अभिलेख पर लाया जाता है, उसके पास मृतक प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि के रूप में उनके चरित्र के लिये उपयुक्त और सुसंगत प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने का अधिकार होता है। 
  • निर्धारित परिसीमा काल के भीतर प्रतिस्थापन के लिये आवेदन दायर करने में असफलता के परिणामस्वरूप मृतक प्रतिवादी के विरुद्ध वाद का स्वतः उपशमन हो जाता है, तथा जिसके लिये किसी विशिष्ट आदेश की आवश्यकता नहीं होती है। 
  • न्यायालय के पास उन मामलों में वादी को विधिक प्रतिनिधियों को प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता से छूट देने का विवेकाधीन अधिकार है, जहाँ मृतक प्रतिवादी या तो लिखित कथन दाखिल करने में असफल रहा हो या इसे दाखिल करने के पश्चात्, उपस्थित होने और वाद का विरोध करने में असफल रहा हो। 
  • ऐसे मामलों में जहाँ न्यायालय छूट की अपनी विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग करता है, मृतक प्रतिवादी के विरुद्ध सुनाया गया कोई भी निर्णय उसी तरह बल और प्रभाव रखेगा जैसे कि वह मृत्यु होने से पूर्व सुनाया गया हो। 
  • यह नियम उन वादियों को विशेष अनुतोष प्रदान करता है जो प्रतिवादी की मृत्यु के बारे में अनभिज्ञ थे और परिणामस्वरूप परिसीमा अधिनियम, 1963 द्वारा विहित परिसीमा काल के भीतर प्रतिस्थापन आवेदन दायर नहीं कर सके। 
  • जहाँ प्रतिवादी की मृत्यु के बारे में वादी की अनभिज्ञता के कारण किसी वाद का उपशमन हो गया है, वहाँ वादी, परिसीमा काल के पश्चात्, परिसीमा को अपास्त करने और विलंब के लिये क्षमा मांगने के लिये, परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के अधीन आवेदन दायर कर सकता है।  
  • विलंब की क्षमा के लिये परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत आवेदनों पर विचार करते समय न्यायालय को विलंब के पर्याप्त कारण के रूप में प्रतिवादी की मृत्यु के बारे में वादी की अज्ञानता के साबित तथ्य पर उचित विचार करना चाहिये 
  • यह नियम वादी के वाद को आगे बढ़ाने के अधिकार, मृतक प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधियों के अधिकारों और प्रक्रियागत तकनीकी कारणों से वादों की अनावश्यक समाप्ति को रोकने की न्यायालय की शक्ति के बीच संतुलन स्थापित करते हुए एक व्यापक प्रक्रियात्मक ढाँचा स्थापित करता है।