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सिविल कानून

फूलचंद बनाम गोपाल लाल (1967)

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 09-Sep-2024

परिचय:

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें कहा गया है कि विभाजन के वादों में एक से अधिक प्रारंभिक डिक्री पारित की जा सकती है।

  • यह निर्णय तीन न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति के.एन. वांचू, न्यायमूर्ति आर.एस. बछावत और न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी द्वारा सुनाया गया।

तथ्य:

  • फूलचंद (अपीलकर्त्ता) ने वर्ष 1937 में वाद की अनुसूची में उल्लिखित कुछ संपत्तियों में अपने पाँचवें भाग के विभाजन के लिये वाद दायर किया था।
  • इस वाद में प्रतिवादी,अपीलकर्त्ता के पिता सोहन लाल, अपीलकर्त्ता के भाई गोपाल लाल तथा गोकलचंद (मृतक) का अवयस्क दत्तक पुत्र राजमल थे।
  • यह वाद जयपुर राज्य की प्रिवी काउंसिल तक संस्थित किया गया और अपीलकर्त्ता एवं चार प्रतिवादियों के भागों को निर्दिष्ट करते हुए विभाजन के लिये एक प्रारंभिक डिक्री पारित की गई।
  • अंतिम आदेश पारित होने से पूर्व ही पिता की मृत्यु हो गई एवं उसके तुरंत बाद माँ की भी मृत्यु हो गई।
  • प्रतिवादी ने पिता द्वारा अपने पक्ष में निष्पादित वसीयत के अंतर्गत संपत्ति में पिता के भाग पर दावा किया और अपीलकर्त्ता ने माँ द्वारा अपने पक्ष में निष्पादित बिक्री विलेख के अंतर्गत माँके भाग पर दावा किया।
  • अपीलकर्त्ता ने वसीयत की सत्यता को चुनौती दी।
  • ट्रायल कोर्ट ने संपत्ति में भागों के पुनर्वितरण का आदेश पारित कर दिया, परंतु कोई नया प्रारंभिक आदेश नहीं किया।
  • उच्च न्यायालय में एक अपील दायर की गई थी जिसमें कहा गया था कि:
    • डिक्री की प्रति के बिना भी अपील स्वीकार्य थी।
    • विचारण न्यायालय द्वारा पहले से पारित प्रारंभिक डिक्री में संपत्ति के भाग में परिवर्तन कर के ही वर्तमान परिस्थितियों में डिक्री निष्पादित होनी थी तथा प्रतिवादी इसके विरुद्ध अपील कर सकता था।
    • माँ को अपना भाग बेचने का अधिकार नहीं था, इसलिये अपीलकर्त्ता के पक्ष में की गई बिक्री अवैध थी।
    • प्रतिवादी के पक्ष में की गई वसीयत वास्तविक थी।
  • इसलिये, उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।

शामिल मुद्दे:

  • क्या उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश, जिसमें ट्रायल कोर्ट के आदेश को यथावत् रखा गया है, वैध है?

टिप्पणियाँ:

  • यह विवादित नहीं है कि विभाजन के वाद में न्यायालय को संपत्ति के भागों को उचित रूप से संशोधित करने का अधिकार है, भले ही प्रारंभिक डिक्री पारित हो गई हो, यदि परिवार का कोई सदस्य, जिसे प्रारंभिक डिक्री में आवंटन किया गया था, आवंटन के उपरांत मर जाता है।
    • न्यायालय ने माना कि संपत्ति के भागों में संशोधन करने में ट्रायल कोर्ट का निर्णय उचित था।
  • सिविल प्रक्रिया संहिता में ऐसा कुछ भी नहीं है जो एक से अधिक प्रारंभिक डिक्री पारित करने पर रोक लगाता हो, यदि परिस्थितियाँ उसे न्यायोचित ठहराती हों तथा ऐसा करना आवश्यक हो, विशेष रूप से विभाजन के वादों में, जब प्रारंभिक डिक्री के उपरांत कुछ पक्षकारों की मृत्यु हो जाती है एवं अन्य पक्षकारों के भागों में वृद्धि हो जाती है।
  • इस प्रकार, कोई कारण नहीं है कि न्यायालय द्वारा विभाजन के वाद में संपत्ति के भाग को संशोधित करने के लिये दूसरा प्रारंभिक आदेश पारित न किया जा सके।
  • जहाँ तक ​​विभाजन के वादों का संबंध है, हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि प्रारंभिक डिक्री के पारित होने के उपरांत कोई ऐसी घटना घटती है, जिसके कारण संपत्ति के भागों में परिवर्तन आवश्यक हो जाता है, तो न्यायालय ऐसा कर सकता है और उसे ऐसा करना भी चाहिये।
  • हालाँकि न्यायालय ने कहा कि इसे विभाजन के वादों तक ही सीमित रखा जाना चाहिये, और हमारा अन्य प्रकार के वादों से कोई सरोकार नहीं है जिनमें प्रारंभिक और अंतिम डिक्री पारित की जाती है।
  • न्यायालय ने माना कि पिता द्वारा प्रतिवादी के पक्ष में निष्पादित की गई वसीयत वास्तविक थी और वसीयतकर्त्ता न केवल अपनी स्वयं अर्जित संपत्ति, बल्कि संयुक्त परिवार की संपत्ति में से प्राप्त भाग भी वसीयत करने का सक्षम था।
  • इसलिये न्यायालय ने अपीलें अस्वीकार कर दीं।

निष्कर्ष:

  • इस मामले में न्यायालय का मानना ​​था कि वसीयत निष्पादित की गई थी और न्यायालय ने प्रारंभिक डिक्री पारित करने वाले ट्रायल कोर्ट के आदेश को यथावत् रखा गया।